आपका स्वागत है! यह ब्लॉग पोस्ट NCERT कक्षा 12 जीव विज्ञान के अध्याय 1, "पुष्पी पादपों में लैंगिक जनन" पर आधारित विस्तृत स्व-अध्ययन नोट्स प्रदान करता है। यहाँ आपको सैद्धांतिक अवधारणाओं, महत्वपूर्ण परिभाषाओं, अभ्यास प्रश्नों के हल और अध्याय का सारांश मिलेगा, जो आपकी परीक्षा की तैयारी और विषय की गहन समझ के लिए उपयोगी होगा।
कक्षा 12 जीव विज्ञान - अध्याय 1: पुष्पी पादपों में लैंगिक जनन
(स्व-अध्ययन नोट्स)
यह इकाई पुष्पी पादपों तथा मनुष्यों में होने वाली जनन प्रक्रियाओं को उनसे संबंधित उदाहरणों सहित समझाती है। मानव जनन स्वास्थ्य तथा जनन के जीव विज्ञान को समझने तथा जनन संबंधित बीमारियों से किस प्रकार बचा जा सकता है, पर भी महत्व प्रस्तुत किया गया है।
अध्याय 1: पुष्पी पादपों में लैंगिक जनन
1.1 पुष्प - आवृतबीजियों का एक आकर्षक अंग
- पौधों के लिए, पुष्प आकारिकीय एवं भ्रौणिकीय (भ्रूणीय) आश्चर्य तथा लैंगिक जनन स्थल है।
- मनुष्यों के लिए, पुष्प सौंदर्य विषयक, आभूषणात्मक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक महत्व की वस्तु रहे हैं।
- ये मानव द्वारा प्रेम, अनुराग, प्रसन्नता, विषाद एवं शोक आदि की अभिव्यक्ति को प्रदर्शित करने के प्रतीक रहे हैं।
- सभी पुष्पी पादप लैंगिक जनन प्रदर्शित करते हैं।
- पुष्पक्रमों, पुष्पों तथा पुष्पी अंगों की संरचना की विविधता अनुकूलन की एक व्यापक परिधि को दर्शाती है ताकि लैंगिक जनन का अंतिम उत्पाद, फल और बीज की रचना सुनिश्चित हो सके।
- एक प्रारूपिक पुष्प के विशिष्ट अंग (जैसे चित्र 1-1 में दिखाए गए हैं): वर्तिकाग्र, वर्तिका, पंखुड़ी, परागकोष, तंतु, बाह्य दल, अंडाशय।
- पुष्प में नर एवं मादा जनन संरचनाएँ - पुमंग तथा जायांग विभेदित एवं विकसित रहती हैं।
1.2 निषेचन-पूर्व-संरचनाएँ एवं घटनाएँ
पादप में वास्तव में पुष्प विकसित होने से पूर्व यह तय हो जाता है कि पादप में पुष्प आने वाले हैं। अनेकों हार्मोनल तथा संरचनात्मक परिवर्तनों की शुरुआत होने लगती है, जिसके फलस्वरूप पुष्पीय आद्यक (floral primordium) के मध्य विभेदन एवं अग्रिम विकास प्रारंभ होते हैं। पुष्पक्रम की रचना होती है, जो पुष्पीय कलिकाएँ और बाद में पुष्प को धारण करती हैं।
1.2.1 पुंकेसर, लघुबीजाणुधानी तथा परागकण
पुमंगों से भरपूर पुंकेसरों का गोला (एक चक्कर) नर जनन अंग का प्रतिनिधित्व करता है।
एक विशिष्ट (प्रारूपिक) पुंकेसर दो भागों में विभक्त रहता है:
- लंबा एवं पतला डंठल तंतु (filament) कहलाता है।
- अंतिम सिरा सामान्यत: द्विपालिक संरचना परागकोष (anther) कहलाता है।
