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 वैश्वीकरण

उदारीकरण और निजीकरण के गर्भ से निकला वैश्वीकरण शब्द का प्रचार-प्रसार अभी कुछ वर्ष पूर्व से हुआ है। बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में पहले उदारीकरण और बाद में निजीकरण शब्द चलन में आए तब वैश्वीकरण।

वैश्वीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा विश्व की विभिन्न अका समन्वय और एकीकरण होता है। वैश्वीकरण से पूंजी, प्रौद्योगिकी तथा तैयार उत्पादों का निर्वाध प्रवाह होता है। इससे विकसित तथा विकासशील दोनों प्रकार के देश लाभान्वित होते है।

वैश्वीकरण के चार अंग है

(i) व्यवसाय अथवा व्यापार सम्बन्धी अवरोधों की कमी

(ii) पूँजी का निर्वाध प्रवाह,

(iii) प्रौद्योगिकी का निर्वाध प्रवाह तथा 

(iv) श्रम का निर्वाध प्रवाह वैश्वीकरण में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का सहयोग उल्लेखनीय है। ये अब विश्व भर में अपने उद्योग फैला रही है। वैश्वीकरण से बाजारों का एकीकरण होता है।

वैश्वीकरण को सम्भव बनाने वाले कारक है 

(1) प्रौद्योगिकी में प्रगति

(11) विदेश व्यापार तथा 

(iii) विदेशी निवेश का उदारीकरण।

भारत में वैश्वीकरण के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिया जाता है : 

(1) प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहन

(ii) प्रतियोगी शक्ति में वृद्धि

(iii) नई प्रौद्योगिकी के प्रयोग में सहायक

(iv) अच्छी उपभोक्ता वस्तुओं की प्राप्ति 

(v) नए बाजार तक पहुँच

(vi) उत्पादन तथा उत्पादकता के स्तर को उन्नत करना

(vii) बैंकिंग तथा वित्तीय क्षेत्र में सुधार तथा 

(viii) मानवीय पूँजी की क्षमता का विकास

बिहार पर वैश्वीकरण के जो सकारात्मक प्रभाव दिखाई दिए, वे है

(1) कृषि उत्पादन में वृद्धि,

 (ii) निर्यातों में वृद्धि

(iii) विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की प्राप्ति,

 (iv) शुद्ध घरेलू उत्पाद तथा प्रतिव्यक्ति घरेलू उत्पाद में वृद्धि

(v) निर्धनता में कमी

(vi) विश्व स्तरीय उपभोक्ता वस्तुओं की उपलब्धता

(vii) रोजगार के अवसरों में वृद्धि तथा 

(viii) बहुराष्ट्रीय बैंक एवं बीमा कम्पनियों का आगमन।

वैसे ही नकारात्मक प्रभाव निम्नलिखित है:

(i) कृषि एवं कृषि आधारित उद्योगों की उपेक्षा

(ii) कुटीर तथा लघु उद्योगों पर विपरीत प्रभाव

(III) रोजगार पर विपरीत प्रभाव

(iv) आधारभूत संरचना का अल्प विकास तथा 

(v) अल्प निवेश वैश्वीकरण का आदमी पर भी प्रभाव पड़ा है, लेकिन उनमें कुछ तो अच्छे प्रभाव है तो कुछ बुरे प्रभाव भी है।

अच्छे प्रभाव निम्नलिखित है

(i) उपयोग के आधुनिक संसाधनों की उपलब्धता

(ii) रोजगार की बढ़ रही सम्भावना तथा

(iii) धुनिक तकनीक की उपलब्धता

आम लोगों पर रवीकरण का बुरा प्रभाव 

(i) बेरोजगारी दिने की आशंका

(ii) उद्योग एवं व्यापार में बढ़ रही प्रतियोगिता,

(iii) श्रम संगठनों पर बुरा प्रभाव

(iv) मध्यम एवं छोटे उत्पादकों की कठिनाई

(v) कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्रों में संकट की आशंका

 

 

 




 सत्ता में साझेदारी की कार्यप्रणाली

लोकतंत्र में शासन की शक्तिय किसी एक बिन्दु में केंद्रित नहीं होकर विभिन्न स्तरो में विभाजित होती है। सत्ता का अनेक स्तरों पर बैटना वास्तव में लोकतंत्र का मूलाधार होता है। भारतीय संविधान अपने निर्माण के समय ही राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों में तथा भारतीय समाज की विविधता को अपने में समाहित कर लिया। इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर सत्ता का विकेन्द्रीकरण इसलिए किया गया ताकि राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न हित समूहों के हितों की पूर्ति हो सके और राष्ट्रीय एकता भी बनी रहे।

