कक्षा 12 इतिहास अध्याय 2 : राजा, किसान और नगर: सम्पूर्ण नोट्स

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राजा, किसान और नगर: सम्पूर्ण नोट्स | अध्याय 2 इतिहास | बिहार बोर्ड

अध्याय २: राजा, किसान और नगर

प्रिय छात्रों, यह ब्लॉग पोस्ट अध्याय "राजा, किसान और नगर" के महत्वपूर्ण बिंदुओं, परिभाषाओं और अवधारणाओं की सरल हिंदी में विस्तृत व्याख्या प्रदान करता है। यहाँ दिए गए "हल किए गए उदाहरण" अध्याय में वर्णित चित्रों और स्रोतों की व्याख्याएँ हैं, जो अवधारणाओं को समझने में सहायक होंगी।

परिचय

इस अध्याय में हम हड़प्पा सभ्यता के पंद्रह सौ साल बाद उपमहाद्वीप में हुए विभिन्न विकासों के बारे में जानेंगे। यह वह दौर था जब सिंधु नदी और उसकी उपनदियों के किनारे ऋग्वेद का लेखन हुआ। उपमहाद्वीप के कई हिस्सों में कृषक बस्तियाँ अस्तित्व में आईं, जैसे उत्तर भारत, दक्कन पठार क्षेत्र, और कर्नाटक। साथ ही, दक्कन और दक्षिण भारत में चरवाहा बस्तियों के भी प्रमाण मिलते हैं। ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी के दौरान, मध्य और दक्षिण भारत में शवों के अंतिम संस्कार के नए तरीके सामने आए, जिनमें महापाषाण (megalith) कहलाने वाले पत्थर के बड़े ढाँचे मिले हैं। कई जगहों पर शवों के साथ लोहे से बने उपकरण और हथियार भी दफनाए गए थे।

ईसा पूर्व छठी शताब्दी से उपमहाद्वीप में नए परिवर्तनों के प्रमाण मिलते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है आरंभिक राज्यों, साम्राज्यों और रजवाड़ों का विकास। इन राजनीतिक प्रक्रियाओं के पीछे कृषि उपज को संगठित करने जैसे अन्य परिवर्तन भी थे। इसी समय लगभग पूरे उपमहाद्वीप में नए नगरों का उदय हुआ। इतिहासकार इन विकासों को समझने के लिए अभिलेखों, ग्रंथों, सिक्कों और चित्रों जैसे विभिन्न स्रोतों का अध्ययन करते हैं। यह एक जटिल प्रक्रिया है और इन स्रोतों से विकास की पूरी कहानी नहीं मिल पाती है।

महत्वपूर्ण विषय और उनकी व्याख्या

1. अभिलेख और उनका अध्ययन (Epigraphy)

  • अभिलेखों के अध्ययन को अभिलेखशास्त्र कहा जाता है।
  • भारतीय अभिलेख विज्ञान में एक महत्वपूर्ण प्रगति 1830 के दशक में हुई जब ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का अर्थ निकाला।
  • इन लिपियों का उपयोग सबसे आरंभिक अभिलेखों और सिक्कों में किया गया था।
  • प्रिंसेप को पता चला कि अधिकांश अभिलेखों और सिक्कों पर पियदस्सी (मनोहर मुखाकृति वाले राजा) का नाम लिखा है। कुछ अभिलेखों पर राजा का नाम असोक भी मिलता है, जिसके साथ ये उपाधियाँ भी लिखी हैं।

2. आरंभिक राज्य: सोलह महाजनपद

भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ईसा पूर्व को एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल माना जाता है। इस काल को अक्सर आरंभिक राज्यों, नगरों, लोहे के बढ़ते उपयोग और सिक्कों के विकास से जोड़ा जाता है। इसी काल में बौद्ध तथा जैन सहित विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ।

  • बौद्ध और जैन धर्म के आरंभिक ग्रंथों में सोलह राज्यों का उल्लेख मिलता है जिन्हें महाजनपद कहा गया है।
  • इन ग्रंथों में महाजनपदों के नामों की सूची एक समान नहीं है, लेकिन कुछ नाम जैसे वज्जि, मगध, कोशल, कुरु, पांचाल, गांधार और अवंति अक्सर मिलते हैं। यह इंगित करता है कि ये सबसे महत्वपूर्ण महाजनपद रहे होंगे।

जनपद: शब्द का अर्थ है एक ऐसा भूखंड जहाँ कोई जन (लोग, कुल या जनजाति) अपना पाँव रखता है या बस जाता है। इस शब्द का प्रयोग प्राकृत और संस्कृत दोनों में मिलता है।

  • प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी जिसे प्रायः किलेबंदी से घेरा जाता था। किलेबंदी की गई राजधानियों के रखरखाव और स्थायी सेनाओं तथा नौकरशाही के लिए बड़े आर्थिक स्रोत की आवश्यकता होती थी।
  • लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व से, संस्कृत में ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्र नामक ग्रंथों की रचना शुरू की। इनमें शासक और अन्य लोगों के लिए नियम निर्धारित किए गए थे। यह अपेक्षा की जाती थी कि शासक क्षत्रिय वर्ण से होंगे।
  • शासकों का काम किसानों, व्यापारियों और शिल्पकारों से कर और भेंट वसूलना माना जाता था। पड़ोसी राज्यों पर आक्रमण करके धन इकट्ठा करना भी संपत्ति जुटाने का एक वैध तरीका माना जाता था।
  • धीरे-धीरे कुछ राज्यों ने अपनी स्थायी सेनाएँ और नौकरशाही तंत्र विकसित कर लिए, जबकि अन्य सहायक-सेना पर निर्भर थे जो प्रायः कृषक वर्ग से नियुक्त किए जाते थे।

3. मगध: प्रथम महाजनपद

  • छठी से चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में मगध (आधुनिक बिहार) सबसे शक्तिशाली महाजनपद बन गया।
  • आधुनिक इतिहासकार इसके कई कारण बताते हैं:
    • मगध क्षेत्र में खेती की उपज खास तौर पर अच्छी होती थी।
    • लोहे की खदानें (आधुनिक झारखंड में) आसानी से उपलब्ध थीं, जिससे उपकरण और हथियार बनाना सरल होता था।
    • जंगली क्षेत्रों में हाथी उपलब्ध थे जो सेना का एक महत्वपूर्ण अंग थे।
    • गंगा और उसकी उपनदियों से आवागमन सस्ता और सुलभ होता था।
  • हालांकि, आरंभिक जैन और बौद्ध लेखकों ने मगध की महत्ता का कारण विभिन्न शासकों की नीतियों को बताया है। उनके अनुसार, बिंबिसार, अजातशत्रु और महापद्मनंद जैसे शासक अत्यंत महत्वाकांक्षी थे, और उनके मंत्री उनकी नीतियाँ लागू करते थे।
  • प्रारंभ में, राजगाह (आधुनिक बिहार का राजगीर) मगध की राजधानी थी। इस शब्द का अर्थ 'राजाओं का घर' है। पहाड़ियों के बीच बसा राजगाह एक किलेबंद शहर था।
  • बाद में, चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र (अब पटना) को राजधानी बनाया गया। इसकी गंगा के रास्ते आवागमन के मार्ग पर महत्वपूर्ण अवस्थिति थी।

4. एक आरंभिक साम्राज्य: मौर्य साम्राज्य

  • मगध के विकास के साथ-साथ मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ।
  • मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य (लगभग 321 ईसा पूर्व) का शासन पश्चिमोत्तर में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था।
  • उनके पौत्र असोक को आरंभिक भारत का सबसे प्रसिद्ध शासक माना जा सकता है। असोक ने कलिंग (आधुनिक ओडिशा) पर विजय प्राप्त की।

