कक्षा 12 इतिहास अध्याय 4: प्राचीन भारत: सांची स्तूप, बौद्ध धर्म और जैन धर्म

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अध्याय 4: विचारक, विश्वास और इमारतें (सांस्कृतिक विकास) - भारतीय इतिहास भाग 1 | विस्तृत नोट्स
भारतीय इतिहास के कुछ विषय: भाग 1
अध्याय 4: विचारक, विश्वास और इमारतें (सांस्कृतिक विकास)

विचारक, विश्वास और इमारतें (सांस्कृतिक विकास)

नमस्ते प्यारे छात्रों!

आज हम अपने इतिहास के एक बहुत ही रोचक अध्याय की यात्रा पर निकल रहे हैं। यह अध्याय हमें प्राचीन भारत की विचार यात्रा, लोगों के विश्वास और उस समय की भव्य इमारतों के दर्शन कराएगा। हमारा मुख्य केंद्र होगा साँची का महान स्तूप, लेकिन हम इसके साथ-साथ बौद्ध धर्म, जैन धर्म और हिंदू धर्म के विकास को भी समझेंगे।

चिंता मत करो, हम इसे बहुत ही सरल और मजेदार तरीके से समझेंगे ताकि इतिहास की कोई भी बात मुश्किल न लगे।

1. सभी महत्वपूर्ण विषयों की सरल एवं स्पष्ट हिंदी में व्याख्या

यह अध्याय हमें बताता है कि इतिहासकार प्राचीन काल के पुनर्निर्माण के लिए किन स्रोतों का उपयोग करते हैं। इनमें बौद्ध, जैन और ब्राह्मण ग्रंथ शामिल हैं। साथ ही, इमारतों और अभिलेखों जैसे भौतिक साक्ष्य भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। साँची का स्तूप इस अध्याय के अध्ययन का एक प्रमुख केंद्र-बिंदु है।

साँची का स्तूप: एक झलक

अध्याय की शुरुआत साँची की एक झलक से होती है। उन्नीसवीं सदी में, भोपाल राज्य के प्राचीन अवशेषों में साँची सबसे अद्भुत इमारतों में से एक था। यह भोपाल से लगभग बीस मील उत्तर-पूर्व की ओर एक पहाड़ी की तलहटी में स्थित है। यूरोपीय सज्जन, जिनमें मेजर अलेक्जेंडर कनिंघम प्रमुख थे, इन अवशेषों में विशेष रुचि रखते थे। कनिंघम ने यहाँ कई हफ्तों तक रहकर अवशेषों का निरीक्षण किया, चित्र बनाए, अभिलेखों को पढ़ा और स्तूप के गुंबदनुमा ढाँचे के बीच खुदाई की। उन्होंने अपनी खोज के निष्कर्ष एक अंग्रेजी पुस्तक में लिखे।

यह जानना दिलचस्प है कि भोपाल के शासकों, शाहजहाँ बेगम और उनकी उत्तराधिकारी सुलतानों जहाँ बेगम, ने इस प्राचीन स्थल के रखरखाव के लिए धन दिया। जॉन मार्शल ने साँची पर लिखे अपने महत्वपूर्ण ग्रंथ सुलतानों जहाँ बेगम को ही समर्पित किए। सुलतानों जहाँ बेगम ने वहाँ एक संग्रहालय और अतिथि गृह बनाने के लिए भी अनुदान दिया, जहाँ रहकर जॉन मार्शल ने अपनी पुस्तकें लिखीं। उन्होंने इन पुस्तकों के प्रकाशन में भी योगदान दिया। इस तरह, साँची के स्तूप समूह के बचे रहने के पीछे कुछ विवेकपूर्ण निर्णयों की बड़ी भूमिका है। यह स्तूप उन रेल ठेकेदारों या निर्माताओं से भी बचा रहा जो इसे नष्ट कर सकते थे, और उन लोगों से भी जो ऐसी चीजें यूरोप के संग्रहालयों में ले जाना चाहते थे। इस बौद्ध धर्म के महत्वपूर्ण केंद्र की खोज से प्रारंभिक बौद्ध धर्म के बारे में हमारी समझ में महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं। आज, यह स्थल भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सफल मरम्मत और संरक्षण का जीता जागता उदाहरण है।

फिर अध्याय कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न पूछता है, जैसे इस इमारत का क्या महत्व है, इसे क्यों बनाया गया, इसके अंदर क्या था, इसके चारों ओर पत्थर की रेलिंग क्यों बनाई गई, इसे किसने बनवाया या इसके लिए धन किसने दिया, और इसकी 'खोज' कब हुई। इन सवालों के जवाब ग्रंथों, मूर्तियों, स्थापत्य कला और अभिलेखों के अध्ययन से मिल सकते हैं।

चिंतकों का उदय और नए प्रश्न

अध्याय हमें ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दी के महत्वपूर्ण काल में ले जाता है, जब ईरान में जरथुस्त्र, चीन में खुंगत्सी, यूनान में सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, और भारत में महावीर, बुद्ध और कई अन्य चिंतकों का उदय हुआ। इन्होंने जीवन के रहस्यों को समझने का प्रयास किया और मनुष्यों तथा विश्व व्यवस्था के बीच रिश्ते को समझने की कोशिश की। यह वही समय था जब गंगा घाटी में नए राज्य और शहर उभर रहे थे और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में बदलाव आ रहे थे।

नए प्रश्न:

उपनिषदों (छठी सदी ईसा पूर्व से) में मिली विचारधाराओं से पता चलता है कि लोग जीवन का अर्थ, मृत्यु के बाद जीवन की संभावना और पुनर्जन्म के बारे में जानने के लिए उत्सुक थे।

कई शिक्षक, जिनमें महावीर और बुद्ध शामिल थे, वेदों के प्रभुत्व पर प्रश्न उठाते थे। उन्होंने यह भी माना कि जीवन के दुःखों से मुक्ति का प्रयास हर व्यक्ति स्वयं कर सकता था। यह समझ ब्राह्मणवाद से बिल्कुल भिन्न थी, जो मानता था कि किसी व्यक्ति का अस्तित्व उसकी जाति और लिंग से निर्धारित होता है।