समाज में अनेक प्रकार की भिन्नता होती है। जैसे विभिन्न शारीरिक बनावट, रंग, जाति, धर्म, लिग, भाषा, परम्परा आदि। भारत तो इस अर्थ में विश्व में एक आदर्श उपस्थित करता है। जितनी भिन्नता भारत में देखी जाती है उतनी विश्व के किसी भी देश में नहीं है। यहाँ एक ही समय में कहीं पर कड़ाके की ठंड पड़ती है तो उसी समय किसी क्षेत्र में गर्मी भी पड़ती है और कहीं वर्षा की झड़ी लगी रहती है। वास्तव में ऐसा भारत के क्षेत्र का विस्तृत होना है। 'कोस-कोस पर पानी बदले चार कोस पर बानी' यह भारत में पूर्णतः चरितार्थ होती है। यूरोप के छोटे-छोटे देशों जैसे बेल्जियम में अल्प संख्या में होने पर भी अनेक जटिलता का सामना करना पड़ा। संतोष की बीत है कि वहाँ के नेताओं ने इसे अच्छी तरह सुलझा लिया है। इसके विपरीत हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका में मात्र दो भाषा और मात्र तीन-चार धर्मों के बावजूद वहाँ के राजनीतिज्ञ उसे सम्भाल नहीं सके और देश को गृहयुद्ध के आग में जलना पड़ा। इस दृष्टि से भारत को पूर्णांक मिलना चाहिए, क्योंकि यहाँ अगनित जातियों, अनेक धर्मों, 20 से भी अधिक भाषाओं आदि के रहते हुए भारतीय नेताओं ने दूरर्शिता का परिचय देते हुए इतना अच्छा संविधान बनाया कि श्रीलंका जैसे संघर्ष की स्थिति यहाँ पनप हीं नहीं सकती। 1951 में भारतीय संविधान लागू हुआ और तब से आजतक यहाँ शांति पूर्ण ढंग से शासन चलते रहा है।

वास्तव में इसकी जड़ में सत्ता के बँटवारे की बात है। यहाँ ग्रामीण स्तर पर ग्राम पंचायतों से लेकर नगरों तक नगर परिषद, नगरपालिका, नगर निगम आदि स्वशासन की संस्थाएँ हैं तो राज्यों में राज्य की सरकारें हैं तथा केन्द्र में केन्द्रीय सरकार है। केन्द्रीय सरकार को संघीय सरकार भी कहा जाता है। इस प्रकार से सत्ता के विभाजन से यहाँ असंतोष की भावना पनप ही नहीं पाती। सदियों से दबे कुचले समाज के लोगों को आरक्षण की सुविधा देकर उन्हें अपना सामाजिक उत्थान करने का अवसर दिया गया है। 14 वर्ष आयु तक के सभी बच्चों को निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था है।

ग्राम पंचायतों का गठन गाँवों में होता है, जबकि पंचायत समितियाँ प्रखंड स्तर पर. कायम होती हैं। जिलों में जिला परिषद होती है। ये तीनों परस्पर अन्तर्सम्बंधित होती हैं। नगरों के लिए भी तीन स्तर की स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ होती हैं। कस्बाई नगरों में नगर पंचायत, बड़े शहरों में नगर परिषद तथा उससे भी बड़े नगर में नगर निगम होते हैं। इन तीनों के सदस्यों का चुनाव वहीं के लोग करते हैं। नगर परिषद को नगरपालिका भी कहते हैं।

     




लोकतंत्र में प्रतिस्पर्द्धा एवं संघर्ष

इस अध्याय में हम ज्ञात कर सकेंगे कि लोकतांत्रिक व्यवस्था एक ऐसी आदर्श व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत समाज में रहने वाले विभिन्न व्यक्तियों के पारिवारिक हितों में टकराव चलता रहता है। अतः लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की विवशता है कि उसे परस्पर विरोधी दबावों के बीच संतुलन एवं सामस्य बनाना पड़ता है।

प्रतिस्पर्धा एवं जनसंघर्ष का अर्थ लोकतंत्र का विकास प्रतिस्पर्धा तथा संघर्ष का ही प्रतिफल है। जहाँ भी राजतंत्र हटा, पहले वहाँ संघर्ष करना पड़ा। जनता कभी-कभी स्वयं भी संघर्ष में शामिल हो जाती है। लेकिन राजनीतिक दल, दबाव-समूह और आन्दोलनकारी समूह संगठित राजनीति के सकारात्मक माध्यम है।