मौर्य वंश के बारे में जानकारी प्राप्त करना

  • मौर्य साम्राज्य के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए इतिहासकारों ने विभिन्न प्रकार के स्रोतों का उपयोग किया है। इनमें पुरातात्विक प्रमाण (विशेषतः मूर्तिकला) शामिल हैं।
  • समकालीन रचनाएँ भी मूल्यवान रही हैं, जैसे चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में आए यूनानी राजदूत मेगस्थनीज द्वारा लिखा गया विवरण (आज इसके कुछ अंश ही उपलब्ध हैं)।
  • एक और स्रोत जिसका उपयोग प्रायः किया जाता है, वह है अर्थशास्त्र। संभवतः इसके कुछ भागों की रचना कौटिल्य या चाणक्य ने की थी, जो चंद्रगुप्त के मंत्री थे। अर्थशास्त्र में सैनिक और प्रशासनिक संगठन के बारे में विस्तृत विवरण मिलते हैं।
  • मौर्य शासकों का उल्लेख परवर्ती जैन, बौद्ध और पौराणिक ग्रंथों तथा संस्कृत वाङ्मय में भी मिलता है।
  • हालांकि ये साक्ष्य उपयोगी हैं, लेकिन पत्थरों और स्तंभों पर मिले असोक के अभिलेख प्रायः सबसे मूल्यवान स्रोत माने जाते हैं।

असोक और धम्म

  • असोक ने अपने साम्राज्य को अखंड बनाए रखने का प्रयास किया। उन्होंने ऐसा धम्म के प्रचार द्वारा भी किया।
  • धम्म के सिद्धांत बहुत ही साधारण और सार्वभौमिक थे। असोक के अनुसार, धम्म के माध्यम से लोगों का जीवन इस संसार में और इसके बाद के संसार में अच्छा रहेगा।
  • धम्म के प्रचार के लिए धम्म महामात्त नाम से विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की गई।

मौर्य साम्राज्य का महत्व

  • उन्नीसवीं सदी में जब इतिहासकारों ने भारत के आरंभिक इतिहास की रचना शुरू की, तो मौर्य साम्राज्य को इतिहास का एक प्रमुख काल माना गया।
  • उस समय भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एक औपनिवेशिक देश था। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के आरंभिक भारतीय इतिहासकारों को प्राचीन भारत में एक ऐसे साम्राज्य की संभावना चुनौतीपूर्ण तथा उत्साहवर्धक लगी।
  • मौर्यकालीन पुरात्व (जैसे प्रस्तर मूर्तियाँ) एक अद्भुत कला के प्रमाण थे जो साम्राज्य की पहचान माने जाते हैं।
  • असोक के अभिलेखों के संदेश अन्य शासकों के अभिलेखों से भिन्न लगे। इतिहासकारों को लगा कि असोक अन्य राजाओं की अपेक्षा एक बहुत शक्तिशाली और परिश्रमी शासक थे। साथ ही, वे बाद के उन राजाओं की अपेक्षा विनीत थे जो अपने नाम के साथ बड़ी-बड़ी उपाधियाँ जोड़ते थे। इसलिए बीसवीं सदी के राष्ट्रवादी नेताओं ने भी असोक को प्रेरणा का स्रोत माना।

5. राजधर्म के नवीन सिद्धांत

  • उपमहाद्वीप के दक्कन और उससे दक्षिण के क्षेत्रों, जिन्हें तमिलकम (अर्थात् तमिलनाडु एवं आंध्र प्रदेश और केरल के कुछ हिस्से) कहा जाता था, में चोल, चेर और पांड्य जैसी सरदारियों का उदय हुआ। ये राज्य बहुत समृद्ध और स्थायी सिद्ध हुए।

सरदार: एक शक्तिशाली व्यक्ति होता है जिसका पद वंशानुगत हो भी सकता है और नहीं भी। उसके समर्थक उसके खानदान के लोग होते हैं। सरदार के कार्यों में विशेष अनुष्ठान का संचालन, युद्ध के समय नेतृत्व और विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता शामिल है। वह अपने अधीन लोगों से भेंट लेता है (जबकि राजा कर वसूलते हैं) और अपने समर्थकों में उस भेंट का वितरण करता है। सरदारी में सामान्यतया कोई स्थायी सेना या अधिकारी नहीं होते हैं।

  • हमें इन राज्यों के बारे में विभिन्न स्रोतों से जानकारी मिलती है, जैसे प्राचीन तमिल संगम ग्रंथों में ऐसी कविताएँ हैं जो सरदारों का विवरण देती हैं।
  • कई सरदार और राजा लंबी दूरी के व्यापार से राजस्व जुटाते थे। इनमें मध्य और पश्चिम भारत पर शासन करने वाले सातवाहन (लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी ईस्वी तक) और पश्चिमोत्तर तथा पश्चिम में शासन करने वाले मध्य एशियाई मूल के शक शासक शामिल थे।
  • उत्तर प्रदेश में मथुरा के पास माट के एक देवस्थान पर कुषाण शासकों की विशालकाय मूर्तियाँ लगाई गई थीं; अफगानिस्तान के एक देवस्थान पर भी इसी प्रकार की मूर्तियाँ मिली हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इन मूर्तियों के जरिए कुषाण स्वयं को देवतुल्य प्रस्तुत करना चाहते थे। कई कुषाण शासकों ने अपने नाम के आगे "देवपुत्र" की उपाधि भी लगाई थी। संभवतः वे उन चीनी शासकों से प्रेरित हुए होंगे जो स्वयं को 'स्वर्गपुत्र' कहते थे।
  • चौथी शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य सहित कई बड़े साम्राज्यों के साक्ष्य मिलते हैं। इनमें से कई साम्राज्य सामंतों पर निर्भर थे। सामंत अपना निर्वाह स्थानीय संसाधनों (भूमि पर नियंत्रण सहित) से करते थे, शासकों का आदर करते थे और उनकी सैनिक सहायता भी करते थे। जो सामंत शक्तिशाली होते थे वे राजा बन जाते थे, और जो राजा दुर्बल होते थे, वे बड़े शासकों के अधीन हो जाते थे।

6. कृषि में परिवर्तन और ग्रामीण समाज

  • राजा और प्रजा, विशेषकर ग्रामीण प्रजा, के बीच संबंध तनावपूर्ण रहते थे, क्योंकि शासक अपने राजकोष को भरने के लिए बड़े कर की मांग करते थे। जातक कथाओं से पता चलता है कि संकट से बचने का एक उपाय जंगल की ओर भाग जाना था।
  • करों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए किसानों ने उपज बढ़ाने के तरीके खोजे।

उपज बढ़ाने के तरीके:

  • हल का प्रचलन: यह छठी शताब्दी ईसा पूर्व से गंगा और कावेरी की घाटियों के उर्वर कछारी क्षेत्र में फैल गया था। भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हलों से जुताई होने लगी।
  • धान की रोपाई: गंगा की घाटी में धान की रोपाई से उपज में भारी वृद्धि हुई। इसमें धान के बीज अंकुरित करके पानी से भरे खेतों में पौधों की रोपाई की जाती है।
  • सिंचाई: सिंचाई के लिए कुओं, तालाबों और नहरों का उपयोग किया जाता था। गुजरात की सुदर्शन झील एक कृत्रिम जलाशय थी, जिसका ज्ञान हमें लगभग दूसरी शताब्दी ईस्वी के एक संस्कृत अभिलेख से होता है। यह अभिलेख शक शासक रुद्रदमन की उपलब्धियों का उल्लेख करता है।

ग्रामीण समाज में विभिन्नताएँ:

  • खेती की नई तकनीकों से उपज तो बढ़ी, लेकिन इसके लाभ समान नहीं थे। खेती से जुड़े लोगों में भेदभाव बढ़ता जा रहा था।
  • विशेषकर बौद्ध कथाओं में भूमिहीन खेतिहर श्रमिकों, छोटे किसानों और बड़े जमींदारों का उल्लेख मिलता है।
  • पाली भाषा में गहपति का प्रयोग छोटे किसानों और जमींदारों के लिए किया जाता था।
  • बड़े जमींदार और ग्राम प्रधान शक्तिशाली माने जाते थे जो प्रायः किसानों पर नियंत्रण रखते थे। ग्राम प्रधान का पद प्रायः वंशानुगत होता था।
  • आरंभिक तमिल संगम साहित्य में भी गाँवों में रहने वाले विभिन्न वर्गों के लोगों का उल्लेख है, जैसे वेल्ललर (बड़े जमींदार), उलवर (हलवाहा) और अडि़मई (दास)।
  • वर्गों की यह विभिन्नता भूमि के स्वामित्व, श्रम और नई प्रौद्योगिकी के उपयोग पर आधारित हो सकती है। ऐसी परिस्थिति में भूमि का स्वामित्व महत्वपूर्ण हो गया जिसकी चर्चा प्रायः विधि ग्रंथों में की जाती थी।

भूदान (Land Grants):

  • भूमिदान के अभिलेख देश के कई हिस्सों में प्राप्त हुए हैं। दान में दी गई भूमि की माप में अंतर है (कहीं छोटे टुकड़े, कहीं बड़े क्षेत्र)। भूमिदान में दान प्राप्त करने वालों के अधिकारों में भी क्षेत्रीय परिवर्तन मिलते हैं।
  • इतिहासकारों में भूमिदान का प्रभाव एक गर्म वाद-विवाद का विषय है। कुछ इसे शासकों द्वारा कृषि को नए क्षेत्रों में प्रोत्साहित करने की रणनीति मानते हैं। अन्य कहते हैं कि भूमिदान से दुर्बल होते राजनीतिक प्रभुत्व का संकेत मिलता है, यानी राजा का शासन सामंतों पर दुर्बल होने लगा तो उन्होंने भूमिदान से अपने समर्थक जुटाए।
  • प्रभावती गुप्त: आरंभिक भारत के एक महत्वपूर्ण शासक चंद्रगुप्त द्वितीय (लगभग 375-415 ईस्वी) की पुत्री थी। उसका विवाह दक्कन पठार के वाकाटक परिवार में हुआ था। संस्कृत धर्मशास्त्रों के अनुसार महिलाओं को भूमि जैसी संपत्ति पर स्वतंत्र अधिकार नहीं था, लेकिन एक अभिलेख से पता चलता है कि प्रभावती भूमि की स्वामी थी और उसने दान भी किया था। यह संभवतः इसलिए था क्योंकि वह एक रानी थी और यह एक दुर्लभ उदाहरण रहा होगा। यह भी संभव है कि धर्मशास्त्रों को हर स्थान पर समान रूप से लागू नहीं किया जाता हो।
  • अभिलेखों से हमें ग्रामीण प्रजा का भी पता चलता है। इनमें ब्राह्मण, किसान और अन्य वर्ग शामिल थे जो शासकों या उनके प्रतिनिधियों को वस्तुएँ प्रदान करते थे। अभिलेख के अनुसार इन लोगों को गाँव के नए प्रधान की आज्ञाओं का पालन करना पड़ता था और संभवतः अपने भुगतान उसे ही देने पड़ते थे।
  • अग्रहार उस भूभाग को कहते थे जो ब्राह्मणों को दान किया जाता था। ब्राह्मणों से भूमिकर या अन्य प्रकार के कर वसूल नहीं किए जाते थे। ब्राह्मणों को स्वयं स्थानीय लोगों से कर वसूलने का अधिकार था।

7. नगर एवं व्यापार

  • छठी शताब्दी ईसा पूर्व से उपमहाद्वीप के विभिन्न क्षेत्रों में नए नगरों का विकास हुआ। इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थे।
  • प्रायः सभी नगर संचार मार्गों के किनारे बसे थे।
    • नदी मार्ग: पाटलिपुत्र जैसे कुछ नगर नदी मार्ग के किनारे बसे थे।
    • भू-मार्ग: उज्जैन जैसे अन्य नगर भू-मार्गों के किनारे थे।
    • समुद्री मार्ग: पुहार जैसे नगर समुद्र तट पर थे, जहाँ से समुद्री मार्ग प्रारंभ हुए।
  • मथुरा जैसे अनेक शहर व्यावसायिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियों के जीवंत केंद्र थे।

नगरीय जनसंख्या: संभ्रांत वर्ग और शिल्पकार

  • शासक वर्ग और राजा किलेबंद नगरों में रहते थे। इन स्थलों पर व्यापक खुदाई संभव नहीं है क्योंकि आज भी इन क्षेत्रों में लोग रहते हैं।
  • खुदाई से विभिन्न प्रकार के पुरावशेष मिले हैं। इनमें उत्कृष्ट श्रेणी के मिट्टी के कटोरे और थालियाँ (चमकीले लेप वाली) मिली हैं, जिन्हें उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र कहा जाता है। संभवतः इनका उपयोग अमीर लोग करते थे।
  • सोने, चाँदी, काँसे, ताँबे, हाथी दाँत, शीशे जैसे पदार्थों के बने गहने, उपकरण, हथियार, बर्तन, सीप और पक्की मिट्टी भी मिली हैं।
  • दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व आते-आते, कई नगरों में छोटे दानानुकात्मक अभिलेख प्राप्त होते हैं। इनमें दाता के नाम के साथ-साथ प्रायः उसके व्यवसाय का भी उल्लेख होता है।
  • इनमें शहरों में रहने वाले धोबी, बुनकर, लिपिक, बढ़ई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहकार, अधिकारी, धार्मिक गुरु, व्यापारी और राजाओं के बारे में विवरण लिखे होते हैं।
  • कभी-कभी उत्पादकों और व्यापारियों के संघों का भी उल्लेख मिलता है, जिन्हें श्रेणी कहा गया है। ये श्रेणियाँ संभवतः पहले कच्चे माल को खरीदती थीं, फिर उनसे सामान तैयार कर बाज़ार में बेच देती थीं।
  • शिल्पकारों ने नगरीय संभ्रांत लोगों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए लोहे के उपकरणों का प्रयोग किया होगा।

8. सिक्के और व्यापार

  • व्यापार के लिए सिक्कों के प्रचलन से विनिमय कुछ हद तक आसान हो गया था।
  • चाँदी और ताँबे के आहत सिक्के (punch-marked coins) छठी शताब्दी ईसा पूर्व में सबसे पहले ढाले गए और प्रयोग में आए। पूरे उपमहाद्वीप में खुदाई के दौरान इस प्रकार के सिक्के मिले हैं।

मुद्राशास्त्र: सिक्कों का अध्ययन है। इसके अंतर्गत उन पर पाए जाने वाले चित्र, लिपि आदि तथा उनकी धातुओं का विश्लेषण और जिन संदर्भों में ये सिक्के पाए गए हैं, उनका अध्ययन शामिल है।