तंतु का समीपस्थ छोर पुष्प के पुष्पासन या पुष्प दल से जुड़ा होता है। पुंकेसरों की संख्या एवं लंबाई विभिन्न प्रजाति के पुष्पों में भिन्न होती है। एक प्रारूपिक आवृतबीजी परागकोष द्विपालित होते हैं तथा प्रत्येक पालि में दो कोष्ठ होते हैं, अर्थात् ये द्विकोष्ठी होते हैं। परागकोष एक चार दिशीय (चतुष्कोणीय) संरचना होती है जिसमें चार कोनों पर लघुबीजाणुधानी समाहित होती है, जो प्रत्येक पालि में दो होती हैं। यह लघुबीजाणुधानी आगे विकसित होकर परागपुटी (pollen sacs) बन जाती है। ये अनुदैर्ध्यवत् एक परागकोष की लंबाई तक विस्तारित होते हैं और परागकणों से भरे होते हैं।
लघुबीजाणुधानी की संरचना:
एक अनुप्रस्थ काट में, एक प्रारूपिक लघुबीजाणुधानी बाह्य रूपरेखा में लगभग गोलाई में प्रकट होती है। यह सामान्यतः चार भित्ति पर्तों से आवृत होती है:
- बाह्यत्वचा (Epidermis)
- अंतस्थीसियम (Endothecium)
- मध्य पर्त (Middle layers)
- टेपीटम (Tapetum)
बाहर की ओर की तीन परतें (बाह्यत्वचा, अंतस्थीसियम, मध्य पर्त) संरक्षण प्रक्रिया का कार्य करती हैं तथा परागकोष के स्फुटन में मदद कर परागकण अवमुक्त करती हैं। इसकी सबसे आंतरिक पर्त टेपीटम होती है।
टेपीटम (Tapetum): यह विकासशील परागकणों को पोषण देती है। टेपीटम की कोशिकाएँ सघन जीवद्रव्य से भरी होती हैं और सामान्यतः एक से अधिक केंद्रकों से युक्त होती हैं।
बीजाणुजन ऊतक (Sporogenous Tissue):
जब एक परागकोष अपरिपक्व होता है तब घने सुसंबद्ध सजातीय कोशिकाओं का समूह जिसे बीजाणुजन ऊतक कहते हैं, लघुबीजाणुधानी के केंद्र में स्थित होता है।
लघुबीजाणुजनन (Microsporogenesis):
जैसे-जैसे परागकोष विकसित होता है, बीजाणुजन ऊतकों की कोशिकाएँ अर्धसूत्री विभाजन द्वारा सूक्ष्म बीजाणु चतुष्टय बनाती हैं। बीजाणुजन ऊतक की प्रत्येक कोशिका एक लघुबीजाणु चतुष्टय की वृद्धि करने में सक्षम होती है। प्रत्येक कोशिका एक सक्षम पराग मातृकोशिका (Pollen mother cell - PMC) होती है।
लघुबीजाणुजनन: एक पराग मातृकोशिका से अर्धसूत्री विभाजन द्वारा लघुबीजाणु के निर्माण की प्रक्रिया।
स्रोत में "लघुबीजाणुधानी" शब्द का प्रयोग प्रक्रिया के लिए हुआ है, जो सामान्य परिभाषा से भिन्न हो सकता है, सामान्यतः इसे लघुबीजाणुजनन कहते हैं। स्रोत के अनुसार चलते हैं।
जब लघुबीजाणु रचना के समय चार कोशिकाओं के समूह में व्यवस्थित होते हैं उन्हें लघुबीजाणु चतुष्टय/चतुष्क कहते हैं। जैसे ही परागकोष परिपक्व एवं स्फुजित होता है तब लघुबीजाणु एक-दूसरे से विलग हो जाते हैं और परागकणों (pollen grains) के रूप में विकसित हो जाते हैं। प्रत्येक लघुबीजाणुधानी के अंदर कई हजार लघुबीजाणु और परागकण निर्मित होते हैं। परागकण परागकोष के स्फुटन के साथ मुक्त होते हैं।