लोकतंत्र में जनसंघर्ष की भूमिका लोकतंत्र को मजबूत और सुदृढ बनाने मे जनसंघर्ष की अहम भूमिका होती है। 1947 में मिली स्वतंत्रता के बाद भारत लगातार अपने लोकतंत्र को मजबूत करता जा रहा है। 1970 के दशक में देश को एक बड़े संघर्ष से गुजरना पड़ा था, 1977 के आम चुनाव में लौह स्तंभ समझी जाने वाली इंदिरा गाँधीचारों खाने चित्त हो गई और जनता पार्टी जीत गई। 

बिहार का छात्र आदोलन- 1974 का बिहार का छात्र आन्दोलन कई दृष्टियों से ऐतिहासिक साबित हुआ। इस आन्दोलन ने एक युगा का अन्त कर नए युग का सूत्रपात किया था। लेकिन नेताओं का स्वार्थ तथा जलन की प्रवृत्ति ने सब किए-कराए पर पानी फेर दिया। जिस दल को लेकर यह सब छिछा लेदर हुआ आज राष्ट्रीय दल के रूप में विद्यमान है तथा औरों को अपने राज्य तक में सिमट कर रह जाना पड़ा है।

देश में हुए विभिन्न आन्दोलन देश में कभी-कभी अनेक प्रकार के आन्दोलन हुआ करते हैं। जैसेचिपको आन्दोलन, दलित पैंथर्स आन्दोलन, भारतीय किसान यूनियन आन्दोलन, ताड़ी विरोधी आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन, सूचना के अधिकार का आन्दोलन

इन आन्दोलनों के अलावा देश के बाहर भी अनेक आन्दोलन हुए और सफलता प्राप्त कर समाप्त हुए। जैसेनेपाल में लोकतांत्रिक आन्दोलन, बोलिविया में जन संघर्ष, बंगलादेश में लोकतंत्र के लिए संघर्ष, श्रीलंका में लोकतंत्र के लिए संघर्ष इत्यादि

राजनीतिक दल का अर्थ राजनीतिक दल का अर्थ लोकतंत्र के रहने पर ही है। बिना लोकतंत्र के राजनीतिक दल निरर्थक हैं। लोकतंत्र में राजनीतिक दल ही जनता की आँख, कान और जीभ होते हैं। वही जनता की ओर से कुछ बोलते हैं। वे जो देखते हैं, जो सुनते हैं, उसी आधार पर अपनी नीति का निर्धारण करते हैं।

राजनीतिक दलों का कार्य राजनीतिक दलों के कार्य असीमित हैं। लोकतंत्र में जनता के हित में वे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं, लाठी की मार सहने से लेकर गोली खाने तक को तैयार रहते हैं। ये नीतियाँ बनाते हैं और कार्यक्रम तय करते हैं। बहुमत मिलने पर शासन का संचालन करते है। यदि बहुमत नहीं मिला तो विरोधी दल की भूमिका निभाते है। दलीय चुनावों का संचालन करते हैं, लोकमत का निर्माण करते है, सरकार और जनता के बीच मध्यस्थ बनते हैं, अपने कार्यकर्ताओं को राजनीतिक प्रशिक्षण देते है।

इन्हीं सब कारणों से कहा जाता है कि लोकतंत्र के लिए राजनीतिक दल उसके प्राण है। राजनीतिक दलों के बीच जो प्रतियोगिता होती है, उससे लोकमत सशक्त होता है। राजनीतिक दलों का राष्ट्रीय विकास में काफी योगदान रहता है। लेकिन राजनीतिक दलों को कुछ चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। जैसे

आंतरिक लोकतंत्र की कमी, नेतृत्व का संकट, वंशवाद की परिपाटी, काले धन का प्रभाव, अपराधियों का राजनीतिकरण, सिद्धांतहीन राजनीति का बोलबाला, अवसरवादी गठबंधन

राजनीतिक दलों को प्रभावशाली बनाने के उपाय- ऐसे तो राजनीतिक दलों को प्रभावशाली बनाने के अनेक उपाय है। लेकिन निम्नलिखित महत्वपूर्ण है 

दल-बदल कानून को लागू करना, उच्च न्यायालय का सम्मान करते हुए उसके आदेशों का पालन करना, पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र बहाल करना। 

राजनीतिक दलों के दो प्रकार हैं। एक राष्ट्रीय दल तथा दूसरा क्षेत्रीय दल