जैन दर्शन

जैन दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा यह है कि संपूर्ण विश्व प्राणवान है। माना जाता है कि पत्थर, चट्टान और जल में भी जीवन होता है। जीवों के प्रति अहिंसा - खासकर मनुष्यों, जानवरों, पेड़-पौधों और कीड़े-मकोड़ों को न मारना - जैन दर्शन का केंद्र बिंदु है। जैन अहिंसा के सिद्धांत ने संपूर्ण भारतीय चिंतन परंपरा को प्रभावित किया है। जैन मान्यता के अनुसार, जन्म और पुनर्जन्म का चक्र कर्म द्वारा निर्धारित होता है। कर्म के चक्र से मुक्ति के लिए त्याग और तपस्या की जरूरत होती है, जो संसार के त्याग से ही संभव हो पाता है। इसीलिए, मुक्ति के लिए विहारों में निवास करना एक अनिवार्य नियम बन गया। जैन साधु और साध्वी पाँच व्रत करते थे: हत्या न करना, चोरी नहीं करना, झूठ न बोलना, ब्रह्मचर्य, और धन संग्रह न करना।

बुद्ध और ज्ञान की खोज

बुद्ध उस युग के सबसे प्रभावशाली शिक्षकों में से एक थे। उनके संदेश पूरे उपमहाद्वीप में और उसके बाद मध्य एशिया, चीन, कोरिया, जापान, श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड और इंडोनेशिया तक फैले। हमें बुद्ध की शिक्षाओं के बारे में बौद्ध ग्रंथों के संपादन, अनुवाद और विश्लेषण से पता चलता है। इतिहासकारों ने उनके जीवन के बारे में चरित लेखन से जानकारी इकट्ठी की है। इनमें से कई ग्रंथ बुद्ध के जीवन काल के लगभग सौ वर्षों के बाद लिखे गए।

सिद्धार्थ (बुद्ध का बचपन का नाम) ने साधना के कई मार्गों का अन्वेषण किया, जिसमें शरीर को अधिक से अधिक कष्ट देना शामिल था, जिससे वे लगभग मरते-मरते बचे। इन अतिवादी तरीकों को त्यागकर, उन्होंने कई दिनों तक ध्यान करते हुए अंततः ज्ञान प्राप्त किया। इसके बाद, उन्हें बुद्ध अथवा ज्ञानी व्यक्ति के नाम से जाना गया। बाकी जीवन उन्होंने धर्म या सम्यक जीवनयापन की शिक्षा दी।

बौद्ध दर्शन

बौद्ध दर्शन के अनुसार, विश्व अनित्य है और लगातार बदल रहा है। यह आत्माविहीन है क्योंकि यहाँ कुछ भी स्थायी या शाश्वत नहीं है। इस क्षणभंगुर दुनिया में दुख मनुष्य के जीवन का अंतर्निहित तत्व है। घोर तपस्या और विषयाशक्ति के बीच मध्यम मार्ग अपनाकर मनुष्य दुनिया के दुखों से मुक्ति पा सकता है। बौद्ध धर्म की प्रारंभिक परंपराओं में भगवान का होना या न होना अप्रासंगिक था। बुद्ध मानते थे कि समाज का निर्माण मनुष्यों ने किया था न कि ईश्वर ने। इसीलिए, उन्होंने राजाओं और गृहपतियों को दयावान और आचारवान होने की सलाह दी। माना जाता था कि व्यक्तिगत प्रयास से सामाजिक परिवेश को बदला जा सकता था। बुद्ध ने जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति, आत्म-ज्ञान और निर्वाण के लिए व्यक्ति-केंद्रित हस्तक्षेप और सम्यक कर्म की कल्पना की। निर्वाण का मतलब था अहम् और इच्छा का खत्म हो जाना, जिससे गृहत्याग करने वालों के दुख के चक्र का अंत हो सकता था। बौद्ध परंपरा के अनुसार, अपने शिष्यों के लिए उनका अंतिम निर्देश था, "तुम सब अपने लिए खुद ही ज्योति बनो, क्योंकि तुम्हें खुद ही अपनी मुक्ति का रास्ता ढूँढना है"

बुद्ध के अनुयायी

धीरे-धीरे बुद्ध के शिष्यों का दल तैयार हो गया, इसलिए उन्होंने संघ की स्थापना की - भिक्षुओं की एक संस्था जो धर्म के शिक्षक बन गए। ये श्रवण एक सादा जीवन बिताते थे और उनके पास जीवनयापन के लिए आवश्यक चीजों के अलावा कुछ नहीं होता था। वे प्रतिदिन एक बार उपासकों से भोजन दान पाने के लिए एक कटोरा रखते थे। क्योंकि वे दान पर निर्भर थे, इसलिए उन्हें भिक्षु कहा जाता था। शुरू-शुरू में सिर्फ पुरुष ही संघ में शामिल हो सकते थे, लेकिन बाद में महिलाओं को भी अनुमति मिली। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार, बुद्ध के प्रिय शिष्य आनंद ने बुद्ध को समझाकर महिलाओं के संघ में आने की अनुमति प्राप्त की। बुद्ध की उपमाता महाप्रजापति गौतमी संघ में आने वाली पहली भिक्षुनी बनीं। कई स्त्रियाँ जो संघ में आईं, वे धर्म की उपदेशिकाएँ बन गईं। आगे चलकर, वे थेरी बनीं, जिसका मतलब है ऐसी महिलाएं जिन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया हो।

स्तूप

स्तूप बनाने की परंपरा बुद्ध से पहले की रही होगी, लेकिन वह बौद्ध धर्म से जुड़ गई। उनमें ऐसे अवशेष रहते थे जिन्हें पवित्र समझा जाता था, इसलिए समूचे स्तूप को ही बुद्ध और बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठा मिली। अशोकवदान नामक एक बौद्ध ग्रंथ के अनुसार, अशोक ने बुद्ध के अवशेषों के हिस्से हर महत्वपूर्ण शहर में बाँटकर उनके ऊपर स्तूप बनाने का आदेश दिया। ईसा पूर्व दूसरी सदी तक भरहुत, साँची और सारनाथ जैसी जगहों पर स्तूप बनाए जा चुके थे।