परागकण (Pollen Grain):
परागकण नर युग्मकोद्भव का प्रतिनिधित्व करता है। विभिन्न प्रकार की प्रजातियों के परागकण विन्यास, आकार, रूप, रंग एवं बनावट में भिन्न दिखते हैं।
परागकण की संरचना:
- परागकण सामान्यतः गोलाकार होते हैं, जिनका व्यास लगभग 25-50 माइक्रोमीटर होता है।
- इनमें सुस्पष्ट रूप से दो परतों वाली भित्ति होती है।
- कठोर बाहरी भित्ति को बाह्यचोल (exine) कहते हैं जो कि स्पोरोपोलेनिइन (sporopollenin) से बनी होती है।
- स्पोरोपोलेनिइन सर्वाधिक ज्ञात प्रतिरोधक कार्बनिक सामग्री है।
- यह उच्च ताप तथा सुदृढ़ अम्लों एवं क्षारों के सम्मुख टिक सकती है।
- अभी तक ऐसा कोई एंजाइम पता नहीं चला है जो स्पोरोपोलेनिइन को निम्नीकृत कर सके।
- परागकण के बाह्यचोल में सुस्पष्ट द्वारक या रंध्र होते हैं जिन्हें जनन छिद्र (germ pores) कहते हैं। जनन छिद्रों पर स्पोरोपोलेनिइन अनुपस्थित होते हैं।
- स्पोरोपोलेनिइन की उपस्थिति के कारण परागकण जीवाश्मों की भाँति बहुत अच्छे से संरक्षित होते हैं।
- बाह्यचोल में प्रतिमानों एवं डिजाइनों की एक आकर्षक सारणी प्रदर्शित की गई है।
- परागकण की आंतरिक भित्ति को अंत:चोल (intine) कहा जाता है। यह एक पतली तथा सतत परत होती है जो सेलुलोज एवं पेक्टिन की बनी होती है।
- परागकण का जीवद्रव्य (cytoplasm) एक प्लाज्मा भित्ति से आवृत होता है।
- जब परागकण परिपक्व होता है तब उसमें दो कोशिकाएँ समाहित होती हैं:
- कायिक कोशिका (Vegetative cell): यह बड़ी होती है, जिसमें प्रचुर खाद्य भंडार तथा एक विशाल अनियमित आकृति का केंद्रक होता है।
- जनन कोशिका (Generative cell): यह छोटी होती है तथा कायिक कोशिका के जीवद्रव्य में तैरती रहती है। यह तर्कु आकृति, घने जीवद्रव्य और एक केंद्रक वाला होता है।
- 60 प्रतिशत से अधिक आवृतबीजी पादपों के परागकण इस दो कोशीय चरण में झड़ते या संगलित होते हैं।
- शेष प्रजातियों में जनन कोशिका सम-सूत्री विभाजन द्वारा विभक्त होकर परागकण के झड़ने से पहले (तीन-चरणीय) दो नर युग्मकों को बनाते हैं।
परागकण की जीवनक्षमता (Viability):
परागकण झड़ने के बाद अपनी जीवनक्षमता खोने से पहले वर्तिकाग्र पर गिरते हैं। परागकण की जीवनक्षमता बहुत विविध होती है, बहुत हद तक यह विद्यमान तापमान एवं आर्द्रता पर निर्भर करता है।
- कुछ अनाजों जैसे धान एवं गेहूँ में, परागकण अपनी जीवनक्षमता बहुत जल्दी लगभग 30 मिनट में खो देते हैं।
- जबकि गुलाबावृत (रोज़ेसी), लेग्यूमिनोसी तथा सोलेनेसी आदि कुछ सदस्यों में परागकणों की जीवनक्षमता महीनों तक बनी रहती है।