  • आहत सिक्कों पर बने प्रतीकों को विशेष राजवंशों (जैसे मौर्य वंश) के प्रतीकों से मिलाकर पहचान करने की कोशिश की गई। पता चला कि इन सिक्कों को राजाओं ने जारी किया था। यह भी संभव है कि व्यापारियों, धनपतियों और नागरिकों ने भी कुछ सिक्के जारी किए हों।
  • शासकों की प्रतिमा और नाम के साथ सबसे पहले सिक्के हिंद-यूनानी शासकों ने जारी किए थे, जिन्होंने दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित किया था।
  • कुषाण शासकों ने भी सिक्के जारी किए, जिन पर राजा (जैसे कनिष्क) और देवताओं के चित्र बने होते थे।
  • सोने के सबसे भव्य सिक्के गुप्त शासकों ने जारी किए। इनके आरंभिक सिक्कों में प्रयुक्त सोना अति उत्तम था। इन सिक्कों से दूर देशों से व्यापार-विनिमय आसान हुआ, जिससे शासकों को भी लाभ होता था।
  • छठी शताब्दी ईस्वी से सोने के सिक्के मिलने कम हो गए। इतिहासकारों में इसे लेकर मतभेद है। कुछ इसे रोमन साम्राज्य के पतन के बाद दूरवर्ती व्यापार में कमी से जोड़ते हैं। अन्य कहते हैं कि इस काल में नए नगरों और व्यापार के नवीन तंत्रों का उदय होने लगा था, और सिक्के प्रचलन में थे इसलिए उनका संग्रह नहीं किया गया।
  • पेरिप्लस ऑफ एरीथ्रियन सी (लगभग पहली शताब्दी ईस्वी) जैसे यूनानी स्रोत उपमहाद्वीप के साथ होने वाले व्यापार का विवरण देते हैं। ये बताते हैं कि बाजारों वाले नगरों में भारी मात्रा में काली मिर्च और दालचीनी खरीदने के लिए जहाज भेजे जाते थे। यहाँ सिक्कों, पुखराज, सुरमा, मूँगा, कच्चे शीशे, ताँबे, टिन और सीसे का आयात होता था। काली मिर्च, उच्च कोटि के मोतियों, हाथी दाँत, रेशमी वस्त्र, पारदर्शी पत्थरों, हीरों, काले नग और कछुए की खोपड़ी का निर्यात होता था।

9. अभिलेखों का अर्थ कैसे निकाला जाता है?

  • सबसे प्राचीन अभिलेख प्राकृत में थे, जबकि कुछ विद्वानों ने शुरू में अनुमान लगाया कि वे संस्कृत में लिखे हैं।
  • जेम्स प्रिंसेप ने असोककालीन ब्राह्मी लिपि का अर्थ 1838 में निकाला।
  • पश्चिमोत्तर के अभिलेखों में प्रयुक्त खरोष्ठी लिपि को पढ़ने में हिंद-यूनानी राजाओं (लगभग दूसरी-पहली शताब्दी ईसा पूर्व) द्वारा बनवाए गए सिक्कों से मदद मिली। इन सिक्कों में राजाओं के नाम यूनानी और खरोष्ठी में लिखे गए थे।
  • यूनानी भाषा पढ़ने वाले यूरोपीय विद्वानों ने अक्षरों का मिलान किया। चूंकि प्रिंसेप ने खरोष्ठी में लिखे अभिलेखों की भाषा की पहचान प्राकृत के रूप में की थी, इसलिए लंबे अभिलेखों को पढ़ना सरल हो गया।

10. अभिलेख साक्ष्य की सीमाएँ

अभिलेखों से प्राप्त जानकारी की कुछ सीमाएँ हैं:

  • तकनीकी सीमाएँ: अक्षर हल्के ढंग से उत्कीर्ण हो सकते हैं जिन्हें पढ़ना मुश्किल होता है। अभिलेख नष्ट भी हो सकते हैं, जिससे अक्षर लुप्त हो जाते हैं।
  • शब्दों के अर्थ: शब्दों के वास्तविक अर्थ के बारे में पूरी जानकारी होना हमेशा सरल नहीं होता, क्योंकि कुछ अर्थ किसी विशेष स्थान या समय से संबंधित होते हैं। विद्वान अक्सर वैकल्पिक विधियों पर चर्चा करते रहते हैं।
  • उपलब्धता: हजारों अभिलेख प्राप्त हुए हैं, लेकिन सभी के अर्थ नहीं निकाले जा सके हैं या प्रकाशित किए गए हैं या उनके अनुवाद किए गए हैं। अनेक अभिलेख समय के साथ सुरक्षित नहीं बचे हैं। इसलिए जो अभिलेख अभी उपलब्ध हैं, वह संभवतः कुल अभिलेखों का अंश मात्र हैं।
  • विषय वस्तु: यह जरूरी नहीं है कि जिसे हम आज राजनीतिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं, उन्हें अभिलेखों में अंकित किया ही गया हो। उदाहरण के तौर पर, खेती की दैनिक प्रक्रियाओं और रोजमर्रा की जिंदगी के सुख-दुख का उल्लेख अभिलेखों में नहीं मिलता है, क्योंकि अभिलेख प्रायः बड़े और विशेष अवसरों का वर्णन करते हैं।
  • प्रेक्षण का परिप्रेक्ष्य: अभिलेख हमेशा उन्हीं व्यक्तियों के विचार व्यक्त करते हैं जो उन्हें बनवाते थे। इसलिए इनमें व्यक्त विचारों की समीक्षा अन्य विचारों के परिप्रेक्ष्य में करनी होगी।

राजनीतिक और आर्थिक इतिहास का पूर्ण ज्ञान मात्र अभिलेखशास्त्र से ही नहीं मिलता है।

पुस्तक में दिए गए उदाहरण (चित्र और स्रोत) और उनकी व्याख्या

इस अध्याय में दिए गए चित्र और स्रोत अध्याय की अवधारणाओं को स्पष्ट करते हैं। यहाँ उनकी संक्षिप्त व्याख्या दी गई है:

चित्र 2.1: एक अभिलेख, साँची (मध्य प्रदेश), लगभग द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व

यह चित्र साँची से प्राप्त एक प्राचीन अभिलेख को दर्शाता है। इसका काल लगभग द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व है। इतिहासकार और अभिलेखशास्त्री ऐसे अभिलेखों का अध्ययन करके प्राचीन इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं।

चित्र 2.2: राजगीर के किले की दीवार

यह चित्र राजगीर की प्राचीन किलेबंदी की दीवार को दिखाता है। राजगीर मगध की प्रारंभिक राजधानी थी, जो पहाड़ियों के बीच बसा एक किलेबंद शहर था। किलेबंदी शासक के निवास स्थान और संभवतः शहर की रक्षा के लिए बनाई जाती थी।

चित्र 2.3: सारनाथ का सिंह स्तंभ शीर्ष

यह चित्र असोक के सारनाथ स्तंभ के शीर्ष भाग को दर्शाता है, जिसमें चार सिंह हैं। मौर्यकालीन कला का यह उदाहरण साम्राज्य की पहचान माना जाता था। यह असोक की शक्ति और धम्म के प्रचार का प्रतीक है।

चित्र 2.4: एक कुषाण सिक्का

चित्र में एक कुषाण शासक का सिक्का दिखाया गया है। सिक्के के अग्र भाग पर कनिष्क की प्रतिमा है और पृष्ठ भाग पर एक देवता का चित्र है। कुषाण शासकों ने प्रतिमा और नाम वाले सिक्के जारी किए थे, और कुछ ने खुद को देवतुल्य दिखाने का प्रयास किया था। सिक्कों का अध्ययन मुद्राशास्त्र कहलाता है।

चित्र 2.5: कुषाण शासक की मूर्ति

यह चित्र मथुरा से मिली कुषाण शासक की एक विशालकाय मूर्ति को दर्शाता है। ऐसी मूर्तियाँ कुषाण शासकों द्वारा स्वयं को देवतुल्य प्रस्तुत करने के प्रयास का प्रमाण मानी जाती हैं। चित्र में राजा को उसकी पोशाक और उपकरणों के साथ दिखाया गया है।

चित्र 2.6: एक प्रतिमा की भेंट

यह चित्र मथुरा से मिली एक मूर्ति का भाग है। इस पर प्राकृत में एक अभिलेख है। अभिलेख में कहा गया है कि एक स्वर्णकार धर्मेंक की पत्नी नागपिया ने इसे एक धार्मिक स्थल पर स्थापित किया था। यह अभिलेख दान देने वाले व्यक्ति और उसके व्यवसाय का उल्लेख करता है, जो दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद कई नगरों में मिले छोटे अभिलेखों का उदाहरण है।