स्तूप कैसे बनाए गए:

स्तूपों की वेदिकाओं और स्तंभों पर मिले अभिलेखों से उन्हें बनाने और सजाने के लिए दिए गए दान का पता चलता है। कुछ दान राजाओं (जैसे सातवाहन वंश के राजा) द्वारा दिए गए थे, तो कुछ दान शिल्पकारों और व्यापारियों की श्रेणियों द्वारा दिए गए। सैकड़ों महिलाओं और पुरुषों ने दान के अभिलेखों में अपना नाम बताया है। कभी-कभी वे अपने गाँव या शहर का नाम बताते हैं और कभी-कभी अपना पेशा और रिश्तेदारों के नाम भी। इन इमारतों को बनाने में भिक्षुओं और भिक्षुणियों ने भी दान दिया।

स्तूप की संरचना:

स्तूप (संस्कृत अर्थ 'टीला') का जन्म एक गोलाकार मिट्टी के टीले से हुआ जिसे बाद में अंड कहा गया। धीरे-धीरे, इसकी संरचना जटिल हो गई, जिसमें कई चौकोर और गोल आकारों का संतुलन बनाया गया। अंड के ऊपर एक हर्मिका होती थी, जो छज्जे जैसा ढाँचा देवताओं के घर का प्रतीक था। हर्मिका से एक मस्तूल निकलता था जिसे यष्टि कहते थे, जिस पर अक्सर एक छत्री लगी होती थी। टीले के चारों ओर एक वेदिका होती थी जो पवित्र स्थल को सामान्य दुनिया से अलग करती थी। साँची और भरहुत के प्रारंभिक स्तूप बिना अलंकरण के हैं, सिवाय इसके कि उनमें पत्थर की वेदिकाएँ और तोरणद्वार हैं। उपासक पूर्वी तोरणद्वार से प्रवेश करके टीले को दाहिनी तरफ रखते हुए दक्षिणावर्त परिक्रमा करते थे, मानो वे आकाश में सूर्य के पथ का अनुकरण कर रहे हों। बाद में, स्तूप के टीले पर भी अलंकरण और नक्काशी की जाने लगी। अमरावती और पेशावर के स्तूपों में ताख और मूर्तियाँ उत्कीर्ण करने की कला के उदाहरण मिलते हैं।

हिंदू धर्म का उदय (पौराणिक हिंदू धर्म)

मुक्तिदाता की कल्पना केवल बौद्ध धर्म तक सीमित नहीं थी। इसी तरह के विश्वास उन परंपराओं में भी विकसित हो रहे थे जिन्हें आज हिंदू धर्म के नाम से जाना जाता है। इसमें वैष्णव (विष्णु को महत्वपूर्ण मानने वाले) और शैव (शिव को परमेश्वर मानने वाले) परंपराएँ शामिल हैं। इनके अंतर्गत एक विशेष देवता की पूजा को महत्व दिया जाता था। इस प्रकार की आराधना में उपासना और ईश्वर के बीच का रिश्ता प्रेम और समर्पण का माना जाता था, जिसे भक्ति कहते हैं। वैष्णववाद में कई अवतारों (जैसे विष्णु का वराह अवतार) के इर्द-गिर्द पूजा पद्धतियाँ विकसित हुईं। माना जाता था कि जब दुनिया में अव्यवस्था और नाश की स्थिति आती थी, तब विश्व की रक्षा के लिए भगवान अलग-अलग रूपों में अवतार लेते थे। अलग-अलग अवतार देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में लोकप्रिय थे, और इन स्थानीय देवताओं को विष्णु का रूप मान लेना एक महत्वपूर्ण तरीका था एकीकृत धार्मिक परंपरा बनाने का। मूर्तियों के रूप में कई अवतारों को दिखाया गया है। शिव को उनके प्रतीक लिंग के रूप में या मनुष्य के रूप में भी दिखाया गया है। ये सारे चित्रण देवताओं से जुड़ी मिश्रित अवधारणाओं पर आधारित थे।

मंदिरों का बनाया जाना

जिस समय साँची जैसी जगहों पर स्तूप विकसित रूप में आ गए थे, उसी समय देवी-देवताओं की मूर्तियों को रखने के लिए सबसे पहले मंदिर भी बनाए गए। शुरू के मंदिर एक चौकोर कमरे के रूप में थे जिन्हें गर्भ गृह कहा जाता था। इनमें एक दरवाजा होता था जिससे उपासक पूजा करने के लिए भीतर प्रवेश कर सकता था। धीरे-धीरे गर्भ गृह के ऊपर एक ऊँचा ढाँचा बनाया जाने लगा जिसे शिखर कहा गया। यह परंपरा अलग-अलग चरणों में विकसित होती रही। इसका सबसे विकसित रूप आठवीं सदी के कैलाशनाथ मंदिर (एलोरा) में दिखता है, जिसे पूरी पहाड़ी काटकर मंदिर का रूप दे दिया गया था।

स्तूपों की 'खोज'

अमरावती और साँची का अपना इतिहास है। 1796 में, एक स्थानीय राजा को अमरावती के स्तूप के अवशेष मिले, जिन्होंने इसके पत्थरों का उपयोग मंदिर बनाने के लिए किया। कुछ वर्षों बाद, कॉलिन मैकेंजी नामक एक अंग्रेज अधिकारी ने भी अमरावती में मूर्तियाँ पाईं और उनका चित्रांकन किया, लेकिन उनकी रिपोर्टें कभी छपी नहीं। पुरातत्ववेत्ता एच.एच. कोल उन मुट्ठी भर लोगों में से थे जो अलग सोचते थे। उन्होंने प्राचीन कलाकृतियों की लूट को "आत्मघाती और असमर्थनीय नीति" बताया। वे मानते थे कि संग्रहालयों में मूर्तियों की प्लास्टर प्रतिकृतियाँ रखी जानी चाहिए जबकि असली कृतियाँ खोज की जगह पर ही रखी जानी चाहिए। दुर्भाग्य से, कोल अधिकारियों को अमरावती पर इस बात के लिए राजी नहीं कर पाए, लेकिन खोज की जगह पर ही संरक्षण की बात को साँची के लिए मान लिया गया।

क्या हम सब कुछ देख-समझ सकते हैं?