- बहुत सी प्रजाति के परागकणों को द्रव नाइट्रोजन ($$-196^\circ C$$) में कई वर्षों तक भंडारित करना संभव है। इस प्रकार से भंडारित पराग का प्रयोग बीज भंडार (बैंक) की भाँति पराग भंडारों (बैंकों) के रूप में फसल प्रजनन कार्यक्रम में किया जा सकता है।
पराग एलर्जी (Pollen Allergy):
अनेक प्रजातियों के परागकण कुछ लोगों में गंभीर एलर्जी एवं श्वसनी वेदना पैदा करते हैं। यह कभी-कभी चिरकालिक श्वसन विकार जैसे दमा, श्वसनी शोथ आदि के रूप में विकसित हो जाती है। यह बताया जा सकता है कि भारत में आयातित गेहूँ के साथ आने वाली गाजर-घास या पार्थेनियम (Parthenium) की उपस्थिति सर्वव्यापी हो गई है, जो पराग एलर्जी कारक है।
पराग उत्पाद (Pollen Products):
परागकण पोषणों से भरपूर होते हैं। हाल के वर्षों में आहार संपूरकों के रूप में पराग गोलियों (टेबलेट्स) के लेने का प्रचलन बढ़ा है। पश्चिमी देशों में, भारी मात्रा में पराग उत्पाद गोलियों एवं सीरप के रूप में बाज़ारों में उपलब्ध हैं। पराग खपत का यह दावा है कि यह खिलाड़ियों एवं धावक अश्वों (घोड़ों) की कार्यदक्षता में वृद्धि करता है।
1.2.2 स्त्रीकेसर, गुरुबीजाणुधानी (बीजांड) तथा भ्रूणकोष
जायांग (Gynoecium) पुष्प के मादा जनन अंग का प्रतिनिधित्व करता है। जायांग एक स्त्रीकेसर (एकांडपी) या बहु स्त्रीकेसर (बहुअंडपी) हो सकते हैं। जहाँ पर ये एक से अधिक होते हैं, वहाँ स्त्रीकेसर आपस में संगलित (युक्तांडपी) हो सकते हैं या फिर वे आपस में स्वतंत्र (वियुक्तांडपी)।
प्रत्येक स्त्रीकेसर में तीन भाग होते हैं:
- वर्तिकाग्र (Stigma): परागकणों के अवतरण मंच का काम करता है।
- वर्तिका (Style): एक दीर्घीकृत पतला भाग है जो वर्तिकाग्र के नीचे होता है।
- अंडाशय (Ovary): स्त्रीकेसर के आधार पर उभरा (फूला) हुआ भाग होता है।
अंडाशय के अंदर एक गर्भाशयी गुहा (कोष्ठक) होती है। गर्भाशयी गुहा के अंदर की ओर अपरा (Placenta) स्थित होती है। अपरा से उत्पन्न होने वाली दीर्घ बीजाणुधानी सामान्यतः बीजांड (Ovule) कहलाती है। एक अंडाशय में बीजांडों की संख्या एक (गेहूँ, धान, आम) से लेकर अनेक (पपीता, तरबूज तथा ऑर्किड) तक हो सकती है।
गुरुबीजाणुधानी (बीजांड) की संरचना:
बीजांड एक छोटी सी संरचना है जो एक वृंत या डंठल, जिसे बीजांडवृंत (funicle) कहते हैं, द्वारा अपरा से जुड़ी होती है। बीजांड की काया बीजांडवृंत के साथ नाभिका (hilum) नामक क्षेत्र में संगलित होती है। यह नाभिका बीजांड एवं बीजांडवृंत के संधि बिंदु का प्रतिनिधित्व करती है। प्रत्येक बीजांड में एक या दो अध्यावरण (integuments) नामक संरक्षक आवरण होते हैं। यह अध्यावरण बीजांड को चारों ओर से घेरे होता है, केवल बीजांडद्वार (micropyle) नामक संयोजित छोटे से रंध्र को