चित्र 2.7: आहत सिक्के

यह चित्र आहत सिक्कों को दिखाता है। आहत सिक्के छठी शताब्दी ईसा पूर्व में सबसे पहले ढाले गए थे। इन सिक्कों पर प्रतीकों को ठप्पा लगाकर बनाया जाता था।

चित्र 2.8: हिंद-यूनानी शासक मिनांडर का सिक्का

चित्र में हिंद-यूनानी शासक मिनांडर (Minander) का सिक्का दिखाया गया है। इन सिक्कों पर राजाओं के नाम यूनानी और खरोष्ठी दोनों लिपियों में लिखे होते थे। ये सिक्के खरोष्ठी लिपि को पढ़ने में यूरोपीय विद्वानों के लिए महत्वपूर्ण साबित हुए।

चित्र 2.9: एक अभिलेख, सारनाथ (उत्तर प्रदेश)

यह चित्र सारनाथ से प्राप्त असोक के एक अभिलेख को दर्शाता है। असोक के अभिलेख उनके शासन और धम्म के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं।

चित्र 2.10: असोक के समय की ब्राह्मी व उसके समानार्थक देवनागरी अक्षर

यह चित्र असोककालीन ब्राह्मी लिपि के अक्षरों की तुलना देवनागरी लिपि के अक्षरों से करता है। यह दिखाता है कि ब्राह्मी लिपि कैसे आधुनिक भारतीय लिपियों का आधार बनी।

चित्र 2.11: ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि की वर्णमाला

यह चित्र ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों के अक्षर दिखाता है। प्रिंसेप ने इन लिपियों का अर्थ निकाला था, जो प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण था।

चित्र 2.13: कर्नाटक से प्राप्त एक ताम्रपत्र लेख, लगभग छठी शताब्दी ईस्वी

यह चित्र कर्नाटक से प्राप्त एक ताम्रपत्र अभिलेख को दर्शाता है। यह लगभग छठी शताब्दी ईस्वी का है। ताम्रपत्र अभिलेख भूमिदान के प्रमाण हो सकते हैं।

स्रोत 1: हाथी पकड़ना (अर्थशास्त्र से अंश)

यह स्रोत अर्थशास्त्र से एक अंश है जो मौर्य काल के प्रशासनिक विवरण देता है। इसमें बताया गया है कि कैसे वन संरक्षक, हाथियों को पालने वाले, सीमा रक्षक, वनवासी और महावत मिलकर जंगली हाथियों को पकड़ते थे। यह दर्शाता है कि मौर्य सेना में हाथी एक महत्वपूर्ण अंग थे।

स्रोत 2: यूनानी स्रोतों के अनुसार मौर्य सेना

यह स्रोत बताता है कि यूनानी स्रोतों के अनुसार मौर्य सम्राट के पास छह लाख पैदल सैनिक, तीस हजार घुड़सवार तथा नौ हजार हाथी थे। कुछ इतिहासकार इस विवरण को अतिशयोक्तिपूर्ण मानते हैं। यह स्रोत एक बड़ी सेना के रखरखाव के लिए आवश्यक संसाधनों पर सोचने के लिए प्रेरित करता है।

स्रोत 3: राजा और सरदार (एक संगम कालीन कविता से अंश)

यह स्रोत एक संगम कालीन कविता का अंश है। कविता में सरदार को युद्ध के मैदान में अपने अनुयायियों के साथ दिखाया गया है, जहाँ लोग उसे भेंट ला रहे हैं। यह सरदारी व्यवस्था में भेंट लेने और उसे समर्थकों में वितरित करने की प्रथा को दर्शाता है, जो राजाओं के कर वसूलने से अलग थी।

स्रोत 4: राजा और उसकी प्रजा (जातक कथा से अंश)

यह स्रोत एक जातक कथा का अंश है जो राजा और ग्रामीण प्रजा के बीच संबंधों को दर्शाता है। कहानी बताती है कि राजा अत्यधिक कर मांगता था, जिससे किसान त्रस्त रहते थे। इससे पता चलता है कि करों का बोझ ग्रामीण जीवन में तनाव का कारण बन सकता था।

स्रोत 5: धम्म का अर्थ

यह स्रोत असोक के धम्म के सिद्धांतों को बताता है। धम्म में बड़ों का आदर करना, संन्यासियों और ब्राह्मणों के प्रति उदारता, दासों तथा सेवकों के साथ दयापूर्ण व्यवहार, तथा दूसरों के धर्मों और परंपराओं का आदर करना शामिल था।

स्रोत 6: गाँव का जीवन (हर्षचरित से अंश)

यह स्रोत संस्कृत में लिखी बाणभट्ट की हर्षचरित का अंश है। यह विंध्य क्षेत्र के जंगल के किनारे एक बस्ती के जीवन का चित्रण करता है। इसमें छोटे किसानों द्वारा भूमि बांटने, कुदाल का उपयोग करने (घास वाली भूमि में हल चलाना मुश्किल था), और जंगल से उत्पाद (पेड़ की छाल, फूल, अलसी, सन, शहद, मोरपंख, मोम, लकड़ी, घास, फल) इकट्ठा करके गाँवों में बेचने का वर्णन है। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था और दैनिक जीवन की झलक देता है।

स्रोत 7: अग्रहार के नियम (एक ताम्रपत्र अभिलेख से अंश)

यह स्रोत अग्रहार (ब्राह्मणों को भूमिदान) के नियमों का विवरण देता है। अभिलेख में बताया गया है कि अग्रहार गाँव में पुलिस या सैनिक प्रवेश नहीं करेंगे। गाँव शासकीय अधिकारियों को घास, जानवरों की खाल, कोयला देने के दायित्व से मुक्त है। वे मदिरा खरीदने और नमक हेतु खुदाई करने के राजकीय अधिकार से मुक्त हैं। गाँव खनिज पदार्थ, खदिर वृक्ष उत्पाद, फूल और दूध देने से भी छूट प्राप्त है। यह भूमिदान गाँव के भीतर की संपत्ति और सभी करों सहित किया गया है। यह स्रोत भूमिदान के बाद ब्राह्मणों को प्राप्त विशेषाधिकारों को स्पष्ट करता है।

स्रोत 8: शोक का दृश्य (एक मूर्तिकला का अंश)

यह चित्र एक मूर्तिकला का अंश है जो संभवतः किसी दुखद घटना को दर्शाता है (हालांकि पाठ में इसका सीधा लिंक किसी विशिष्ट घटना से नहीं दिया गया है, यह सामान्य रूप से कला और समाज के बारे में जानकारी का स्रोत है)।

स्रोत 9: पेरिफ़्लस ऑफ़ एरीथ्रियन सी से अंश

यह स्रोत हिंद महासागर के साथ व्यापार के बारे में जानकारी देता है। यह बताता है कि विदेशी व्यापारी किन वस्तुओं का आयात और निर्यात करते थे, जैसे काली मिर्च, दालचीनी, सिक्के, रत्न, हाथी दाँत आदि।

स्रोत 10: असोक का एक अभिलेख

यह स्रोत असोक के एक अभिलेख का अंश है जिसमें देवानामपिय पियदस्सी अपनी प्रजा के लिए प्रतिवेदकों (संवाददाताओं) की नियुक्ति का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि प्रतिवेदक उन्हें हर समय, हर स्थान पर प्रजा के मामलों की सूचना दें।

स्रोत 11: राजा की वेदना (कलिंग युद्ध के बाद असोक का अभिलेख)

यह स्रोत कलिंग युद्ध के बाद असोक के पश्चाताप को व्यक्त करने वाले अभिलेख का अंश है। असोक बताते हैं कि जब उन्होंने कलिंग विजय प्राप्त की, तो डेढ़ लाख पुरुष निष्कासित किए गए, एक लाख मारे गए, और इससे भी ज्यादा की मृत्यु हुई। कलिंग पर शासन स्थापित करने के बाद, असोक धम्म के गहन अध्ययन, धम्म के स्नेह और धम्म के उपदेश में डूब गए। उनके लिए कलिंग की विजय पश्चाताप का विषय बन गई, क्योंकि जब कोई राज्य विजय प्राप्त करता है तो हानि होती है, लोग मारे जाते हैं और निष्कासित किए जाते हैं। हालांकि, यह अभिलेख आधुनिक ओडिशा से प्राप्त हुआ है, यह उस क्षेत्र में नहीं मिला है जिस पर विजय प्राप्त की गई थी।

अध्याय के अभ्यास प्रश्नों के विस्तृत उत्तर

6. मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। असोक के अभिलेखों में इनमें से कौन-कौन से तत्वों के प्रमाण मिलते हैं?