हमें अतीत की समृद्ध दृश्य परंपराओं की झलक मिली है, जो स्थापत्य कला, मूर्तिकला और चित्रकला के रूप में सामने आई हैं। समय के साथ बहुत कुछ नष्ट हो गया है, लेकिन जो बचा और संरक्षित है, वह हमें इनके निर्माताओं की दृष्टि से परिचित कराता है। लेकिन क्या हम उनके संदेश को बिना दुविधा के समझ सकते हैं? क्या हम पूरी तरह समझ पाएंगे कि जो लोग इन मूर्तियों को देखते और पूजते थे, उनके लिए इनका क्या महत्व था?

शुरू के विद्वानों ने इन मूर्तियों को समझने के लिए उनकी तुलना प्राचीन यूनान की कला परंपरा से की। हालांकि वे प्रारंभिक भारतीय मूर्तिकला को यूनान की कला से निम्न स्तर का मानते थे, बुद्ध और बोधिसत्त्व की मूर्तियों की खोज से वे उत्साहित हुए, क्योंकि ये मूर्तियाँ यूनानी प्रतिमानों से प्रभावित थीं। ये मूर्तियाँ ज्यादातर तक्षशिला और पेशावर जैसे उत्तर-पश्चिम के नगरों में मिली थीं, जहाँ ईसा से दो सौ साल पहले भारतीय-यूनानी शासकों ने राज्य बनाए थे। क्योंकि ये विद्वान यूनानी परंपरा से परिचित थे, इसलिए उन्होंने इन्हें भारतीय मूर्तिकला का सर्वश्रेष्ठ नमूना माना। उन्होंने अपरिचित चीजों को समझने के लिए परिचित चीजों के आधार पर पैमाना तैयार किया।

हमें यह याद रखना चाहिए कि बहुत से रीति-रिवाज, धार्मिक विश्वास और व्यवहार इमारतों, मूर्तियों या चित्रकला द्वारा स्थायी दृश्य माध्यमों के रूप में नहीं दर्शाए गए। इनमें दिन-प्रतिदिन और विशिष्ट अवसरों के रीति-रिवाज शामिल हैं। संभव है कि कई लोगों और समुदायों को चिरस्थायी विवरण रखने की जरूरत महसूस न हुई हो और उनकी धार्मिक गतिविधियों तथा दार्शनिक मान्यताओं की सक्रिय परंपरा रही हो।

2. प्रमुख परिभाषाएँ, संकल्पनाएँ और शब्दों की स्पष्ट व्याख्या

यहाँ अध्याय में आए कुछ प्रमुख शब्दों और संकल्पनाओं की व्याख्या दी गई है:

स्तूप (Stupa): संस्कृत में इसका अर्थ 'टीला' होता है। बौद्ध धर्म से संबंधित एक अर्ध गोलाकार मिट्टी का टीला, जिसमें बुद्ध या बौद्ध धर्म से संबंधित अवशेष रखे जाते थे। यह बुद्ध और बौद्ध धर्म का प्रतीक बन गया।
अंड (Anda): स्तूप का अर्ध गोलाकार हिस्सा जो प्रारंभिक रूप से मिट्टी का टीला होता था।
हर्मिका (Harmika): अंड के ऊपर बनी छज्जे जैसी संरचना जो देवताओं के घर का प्रतीक मानी जाती थी।
यष्टि (Yashti): हर्मिका से निकलने वाला मस्तूल जिस पर अक्सर छत्री लगी होती थी।
छत्री (Chatri): यष्टि के ऊपर लगी छत्री।
वेदिका (Vedika): स्तूप के चारों ओर बनी पत्थर की रेलिंग जो पवित्र स्थल को सामान्य दुनिया से अलग करती थी।
तोरणद्वार (Toranadvara): स्तूप के चारों दिशाओं में बने अलंकृत प्रवेश द्वार।
गर्भ गृह (Garbhagriha): प्रारंभिक मंदिरों का चौकोर मुख्य कमरा जहाँ देवता की मूर्ति रखी जाती थी।
शिखर (Shikhara): गर्भ गृह के ऊपर बनाया जाने वाला ऊँचा ढाँचा।
चैत्य (Chaitya): कुछ पवित्र स्थलों पर बनी छोटी वेदी।
त्रिपिटक (Tripitaka): बौद्ध ग्रंथ, जैसे सुत्त पिटक।
संघ (Sangh): बौद्ध भिक्षुओं और भिक्षुणियों की संस्था जिसकी स्थापना बुद्ध ने की थी।
भिक्षु / भिक्षुनी (Bhikkhu / Bhikkhuni): बौद्ध संघ के पुरुष और महिला सदस्य जो सादा जीवन जीते थे और दान पर निर्भर रहते थे।
थेरी (Theri): ऐसी भिक्षुणियाँ जिन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया हो।
जातक (Jatakas): बौद्ध ग्रंथ जिनमें बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियाँ हैं।
बोधिसत्त्व (Bodhisattva): महायान बौद्ध धर्म की अवधारणा के अनुसार परम करुणावान जीव जो दूसरों की सहायता के लिए अपना पुण्य निर्वाण के लिए उपयोग नहीं करते।
महायान (Mahayana): बौद्ध धर्म का वह मत जो ईसा की पहली सदी के बाद विकसित हुआ, जिसमें मुक्तिदाता (बुद्ध, बोधिसत्त्व) की कल्पना उभरी और मूर्तियों की पूजा महत्वपूर्ण हुई।
वैष्णव (Vaishnava): हिंदू धर्म की परंपरा जिसमें विष्णु को सबसे महत्वपूर्ण देवता माना जाता है।
शैव (Shaiva): हिंदू धर्म की परंपरा जिसमें शिव को परमेश्वर माना जाता है।
भक्ति (Bhakti): उपासना और ईश्वर के बीच प्रेम और समर्पण का रिश्ता।
अवतार (Avatara): विष्णु के विभिन्न रूप जो वे दुनिया की रक्षा के लिए लेते हैं।
पुराण (Puranas): ब्राह्मणों द्वारा रचित ग्रंथ जिनमें देवी-देवताओं की कहानियाँ और कई किस्से हैं। इन्हें महिलाएं और शूद्र भी सुन सकते थे।