छोड़कर। बीजांडद्वारी सिरे के ठीक विपरीत निभाग (chalaza) होता है जो बीजांड के आधारी भाग का प्रतिनिधित्व करता है। अध्यावरणों से घिरा हुआ कोशिकाओं का एक पुंज होता है, जिसे बीजांडकाय (nucellus) कहते हैं। बीजांडकाय केंद्र की कोशिकाओं में प्रचुरता से आरक्षित आहार सामग्री होती है। भ्रूणकोष या मादा युग्मकोद्भिद बीजांडकाय में स्थित होता है। एक बीजांड में, सामान्यतः एक अकेला भ्रूणकोष होता है जो एक गुरुबीजाणु से निर्मित होता है।
गुरुबीजाणु जनन (Megasporogenesis):
गुरुबीजाणुजनन: गुरुबीजाणुमातृकोशिकाओं से गुरुबीजाणुओं की रचना के प्रक्रम को गुरुबीजाणुजनन कहते हैं।
बीजांड प्रायः एक अकेले गुरुबीजाणु मातृ कोशिका से बीजांडकाय के बीजांडद्वारी क्षेत्र में विलग होते हैं। यह एक बड़ी कोशिका है जो सघन जीवद्रव्य से समाहित एवं एक सुस्पष्ट केंद्रक युक्त होती है। गुरुबीजाणुमातृकोशिका अर्धसूत्री विभाजन से गुजरती है। अर्धसूत्री विभाजन के परिणामस्वरूप चार गुरुबीजाणुओं का उत्पादन होता है।
मादा युग्मकोद्भिद् (भ्रूणकोष) (Female Gametophyte - Embryo Sac):
अधिकतर पुष्पी पादपों में गुरुबीजाणुओं में से एक कार्यशील होता है जबकि अन्य तीन अविकसित (अपभ्रष्ट) हो जाते हैं। केवल कार्यशील गुरुबीजाणु मादा युग्मकोद्भिद् (भ्रूणकोष) के रूप में विकसित होता है।
एक अकेले गुरुबीजाणु से भ्रूणकोष के बनने की विधि को एक-बीजाणुज विकास (monosporic development) कहा जाता है।
कार्यशील गुरुबीजाणु के केंद्रक समसूत्री विभाजन के द्वारा दो केंद्रकी (न्यूक्लिआई) बनाते हैं, जो विपरीत ध्रुवों को चले जाते हैं और 2-न्यूक्लिएट (केंद्रीय) भ्रूणकोष की रचना करते हैं। दो अन्य क्रमिक समसूत्री केंद्रकीय विभाजन के परिणामस्वरूप 4-केंद्रकीय (न्यूक्लिएट) और तत्पश्चात 8-केंद्रकीय (न्यूक्लिएट) भ्रूणकोष की संरचना करते हैं। ये सूत्री विभाजन सही अर्थों में मुक्त केंद्रक (न्यूक्लिअर) है, जो केंद्रकीय विभाजन से तुरंत ही कोशिका भित्ति रचना द्वारा नहीं अनुपालित किया जाता है। 8-न्यूक्लिएट चरण के पश्चात कोशिका भित्ति की नींव पड़ती है, जो विशिष्ट (प्रारूपिक) मादा युग्मकोद्भिद् या भ्रूणकोष के संगठन का रूप लेती है। भ्रूणकोष के भीतर कोशिकाओं का वितरण विशिष्टता पूर्ण होता है। बीजांडद्वारी सिरे पर तीन कोशिकाएँ एक साथ समूहीकृत होकर अंडोपकरण (egg apparatus) या समुच्चय का निर्माण करती हैं। इस अंड (समुच्चय) उपकरण के अंतर्गत दो सहाय कोशिकाएँ (synergids) तथा एक अंडकोशिका (egg cell) निहित होती है। बीजांडद्वारी छोर, जिसे तंतुरूपी समुच्चय (filiform apparatus) कहते हैं, पर एक विशेष सहाय कोशिकीय स्थूलन होने लगता है जो सहाय कोशिकाओं में पराग नलिकाओं को दिशा निर्देश प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तीन अन्य कोशिकाएँ निभाग (कैलाज़ल) छोर पर होती हैं, प्रतिव्यासांत (antipodal cells) कहलाती हैं। वृहद केंद्रीय कोशिका, जैसा कि पहले बताया गया है, में दो ध्रुवीय न्यूक्लिआई (केंद्रकी) होती हैं।