मौर्य प्रशासन के अभिलक्षण:

  • मौर्य साम्राज्य एक विशाल साम्राज्य था, जिसका शासन पश्चिमोत्तर में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था।
  • मौर्य शासकों के पास एक बड़ी सेना और नौकरशाही तंत्र था। यूनानी स्रोतों के अनुसार, उनके पास बड़ी संख्या में पैदल सैनिक, घुड़सवार और हाथी थे। अर्थशास्त्र में सैनिक और प्रशासनिक संगठन का विस्तृत विवरण है।
  • शासक कर (tax) और भेंट (bhaint) वसूलते थे।
  • असोक ने धम्म के प्रचार द्वारा साम्राज्य को एकजुट रखने का प्रयास किया।
  • धम्म महामात्त नामक विशेष अधिकारियों की नियुक्ति धम्म के प्रचार के लिए की गई।
  • राजा जनता के मामलों की सूचना पाने के लिए प्रतिवेदकों (संवाददाताओं) की नियुक्ति करते थे।

असोक के अभिलेखों में प्रमाण:

  • असोक के अभिलेखों में उनकी उपाधियों "देवानामपिय" और "पियदस्सी" का उल्लेख मिलता है, हालांकि उनका नाम हमेशा मौजूद नहीं होता। अन्य अभिलेखों से उनके नाम की पुष्टि होती है।
  • उनके अभिलेख धम्म के सिद्धांतों और उसके प्रचार के प्रयासों का विवरण देते हैं।
  • अभिलेखों में धम्म महामात्तों की नियुक्ति का उल्लेख है।
  • स्रोत 10 में असोक प्रतिवेदकों की नियुक्ति का वर्णन करते हैं, जिससे प्रशासनिक संरचना का पता चलता है।
  • कलिंग युद्ध के बाद के अभिलेख (स्रोत 11) असोक की नीतियों में आए बदलाव और उनकी प्रजा के प्रति चिंता को दर्शाते हैं।

7. यह बीसवीं शताब्दी के एक सुविख्यात अभिलेखशास्त्री, डी.सी. सरकार का वक्तव्य है: भारतीयों के जीवन, संस्कृति, और गतिविधियों का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसका प्रतिबिंब अभिलेखों में नहीं है। चर्चा कीजिए।

यह वक्तव्य अभिलेखों को भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्रोत बताता है।

  • स्रोतों के अनुसार, अभिलेखों से हमें शासकों, उनके नामों, उपाधियों, नीतियों (जैसे धम्म), और विजयों (जैसे कलिंग विजय) के बारे में जानकारी मिलती है।
  • भूमिदान के अभिलेखों से भूमि के स्वामित्व, ग्रामीण समाज की संरचना, और कर व्यवस्था के बारे में पता चलता है।
  • नगरों से मिले छोटे अभिलेखों से विभिन्न व्यवसायों (धोबी, बुनकर, स्वर्णकार आदि) और उत्पादकों तथा व्यापारियों के संघों (श्रेणी) के बारे में जानकारी मिलती है।
  • ताम्रपत्रों जैसे अभिलेख ब्राह्मणों को दिए गए विशेषाधिकारों (अग्रहार) का विवरण देते हैं, जो सामाजिक और आर्थिक जीवन का हिस्सा था।
  • हालांकि, स्रोतों में यह भी बताया गया है कि अभिलेखों की कुछ सीमाएँ हैं। वे हमेशा तकनीकी समस्याओं (पढ़ने में कठिनाई, नष्ट होना) या शब्दों के विशिष्ट अर्थों के कारण पूरी तरह से स्पष्ट नहीं होते हैं।
  • सबसे महत्वपूर्ण सीमा यह है कि अभिलेख हमेशा राजनीतिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण मानी जाने वाली हर चीज का उल्लेख नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, खेती की दैनिक प्रक्रियाओं या आम लोगों के जीवन के सुख-दुख का विस्तृत वर्णन अभिलेखों में नहीं मिलता।
  • अभिलेख उन्हें बनवाने वाले व्यक्तियों के विचारों को व्यक्त करते हैं, न कि समाज के सभी वर्गों के विचारों को।
  • इसलिए, हालांकि अभिलेख भारतीय जीवन के कई पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं, डी.सी. सरकार का वक्तव्य एक हद तक अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकता है क्योंकि अभिलेख सभी पहलुओं का समान और पूर्ण प्रतिबिंब नहीं देते हैं। इतिहासकारों को इतिहास को समझने के लिए अन्य स्रोतों (जैसे ग्रंथ, सिक्के, पुरातात्विक प्रमाण) का भी उपयोग करना पड़ता है।

8. उत्तर-मौर्य काल में विकसित राजत्व के विचारों की चर्चा कीजिए।

उत्तर-मौर्य काल में (मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद) राजत्व के कई नवीन सिद्धांत विकसित हुए।

  • दक्कन और दक्षिण भारत (तमिलकम) में सरदारियों (जैसे चोल, चेर, पांड्य) का उदय हुआ। सरदारियाँ राजाओं से भिन्न थीं; सरदार भेंट लेते थे, कर नहीं, और उनकी स्थायी सेना या अधिकारी नहीं होते थे। यह राजत्व का एक अलग रूप था जो वंशानुगत हो सकता था।
  • मध्य और पश्चिम भारत पर शासन करने वाले सातवाहन और पश्चिमोत्तर तथा पश्चिम पर शासन करने वाले शक शासक भी थे। यद्यपि उनके सामाजिक उद्गम के बारे में अधिक जानकारी नहीं है, सत्ता में आने के बाद उन्होंने उच्च सामाजिक अस्तित्व का दावा किया।
  • कुषाण शासकों ने स्वयं को देवतुल्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया। उन्होंने अपनी विशालकाय मूर्तियाँ स्थापित कीं और "देवपुत्र" जैसी उपाधियाँ धारण कीं, जो चीनी शासकों से प्रेरित हो सकती थीं। यह राजत्व का एक दैवीय सिद्धांत था।
  • चौथी शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य का उदय हुआ। गुप्त साम्राज्य सामंतों पर निर्भर था। यह एक ऐसा राजत्व मॉडल था जिसमें केंद्रीय शक्ति के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर शक्तिशाली सामंत भी थे। सामंतों की शक्ति शासक की कमजोरी या मजबूती के आधार पर बदलती रहती थी।
  • इस प्रकार, उत्तर-मौर्य काल में सरदारी व्यवस्था, स्वयं को देवतुल्य घोषित करने वाले शासक और सामंतों पर आधारित साम्राज्यों जैसे राजत्व के विभिन्न रूप प्रचलित हुए।

9. वर्णित काल में कृषि के तौर-तरीकों में किस हद तक परिवर्तन हुआ?