3. पुस्तक में दिए गए सभी उदाहरणों को चरण-दर-चरण हल करके समझाइए

पुस्तक में कई उदाहरण दिए गए हैं, जिन्हें चरणबद्ध तरीके से समझना रोचक होगा:

उदाहरण 1: उपनिषदों में जीवन का अर्थ

  1. चरण 1: उपनिषद (छठी सदी ईसा पूर्व) लोगों की गहरी जिज्ञासाओं को दर्शाते हैं।
  2. चरण 2: लोग जीवन के अर्थ को समझना चाहते थे।
  3. चरण 3: वे मृत्यु के बाद जीवन की संभावना के बारे में जानना चाहते थे।
  4. चरण 4: वे पुनर्जन्म के बारे में भी जानने को उत्सुक थे।
  5. निष्कर्ष: उपनिषदों की विचारधारा इन महत्वपूर्ण दार्शनिक प्रश्नों के इर्द-गिर्द घूमती थी।

उदाहरण 2: ऋग्वेद से अग्नि की प्रार्थना

  1. चरण 1: यह ऋग्वेद से लिया गया एक उदाहरण है, जिसमें अग्नि देवता का आह्वान किया गया है।
  2. चरण 2: प्रार्थना में अग्नि को 'शक्तिशाली देव' कहा गया है।
  3. चरण 3: उनसे आहुति देवताओं तक ले जाने का निवेदन किया गया है।
  4. चरण 4: अग्नि को 'बुद्धिमान' और 'सबके दाता' बताया गया है।
  5. चरण 5: पुरोहित के रूप में उनसे खूब सारे खाद्य पदार्थ देने की प्रार्थना की गई है।
  6. चरण 6: उनसे यज्ञ द्वारा प्रचुर धन लाने और प्रार्थना करने वाले के लिए सदा पुष्टिवर्धक अद्भुत गायें लाने का आह्वान किया गया है।
  7. चरण 7: उनसे एक पुत्र देने की प्रार्थना की गई है जो वंश को आगे बढ़ाए।
  8. निष्कर्ष: यह उदाहरण उस समय के यज्ञों और देवताओं से की जाने वाली प्रार्थनाओं की प्रकृति को दर्शाता है, जहाँ भौतिक समृद्धि और वंश वृद्धि पर जोर दिया जाता था।

उदाहरण 3: ब्राह्मणवाद और अन्य शिक्षक

  1. चरण 1: महावीर और बुद्ध जैसे शिक्षक वेदों के प्रभुत्व पर सवाल उठाते थे।
  2. चरण 2: उन्होंने यह माना कि जीवन के दुःखों से मुक्ति का प्रयास हर व्यक्ति स्वयं कर सकता है।
  3. चरण 3: यह विचार ब्राह्मणवाद से भिन्न था।
  4. चरण 4: ब्राह्मणवाद मानता था कि व्यक्ति का अस्तित्व उसकी जाति और लिंग से निर्धारित होता है।
  5. निष्कर्ष: यह तुलना दिखाती है कि कैसे नए विचारक उस समय की स्थापित मान्यताओं को चुनौती दे रहे थे और मुक्ति का एक वैकल्पिक, व्यक्ति-केंद्रित मार्ग सुझा रहे थे।

उदाहरण 4: छांदोग्य उपनिषद से आत्मा की प्रकृति

  1. चरण 1: यह लगभग छठी सदी ईसा पूर्व के संस्कृत छंदोग्य उपनिषद से लिया गया है।
  2. चरण 2: यह आत्मा की प्रकृति का वर्णन करता है।
  3. चरण 3: आत्मा को धन, जौ, सरसों या बाजरे के बीज की गिरी से भी छोटी बताया गया है।
  4. चरण 4: लेकिन साथ ही इसे पृथ्वी से भी विशाल, क्षितिज से भी विस्तृत, स्वर्ग से भी बड़ी और सभी लोकों से भी बड़ी बताया गया है।
  5. निष्कर्ष: यह श्लोक आत्मा की सूक्ष्मतम और विशालतम प्रकृति के विरोधाभास को दर्शाता है, जो उपनिषदों के गहन दार्शनिक विचारों का उदाहरण है।

उदाहरण 5: अजात्सत्तु और मखलि गोसाल के बीच बातचीत (सुत्त पिटक से)

  1. चरण 1: यह उदाहरण सुत्त पिटक से लिया गया है।
  2. चरण 2: इसमें मगध के राजा अजात्सत्तु और बुद्ध के बीच बातचीत का वर्णन है, जहाँ राजा एक अन्य शिक्षक मखलि गोसाल की बातें बताते हैं।
  3. चरण 3: मखलि गोसाल का कहना है कि बुद्धिमान या मूर्ख, कोई भी कर्म से मुक्ति या कर्म प्राप्ति के लिए कुछ नहीं कर सकता।
  4. चरण 4: उनका मानना है कि सुख और दुख मानो पूर्व निर्धारित मात्रा में मापे गए हैं और इसे संसार में बदला, बढ़ाया या घटाया नहीं जा सकता।
  5. चरण 5: वे इसकी तुलना धागे के गोले से करते हैं जो फेंकने पर अपनी पूरी लंबाई तक खुलता जाता है।
  6. निष्कर्ष: यह अंश नियतिवादी (Fatalist) विचार का उदाहरण प्रस्तुत करता है, जिसके अनुसार जीवन पूर्वनियोजित है और व्यक्तिगत प्रयास से इसे बदला नहीं जा सकता। अध्याय पूछता है कि क्या इन लोगों को नियतिवादी या भौतिकवादी कहना उचित है।