इस प्रकार से, एक प्रारूपिक आवृतबीजी भ्रूणकोष परिपक्व होने पर यद्यपि 8-न्यूक्लिएट वस्तुतः 7 कोशीय होता है।
1.2.3 परागण (Pollination)
पुष्पी पादपों में नर एवं मादा युग्मक क्रमशः परागकण एवं भ्रूणकोष में पैदा होते हैं। चूँकि दोनों ही प्रकार के युग्मक अचल हैं अतः निषेचन संपन्न होने के लिए दोनों को ही एक साथ लाना होता है।
परागण: परागकणों (परागकोष से झड़ने के पश्चात) का स्त्रीकेसर के वर्तिकाग्र तक स्थानांतरण या संचारण को परागण कहा जाता है।
परागण की प्राप्ति के लिए पुष्पी पादपों ने एक आश्चर्यजनक अनुकूलन व्यूह विकसित किया है। ये परागण को प्राप्त करने के लिए बाह्य कारकों का उपयोग करते हैं।
परागण के प्रकार (Types of Pollination):
पराग के स्रोत को ध्यान में रखते हुए, परागण को तीन प्रकारों में बाँटा जा सकता है:
- (क) स्वयुग्मन (Autogamy): एक ही (उसी) पुष्प में परागकोष से वर्तिकाग्र तक परागकणों का स्थानांतरण है।
- इस प्रकार का परागण उसी पुष्प के अंदर होता है।
- एक सामान्य पुष्प में, जहाँ परागकोष एवं वर्तिकाग्र खुलता एवं अनावृत होता है, वहाँ पूर्ण स्वयुग्मन अपेक्षाकृत दुर्लभ होता है।
- इस प्रकार के पुष्पों में स्वयुग्मन के लिए पराग एवं वर्तिकाग्र की विमुक्ति के लिए क्रमशः समकालिकता की आवश्यकता होती है।
- इसके साथ ही परागकोष एवं वर्तिकाग्र को एक-दूसरे के पास अवस्थित होना चाहिए, ताकि स्व-परागण संपन्न हो सके।
- कुछ पादप जैसे कि वायोला (सामान्य पेंसी), ऑक्ज़ेलिस तथा कोमेलिना (कनकोआ) दो प्रकार के पुष्प पैदा करते हैं:
- उन्मील परागणी पुष्प (Chasmogamous flowers): अन्य प्रजाति के पुष्पों के समान ही होते हैं, जिसके परागकोष एवं वर्तिकाग्र अनावृत होते हैं।
- अनुन्मील परागणी पुष्प (Cleistogamous flowers): कभी भी अनावृत नहीं होते हैं। इस प्रकार के पुष्पों में, परागकोष एवं वर्तिकाग्र एक-दूसरे के बिल्कुल नजदीक स्थित होते हैं। जब पुष्प कलिका में परागकोष स्फुजित होते हैं तब परागकण वर्तिकाग्र के संपर्क में आकर परागण को प्रभावित करते हैं। अतः अनुन्मील परागणी पुष्प सदैव स्वयुग्मक होते हैं क्योंकि यहाँ पर वर्तिकाग्र पर क्रॉस या पर-परागण अवतरण के अवसर नहीं होते हैं।
- अनुन्मील पौधे सुनिश्चित रूप से (यहाँ तक कि परागण की अनुपस्थिति में भी) बीज पैदा करते हैं।