वर्णित काल (लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व से छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी तक) में कृषि के तौर-तरीकों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए।

  • हल का प्रचलन: छठी शताब्दी ईसा पूर्व से गंगा और कावेरी घाटियों के उर्वर क्षेत्रों में लोहे के फाल वाले हलों का उपयोग बढ़ गया। यह भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में जुताई के लिए उपयोगी था। हालांकि, उपमहाद्वीप के कुछ हिस्सों में ऐसे हलों का उपयोग सीमित था।
  • धान की रोपाई: गंगा घाटी में धान की रोपाई (transplantation) की तकनीक शुरू हुई। इसमें पहले बीज अंकुरित करके पौधों को पानी से भरे खेतों में रोपा जाता था। इससे धान की उपज में भारी वृद्धि हुई, हालांकि इसमें मेहनत अधिक लगती थी।
  • सिंचाई: उपज बढ़ाने के लिए सिंचाई महत्वपूर्ण हो गई। सिंचाई के लिए कुओं, तालाबों और नहरों का उपयोग किया जाता था। सुदर्शन झील जैसे कृत्रिम जलाशय भी बनाए गए थे।
  • हर्षचरित से पता चलता है कि कुछ क्षेत्रों (जैसे विंध्य के जंगल के किनारे) में जहाँ घास भरी भूमि थी, वहाँ हल की जगह कुदाल का प्रयोग किया जाता था। यह दर्शाता है कि कृषि पद्धतियाँ भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार भिन्न थीं।
  • कृषि तकनीकों में सुधार के बावजूद, खेती से जुड़े लोगों के बीच असमानता बढ़ी। भूमिहीन मजदूर, छोटे किसान और बड़े जमींदार जैसे वर्ग उभर कर आए।
  • भूमि के स्वामित्व में भी परिवर्तन आया, खासकर भूमिदान के प्रचलन से। ब्राह्मणों को दिए गए अग्रहार भूमि पर उन्हें कर वसूलने और प्रशासन में कुछ अधिकार मिल जाते थे। यह कृषि प्रबंधन और सामाजिक संरचना में बदलाव का संकेत था।
  • कुल मिलाकर, इस काल में कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए लोहे के हल, रोपाई और सिंचाई जैसी तकनीकों का विकास हुआ, लेकिन इन परिवर्तनों का प्रभाव समाज के विभिन्न वर्गों पर अलग-अलग पड़ा।

10. मानचित्र 1 और 2 की तुलना कीजिए और उन महाजनपदों की सूची बनाइए जो मौर्य साम्राज्य में शामिल रहे होंगे। क्या इस क्षेत्र में असोक के कोई अभिलेख मिले हैं?

(नोट: इस उत्तर के लिए आपको पाठ्यपुस्तक में दिए गए मानचित्र 1 (महाजनपद) और मानचित्र 2 (महत्वपूर्ण राज्य और नगर) की आवश्यकता होगी। यहाँ स्रोतों के आधार पर अनुमानित उत्तर दिया गया है।)

स्रोतों के अनुसार, सोलह महाजनपदों में से मगध, कोशल, कुरु, पांचाल, गांधार और अवंति प्रमुख थे। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य का शासन पश्चिमोत्तर में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था। उनके पौत्र असोक ने कलिंग (आधुनिक ओडिशा) पर विजय प्राप्त की थी।

मानचित्रों की तुलना से (अनुमानित):

  • संभावित महाजनपद जो मौर्य साम्राज्य का हिस्सा बने होंगे उनमें मगध, कोशल, कुरु, पांचाल, अवंति और संभवतः गांधार (चूंकि मौर्य शासन पश्चिमोत्तर तक फैला था) शामिल हैं।
  • हाँ, इन क्षेत्रों में असोक के कई अभिलेख मिले हैं। राजगाह, पाटलिपुत्र, सारनाथ, साँची जैसे स्थान महत्वपूर्ण मौर्य केंद्र थे और यहाँ या इनके आस-पास असोक के अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जो उनके साम्राज्य की सीमा और धम्म के प्रचार को दर्शाते हैं। कलिंग क्षेत्र (ओडिशा) में भी उनके अभिलेख मिले हैं।

कृपया अपनी पाठ्यपुस्तक के मानचित्रों का संदर्भ लें और उन पर अंकित असोक के अभिलेख स्थलों की तुलना महाजनपदों के क्षेत्रों से करें।

11. एक महीने के अखबार इकट्ठे कीजिए...। इस अध्याय में चर्चित अभिलेखों के साक्ष्यों से इनकी तुलना कीजिए। आप इनमें क्या समानताएँ और असमानताएँ पाते हैं?

(नोट: इस प्रश्न के लिए अखबारों को इकट्ठा करना और विश्लेषण करना एक बाहरी गतिविधि है। यहाँ केवल अभिलेखों के साक्ष्य से तुलना के सामान्य बिंदु दिए गए हैं।)

समानताएँ:

  • दोनों (आधुनिक सरकारी वक्तव्य/समाचार और प्राचीन अभिलेख) सार्वजनिक जानकारी देने और महत्वपूर्ण घटनाओं या नीतियों की घोषणा करने का माध्यम हो सकते हैं।
  • दोनों ही किसी विशेष घटना, परियोजना या शासक/सरकार के दृष्टिकोण को दर्शा सकते हैं।
  • दोनों ही किसी विशेष काल या संदर्भ के बारे में जानकारी के स्रोत के रूप में काम करते हैं।

असमानताएँ:

  • प्रसारण माध्यम और गति: आधुनिक सूचना अखबार, टीवी, इंटरनेट से तेजी से और व्यापक रूप से फैलती है। प्राचीन अभिलेख पत्थर या धातु पर उत्कीर्ण होते थे, जिनका प्रसारण धीमा और सीमित था।
  • विवरण की प्रकृति: आधुनिक समाचारों में वित्तीय, सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं का अधिक विस्तृत और विविध विश्लेषण हो सकता है। प्राचीन अभिलेख अक्सर शासक की प्रशंसा, धार्मिक दान या विजय पर केंद्रित होते थे।
  • स्रोतों की विविधता: आधुनिक समय में सूचना के कई (आधिकारिक, गैर-आधिकारिक, स्वतंत्र) स्रोत होते हैं। प्राचीन काल में अभिलेख अक्सर शासक द्वारा जारी किया गया आधिकारिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते थे।
  • उद्देश्य: आधुनिक समाचारों का उद्देश्य सूचना देना, मनोरंजन करना या जनमत तैयार करना हो सकता है। प्राचीन अभिलेखों का मुख्य उद्देश्य स्थायित्व, शासक की कीर्ति का बखान या धार्मिक पुण्य कमाना होता था।
  • भाषा और पहुँच: आधुनिक समाचार आम लोगों की भाषा में होते हैं और अधिक सुलभ होते हैं। प्राचीन अभिलेख विशिष्ट लिपियों और कभी-कभी औपचारिक भाषा में होते थे, जिनकी पहुँच सीमित थी।

12. आज प्रचलित पाँच विभिन्न नोटों और सिक्कों को इकट्ठा कीजिए...। इस अध्याय में दर्शित सिक्कों से इनकी तुलना कीजिए।

(नोट: इस प्रश्न के लिए आधुनिक नोटों/सिक्कों का विश्लेषण एक बाहरी गतिविधि है। यहाँ केवल प्राचीन सिक्कों से तुलना के सामान्य बिंदु दिए गए हैं।)

अध्याय में चर्चित प्राचीन सिक्के:

  • आहत सिक्के: चाँदी और ताँबे के, प्रतीकों के साथ (जैसे पेड़, मछली, अर्धचंद्र), छठी शताब्दी ईसा पूर्व से।
  • हिंद-यूनानी सिक्के: शासकों की यथार्थवादी प्रतिमा और नाम के साथ, यूनानी और खरोष्ठी लिपि में।
  • कुषाण सिक्के: शासक (जैसे कनिष्क) और विभिन्न भारतीय, यूनानी, ईरानी देवताओं की प्रतिमा के साथ। सोने और तांबे के।
  • गुप्त सोने के सिक्के: कलात्मक उत्कृष्टता, शासकों की विभिन्न मुद्राओं में प्रतिमाएँ (जैसे वीणा बजाते हुए, शिकार करते हुए), संस्कृत में लेख।

तुलना के बिंदु (आधुनिक बनाम प्राचीन):

  • सामग्री: प्राचीन सिक्के मुख्यतः सोना, चाँदी, ताँबा। आधुनिक सिक्के विभिन्न मिश्र धातुओं, नोट कागज/पॉलिमर के।
  • निर्माण तकनीक: प्राचीन आहत (ठप्पा मारकर), ढाले हुए। आधुनिक सिक्के और नोट मशीनों द्वारा उच्च परिशुद्धता से निर्मित।
  • प्रतीक/चित्र:
    • प्राचीन: शासकों की प्रतिमा, देवता, धार्मिक प्रतीक, राजवंश के चिह्न, लिपि में नाम/उपाधि।
    • आधुनिक: राष्ट्रीय प्रतीक (अशोक स्तंभ), महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं की तस्वीर, ऐतिहासिक स्मारक, मूल्य, जारी करने वाले बैंक का नाम, सुरक्षा चिह्न।
  • लिपि और भाषा: प्राचीन सिक्कों पर ब्राह्मी, खरोष्ठी, यूनानी, प्राकृत, संस्कृत। आधुनिक भारतीय मुद्रा पर देवनागरी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाएँ।
  • महत्व और कार्य: दोनों ही विनिमय का माध्यम। प्राचीन सिक्के शासक की शक्ति, वैधता और कलात्मक प्रवृत्तियों को भी दर्शाते थे। आधुनिक मुद्रा अर्थव्यवस्था के प्रबंधन, राष्ट्रीय पहचान और सुरक्षा पर अधिक केंद्रित है।
  • आर्थिक संकेत: प्राचीन सिक्कों की धातु और शुद्धता तत्कालीन आर्थिक स्थिति का संकेत दे सकती है। आधुनिक मुद्रा का मूल्य मौद्रिक नीति और अंतर्राष्ट्रीय बाजार द्वारा अधिक निर्धारित होता है।

अध्याय की अवधारणाओं पर आधारित नए अभ्यास प्रश्न

  1. मगध के सोलह महाजनपदों में सबसे शक्तिशाली बनने के कारणों का विश्लेषण कीजिए।
  2. मौर्य साम्राज्य के इतिहास के पुनर्निर्माण में मेगस्थनीज के विवरण, अर्थशास्त्र और असोक के अभिलेखों की क्या भूमिका है? इन स्रोतों की विश्वसनीयता की सीमाओं पर भी चर्चा कीजिए।
  3. असोक का धम्म क्या था? इसके मुख्य सिद्धांत क्या थे और असोक ने इसके प्रचार के लिए क्या कदम उठाए?
  4. उत्तर-मौर्य काल में विकसित हुई सरदारी प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ क्या थीं और यह राजशाही से किस प्रकार भिन्न थी?
  5. प्राचीन काल में उपज बढ़ाने के लिए किसानों द्वारा अपनाए गए विभिन्न तरीकों का वर्णन कीजिए। इन तरीकों से ग्रामीण समाज पर क्या प्रभाव पड़ा?
  6. भूमिदान के प्रचलन के पीछे क्या उद्देश्य थे? इतिहासकार इस प्रथा के प्रभावों के बारे में क्या तर्क देते हैं?
  7. प्राचीन नगरों का उदय कैसे हुआ और उनकी क्या विशेषताएँ थीं? नगरीय जनसंख्या के विभिन्न वर्गों और उनकी गतिविधियों का वर्णन कीजिए।
  8. प्राचीन भारत में व्यापार में सिक्कों की क्या भूमिका थी? आहत सिक्के, हिंद-यूनानी सिक्के और गुप्त सोने के सिक्कों की विशेषताओं की तुलना कीजिए।
  9. अभिलेखों का अध्ययन (अभिलेखशास्त्र) प्राचीन भारतीय इतिहास को समझने में किस प्रकार सहायक है? ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों को कैसे पढ़ा गया, इसकी व्याख्या कीजिए।
  10. कलिंग युद्ध के बाद असोक के विचारों में क्या परिवर्तन आया? असोक के अभिलेखों से हमें राजा की वेदना और धम्म के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के बारे में क्या पता चलता है?

अध्याय का संक्षिप्त सारांश (पुनरावृत्ति के लिए)

  • हड़प्पा सभ्यता के बाद उपमहाद्वीप में विभिन्न विकास हुए, जैसे ऋग्वेद लेखन और कृषक-चरवाहा बस्तियों का उदय।
  • ईसा पूर्व छठी शताब्दी से आरंभिक राज्यों (महाजनपद), नगरों और लोहे के उपयोग का विकास हुआ। बौद्ध और जैन धर्म भी इसी काल में विकसित हुए।
  • मगध, अपनी भौगोलिक और आर्थिक विशेषताओं के कारण, सोलह महाजनपदों में सबसे शक्तिशाली बनकर उभरा।
  • मगध के विकास के साथ चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा मौर्य साम्राज्य की स्थापना हुई। असोक इस वंश के सबसे प्रसिद्ध शासक थे, जिन्होंने कलिंग विजय के बाद धम्म का प्रचार किया।
  • मौर्य साम्राज्य के अध्ययन के लिए अभिलेखों (असोक के अभिलेख सबसे महत्वपूर्ण), ग्रंथों (अर्थशास्त्र), और विदेशी विवरणों (मेगस्थनीज) जैसे स्रोतों का उपयोग किया जाता है।
  • उत्तर-मौर्य काल में दक्षिण में सरदारियाँ (चोल, चेर, पांड्य), मध्य/पश्चिम में सातवाहन/शक, और पश्चिमोत्तर में कुषाण जैसे नए राज्य उभरे। कुषाणों ने स्वयं को देवतुल्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया। चौथी शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य और सामंतवाद का उदय हुआ।
  • कृषि में लोहे के हल, धान की रोपाई और सिंचाई जैसी तकनीकों का उपयोग बढ़ा। इससे उत्पादन बढ़ा, लेकिन ग्रामीण समाज में असमानता बढ़ी। भूमिदान की प्रथा भी शुरू हुई, जिसने ग्रामीण संरचना को प्रभावित किया।
  • लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व से नगरों का उदय हुआ, जो व्यापार और राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र थे। नगरों में विभिन्न व्यवसायों के लोग और व्यापारियों के संघ (श्रेणी) रहते थे।
  • व्यापार में सिक्कों का महत्व बढ़ा। आहत सिक्के, हिंद-यूनानी सिक्के और गुप्त सोने के सिक्के विनिमय के माध्यम के रूप में उपयोग किए जाते थे। मुद्राशास्त्र सिक्कों का अध्ययन है।
  • इतिहासकार प्राचीन इतिहास को समझने के लिए अभिलेखों का अध्ययन करते हैं (अभिलेखशास्त्र)। जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों को पढ़कर इस क्षेत्र में क्रांति ला दी।
  • हालांकि, अभिलेखों की अपनी सीमाएँ हैं; वे हमेशा पूर्ण, स्पष्ट नहीं होते और केवल बनवाने वाले के दृष्टिकोण को दर्शाते हैं।

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मुझे उम्मीद है कि ये नोट्स आपको इस अध्याय को स्वयं समझने और अपनी परीक्षा की तैयारी करने में सहायक होंगे। शुभकामनाएँ!

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