उदाहरण 6: पुन्ना दासी और ब्राह्मण के बीच बातचीत (थेरीगाथा से)

  1. चरण 1: यह उदाहरण थेरीगाथा से है, जो सुत्त पिटक का हिस्सा है और इसमें भिक्षुणियों द्वारा रचित छंद हैं।
  2. चरण 2: यह पुन्ना नाम की दासी के सामाजिक और आध्यात्मिक अनुभवों की अंतर्दृष्टि देता है।
  3. चरण 3: पुन्ना प्रतिदिन सुबह नदी से पानी लाने जाती थी और एक ब्राह्मण को स्नान करते देखती थी।
  4. चरण 4: एक दिन, उसने ब्राह्मण से पूछा कि ठंड में भी वह पानी में क्यों उतरते हैं, जबकि उनके अंग काँप रहे हैं।
  5. चरण 5: ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि वह बुराई को रोकने के लिए अच्छाई कर रहा है, और पानी में स्नान करके बूढ़ा या बच्चा, जिसने भी कुछ बुरा किया हो, मुक्त हो जाता है।
  6. चरण 6: पुन्ना ने इस विचार पर सवाल उठाया कि पानी में नहाने से बुराई से मुक्ति मिलती है।
  7. चरण 7: उसने तर्क दिया कि अगर ऐसा होता, तो सारे मेंढक, कछुए, पानी के साँप और मगरमच्छ स्वर्ग जाते।
  8. चरण 8: उसने ब्राह्मण से कहा कि इसके बजाय वे कर्म न करें जिनका डर उन्हें पानी की ओर खींचता है।
  9. चरण 9: उसने अंत में ब्राह्मण से रुक जाने और अपने शरीर को ठंड से बचाने के लिए कहा।
  10. निष्कर्ष: यह बातचीत बाहरी अनुष्ठानों (जैसे नदी स्नान) के बजाय कर्मों की शुद्धि पर बौद्ध जोर को दर्शाती है, और समाज के विभिन्न वर्गों (दासी और ब्राह्मण) के बीच दार्शनिक संवाद का उदाहरण है। यह महिलाओं के आध्यात्मिक अनुभवों को भी दर्शाता है।

उदाहरण 7: भिक्षुओं के भोजन संबंधी नियम

  1. चरण 1: यह उदाहरण दिखाता है कि बौद्ध संघ में व्यवहार के लिए नियम थे।
  2. चरण 2: यदि कोई भिक्षु किसी गृहस्थ के घर भोजन के लिए जाता है और उसे टिकिया या पके अनाज का भोजन दिया जाता है।
  3. चरण 3: तो वह इच्छा हो तो दो से तीन कटोरा भर ही स्वीकार कर सकता है।
  4. चरण 4: यदि वह इससे ज्यादा स्वीकार करता है, तो उसे अपना 'अपराध' स्वीकार करना होगा।
  5. चरण 5: दो या तीन कटोरे पकवान स्वीकार करने के बाद, उसे इन्हें अन्य भिक्षुओं के साथ बाँटना होगा।
  6. चरण 6: इसे 'सम्यक आचरण' कहा गया है।
  7. निष्कर्ष: ये नियम भिक्षुओं के लिए संयम, अल्प संतुष्टि और समुदाय में बाँटकर खाने के महत्व पर जोर देते हैं।

उदाहरण 8: विष्णु का वराह अवतार

  1. चरण 1: चित्र 4.23 विष्णु के वराह अवतार को दर्शाता है।
  2. चरण 2: इसमें उन्हें पृथ्वी देवी को बचाते हुए दिखाया गया है।
  3. चरण 3: यह मूर्ति लगभग छठी सदी की है और कर्नाटक के ऐहोल में मिली है।
  4. चरण 4: मूर्तियों के अंकन का अर्थ समझने के लिए, इतिहासकारों को इनसे जुड़ी कहानियों से परिचित होना पड़ता है, जो अक्सर पुराणों में मिलती हैं।
  5. निष्कर्ष: यह उदाहरण दिखाता है कि कैसे पौराणिक कहानियों को मूर्तिकला के माध्यम से दर्शाया जाता था और इन मूर्तियों की व्याख्या के लिए लिखित ग्रंथों का अध्ययन आवश्यक है।

उदाहरण 9: महाबलीपुरम की चट्टान पर उत्कीर्णन की व्याख्या

  1. चरण 1: चित्र 4.29 महाबलीपुरम की चट्टान पर उत्कीर्णन दिखाता है।
  2. चरण 2: इसकी पहचान को लेकर विद्वानों में मतभेद है।
  3. चरण 3: कुछ का मानना है कि यह गंगा नदी के स्वर्ग से अवतरण का चित्रण है। चट्टान की सतह के मध्य की प्राकृतिक दरार शायद नदी को दिखा रही है। यह कथा महाकाव्यों और पुराणों में वर्णित है।
  4. चरण 4: दूसरे विद्वान मानते हैं कि यहाँ महाभारत में वर्णित अर्जुन की तपस्या को दिखाया गया है, ताकि दिव्य अस्त्र प्राप्त किया जा सके। वे मूर्तियों के बीच एक साधु को केंद्र में रखे जाने को महत्व देते हैं।
  5. निष्कर्ष: यह उदाहरण दिखाता है कि एक ही कलाकृति की व्याख्या को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण हो सकते हैं, और व्याख्या अक्सर उपलब्ध लिखित साक्ष्यों (महाकाव्यों, पुराणों) और कलाकृति में मौजूद प्रतीकों पर निर्भर करती है।

4. अध्याय के अभ्यास प्रश्नों (Exercise Questions) के विस्तृत उत्तर

अध्याय के अंत में दिए गए अभ्यास प्रश्न और उनके विस्तृत उत्तर यहाँ दिए गए हैं:

प्रश्न 1: क्या उपनिषदों के दार्शनिकों के विचार नियतिवादियों और भौतिकवादियों से भिन्न थे? अपने जवाब के पक्ष में तर्क दीजिये।

उत्तर:

  • हाँ, उपनिषदों के दार्शनिकों के विचार नियतिवादियों और भौतिकवादियों से भिन्न थे।
  • उपनिषद जीवन का अर्थ, मृत्यु के बाद जीवन की संभावना और पुनर्जन्म के बारे में जानने पर केंद्रित थे। वे आत्मा की प्रकृति जैसे विषयों पर गहन चिंतन करते थे।
  • इसके विपरीत, नियतिवादी शिक्षक (जैसे मखलि गोसाल) मानते थे कि सुख और दुख पूर्वनियोजित हैं और व्यक्तिगत प्रयास से इसे बदला नहीं जा सकता। उनका दर्शन बताता है कि व्यक्ति के कर्म का परिणाम पूर्वनिर्धारित मार्ग से ही आएगा।
  • भौतिकवादियों का दृष्टिकोण अध्याय में सीधे तौर पर नहीं बताया गया है, लेकिन आमतौर पर यह माना जाता है कि वे भौतिक दुनिया और इंद्रिय अनुभवों पर जोर देते हैं, आत्मा, पुनर्जन्म या आध्यात्मिक मुक्ति जैसे विचारों को स्वीकार नहीं करते।
  • चूँकि उपनिषद आत्मा (भले ही वह सूक्ष्म हो या विशाल), जीवन के बाद की संभावना और पुनर्जन्म पर चर्चा करते थे, वे नियतिवादी (जो व्यक्तिगत प्रयास को नकारते थे) और भौतिकवादी विचारों से अलग थे, जो इन आध्यात्मिक और आत्मिक अवधारणाओं पर जोर नहीं देते।
प्रश्न 2: जैन धर्म की महत्वपूर्ण शिक्षाओं को संक्षेप में लिखिए।

उत्तर:

  • जैन धर्म की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा यह है कि संपूर्ण विश्व प्राणवान है।
  • यह माना जाता है कि पत्थर, चट्टान और जल में भी जीवन होता है।
  • जीवों के प्रति अहिंसा जैन दर्शन का केंद्र बिंदु है। इसमें मनुष्यों, जानवरों, पेड़-पौधों और कीड़े-मकोड़ों को न मारना शामिल है। जैन अहिंसा ने भारतीय चिंतन परंपरा को गहराई से प्रभावित किया है।
  • जैन मान्यता के अनुसार, जन्म और पुनर्जन्म का चक्र कर्म द्वारा निर्धारित होता है।
  • कर्म के चक्र से मुक्ति के लिए त्याग और तपस्या की जरूरत होती है।
  • मुक्ति संसार के त्याग से ही संभव हो पाती है।
  • मुक्ति प्राप्त करने के लिए विहारों में निवास करना एक अनिवार्य नियम है।
  • जैन साधु और साध्वी पाँच व्रत करते हैं: हत्या न करना, चोरी नहीं करना, झूठ न बोलना, ब्रह्मचर्य, और धन संग्रह न करना।
प्रश्न 3: साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका की चर्चा कीजिए।

उत्तर:

  • भोपाल के शासकों, शाहजहाँ बेगम और उनकी उत्तराधिकारी सुलतानों जहाँ बेगम, ने साँची के प्राचीन स्थल के रखरखाव के लिए उदारतापूर्वक धन का अनुदान दिया।
  • सुलतानों जहाँ बेगम ने साँची पर जॉन मार्शल द्वारा लिखे गए महत्वपूर्ण ग्रंथों के प्रकाशन में भी योगदान दिया और उनके ग्रंथ उन्हें ही समर्पित थे।
  • सुलतानों जहाँ बेगम ने साँची में एक संग्रहालय और एक अतिथि गृह बनाने के लिए भी अनुदान दिया, जहाँ जॉन मार्शल ने अपनी पुस्तकें लिखीं।
  • बेगमों के विवेकपूर्ण निर्णयों और संरक्षण प्रयासों के कारण ही साँची का स्तूप समूह आज भी बचा हुआ है।
  • उनका यह कार्य विशेष रूप से महत्वपूर्ण था क्योंकि उस समय अन्य प्राचीन स्थलों को नष्ट किया जा रहा था (जैसे अमरावती के अवशेष), या उनके अवशेषों को यूरोपीय संग्रहालयों में ले जाया जा रहा था।
  • इस प्रकार, भोपाल की बेगमों ने साँची को विनाश से बचाने और उसके महत्व को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सफल संरक्षण का उदाहरण बना।
प्रश्न 4: निम्नलिखित संक्षिप्त अभिलेख को पढि़ए और जवाब दीजिये: महाराजा हुविष्क (एक कुषाण शासक) के तैंतीसवें साल में गरमी मौसम के पहले महीने के आठवें दिन त्रिपिटक जानने वाले भिक्षु बल की शिष्या, त्रिपिटक जानने वाली बुद्धमिता के बहन की बेटी भिक्षुनी धनवती ने अपने माता-पिता के साथ मधुवनक में बोधिसत्त्व की मूर्ति स्थापित की।

उत्तर:

  • यह अभिलेख किसने बनवाया? यह अभिलेख भिक्षुनी धनवती ने बनवाया।
  • उन्होंने बोधिसत्त्व की मूर्ति क्यों स्थापित की? अभिलेख में सीधे तौर पर कारण नहीं बताया गया है कि मूर्ति क्यों स्थापित की गई, लेकिन यह उस समय की धार्मिक प्रथाओं का हिस्सा था। महायान बौद्ध धर्म के विकास के साथ बुद्ध और बोधिसत्त्व की मूर्तियों की पूजा महत्वपूर्ण हो गई थी। मूर्ति स्थापित करना पुण्य कमाने और शायद परिवार के कल्याण के लिए किया गया हो। अभिलेख बताता है कि यह 'अपने माता-पिता के साथ' किया गया कार्य था, जो पारिवारिक भक्ति या कल्याण की इच्छा को इंगित कर सकता है।
  • यह अभिलेख बौद्ध धर्म के बारे में क्या बताता है?
    • यह बताता है कि महिलाओं की बौद्ध संघ में उपस्थिति और भूमिका थी, क्योंकि भिक्षुनी धनवती एक मूर्ति स्थापित कर रही हैं।
    • यह बताता है कि बौद्ध धर्म में मूर्ति पूजा प्रचलन में आ गई थी, खासकर बोधिसत्त्व की मूर्तियाँ स्थापित की जा रही थीं।
    • यह दिखाता है कि उस समय के लोग बौद्ध ग्रंथों (त्रिपिटक) का अध्ययन करते थे, जैसा कि भिक्षु बल और बुद्धमिता के संदर्भ से स्पष्ट है।
    • अभिलेख में 'महाराजा हुविष्क के तैंतीसवें साल' का उल्लेख यह बताता है कि कुषाण शासक बौद्ध धर्म से जुड़े हुए थे या कम से कम उस समय के धार्मिक कार्यों को अभिलेखों में दर्ज किया जाता था।
    • यह दिखाता है कि धार्मिक दान या कार्य व्यक्तिगत प्रयासों और परिवार (माता-पिता) के साथ मिलकर किए जाते थे।
    • 'मधुवनक' स्थल का नाम इंगित करता है कि बौद्ध धर्म भौगोलिक रूप से फैल रहा था और नए स्थानों पर मूर्तियाँ स्थापित की जा रही थीं।

5. अध्याय की अवधारणाओं पर आधारित नये अभ्यास प्रश्न

यहाँ अध्याय की अवधारणाओं पर आधारित कुछ नए अभ्यास प्रश्न दिए गए हैं:

  1. साँची के स्तूप की संरचना के मुख्य हिस्सों (अंड, हर्मिका, यष्टि, छत्री, वेदिका, तोरणद्वार) का वर्णन कीजिए और बताइये कि उनका क्या प्रतीकात्मक महत्व हो सकता है।
  2. प्रारंभिक बौद्ध धर्म और महायान बौद्ध धर्म की प्रमुख विशेषताओं की तुलना कीजिए। मुक्ति की अवधारणा में क्या बदलाव आया था?
  3. जैन धर्म में 'अहिंसा' के सिद्धांत का महत्व समझाएं। यह सिद्धांत भारतीय चिंतन परंपरा को कैसे प्रभावित करता है?
  4. इतिहासकार प्राचीन कलाकृतियों (मूर्तियों, उत्कीर्णनों) की व्याख्या करने के लिए किन तरीकों का उपयोग करते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  5. स्तूपों और प्रारंभिक मंदिरों के निर्माण में समाज के विभिन्न वर्गों (राजा, श्रेणी, भिक्षु, भिक्षुनी, आम लोग) की क्या भूमिका थी? अभिलेखों से हमें इस बारे में क्या पता चलता है?
  6. थेरीगाथा से पुन्ना दासी और ब्राह्मण के संवाद के माध्यम से उस समय की सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं पर प्रकाश डालिए।
  7. वैष्णव और शैव परंपराओं में 'भक्ति' की अवधारणा कैसे विकसित हुई? अवतारवाद का महत्व समझाएं।

6. अध्याय के अंत में बोर्ड परीक्षा से पहले पुनरावृत्ति के लिए संक्षिप्त सारांश

यह अध्याय प्राचीन भारत में धार्मिक विचारों, विश्वासों और कलाकृतियों के विकास को देखता है, जिसमें साँची का स्तूप एक प्रमुख उदाहरण है। इतिहासकार इन परंपराओं को समझने के लिए ग्रंथों (बौद्ध, जैन, ब्राह्मण), इमारतों और अभिलेखों का अध्ययन करते हैं। ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दी एक महत्वपूर्ण काल था जब नए विचारक (जैसे बुद्ध और महावीर) उभरे और जीवन के अर्थ, पुनर्जन्म आदि पर सवाल उठाए। जैन धर्म का मुख्य सिद्धांत अहिंसा है और यह कर्म से मुक्ति के लिए त्याग व तपस्या पर जोर देता है। बौद्ध धर्म का मानना है कि विश्व अनित्य और आत्माविहीन है; दुख जीवन का हिस्सा है और मध्यम मार्ग से मुक्ति मिल सकती है। बुद्ध ने व्यक्तिगत प्रयास और सम्यक कर्म पर जोर दिया और निर्वाण (अहम् और इच्छा का अंत) का मार्ग दिखाया। बुद्ध ने संघ की स्थापना की जिसमें पुरुष और बाद में महिलाएं (भिक्षुणी, थेरी) शामिल हुईं। स्तूप बौद्ध धर्म के प्रतीक बन गए, जिनमें बुद्ध के अवशेष रखे जाते थे। इनका निर्माण राजाओं, श्रेणियों और आम लोगों के दान से हुआ। स्तूपों की संरचना में अंड, हर्मिका, यष्टि, छत्री, वेदिका और तोरणद्वार शामिल थे। ईसा की पहली सदी के बाद, महायान बौद्ध धर्म में बुद्ध को मुक्तिदाता के रूप में देखा गया और बोधिसत्त्व की अवधारणा उभरी; मूर्ति पूजा महत्वपूर्ण हो गई। इसी दौरान, हिंदू धर्म में वैष्णव और शैव परंपराओं में भक्ति और अवतारवाद का विकास हुआ, और देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनने लगीं। मूर्तियों को रखने के लिए मंदिर बनाए गए जिनमें गर्भ गृह और शिखर जैसी संरचनाएं थीं। अमरावती जैसे स्थलों की 'खोज' से हमें पता चलता है कि कैसे कलाकृतियों को स्थानांतरित या संरक्षित किया गया (जैसे साँची का संरक्षण भोपाल की बेगमों द्वारा)। प्राचीन कलाकृतियों की व्याख्या करना चुनौतीपूर्ण है और इसके लिए लिखित ग्रंथों तथा प्रतीकों को समझना आवश्यक है। हमें याद रखना चाहिए कि सभी धार्मिक प्रथाएं दृश्य माध्यमों में दर्ज नहीं होतीं।

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यह नोट्स आपको अध्याय को अच्छी तरह से समझने में मदद करेंगे। मन लगाकर पढ़िए और अपने इतिहास की इस अद्भुत यात्रा का आनंद लीजिए! शुभकामनाएँ!

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