- (ख) सजातपुष्पी परागण (Geitonogamy): एक ही पादप के एक पुष्प के परागकणों का दूसरे पुष्प के वर्तिकाग्रों तक का स्थानांतरण है।
- यद्यपि सजातपुष्पी परागण क्रियात्मक रूप से पर परागण है जिसमें एक कारक (agent) सम्मिलित होता है।
- सजातपुष्पी परागण लगभग स्वयुग्मन जैसा ही है, क्योंकि इसमें परागकण उसी पादप से आते हैं।
- (ग) परनिषेचन (Xenogamy): इसमें विभिन्न पादपों के पराग कोष से विभिन्न पादपों के वर्तिकाग्र तक परागकणों का स्थानांतरण होता है।
- मात्र यही केवल एक प्रकार का परागण है, जिसमें परागण के समय आनुवंशिकता भिन्न प्रकार के परागकणों का आगमन होता है।
परागण के अभिकर्मक या कारक (Agents of Pollination):
पौधे परागण के कारक या अभिकर्मक के रूप में दो अजीवीय (वायु एवं जल) तथा एक जीवीय (प्राणी) कारक (agent) का उपयोग कर लक्ष्य प्राप्त करते हैं। अधिकतर पौधे परागण के लिए जीवीय कारकों का उपयोग करते हैं। बहुत कम पौधे अजीवीय कारकों का उपयोग करते हैं। वायु तथा जल दोनों ही कारकों में परागकण का वर्तिकाग्र के संपर्क में आना महज संयोगात्मक घटना है। इस प्रकार की अनिश्चितता तथा परागकणों के ह्रास से जुड़े तथ्यों की क्षतिपूर्ति हेतु पौधे, बीजांडों की तुलना में, असंख्य मात्रा में परागकण उत्पन्न करते हैं।
अजीवीय परागण (Abiotic Pollination):
- वायु परागण (Wind Pollination):
- वायु द्वारा परागण सर्वाधिक सामान्य परागण है।
- वायु परागण हेतु हल्के तथा चिपचिपाहट रहित परागकणों की ज़रूरत होती है ताकि वे हवा के झोंकों के साथ संचारित हो सकें।
- वे अक्सर बेहतर अनावृत पुंकेसर से युक्त होते हैं (ताकि वे आसानी से हवा के बहाव में प्रसारित हो सकें)।
- तथा वृहद एवं प्रायः पिच्छ वर्तिकाग्र युक्त होते हैं ताकि आसानी से वायु के उड़ते परागकणों को आबद्ध किया जा सके।
- वायु परागित पुष्पों में प्रायः प्रत्येक अंडाशय में एक अकेला बीजांड तथा एक पुष्प क्रम में असंख्य पुष्प गुच्छ होते हैं।
- इसका एक जाना-पहचाना उदाहरण भुट्टा (कॉनकैर) है - आप जो फुंदने (टैसल) देखते हैं वे कुछ और नहीं, बल्कि वर्तिकाग्र और वर्तिका है जो हवा में झूमते हैं ताकि परागकणों को आसानी से पकड़ सकें।
- घासों में वायु परागण सर्वथा सामान्य है।
- जल परागण (Water Pollination):
- पुष्पी पादपों में पानी द्वारा परागण काफी दुर्लभ है।
- यह लगभग 30 वंशों तक सीमित है, वह भी अधिकतर एकबीजपत्री पौधों में।
- इसके विपरीत, निम्न पादप समूह जैसे - ऐल्गी (Algae), ब्रायोफाइट्स (Bryophytes) तथा टेरिडोफाइट्स (Pteridophytes) आदि के नर युग्मकों के परिवहन (संचार) का नियमित साधन जल ही है।
- जल परागित पादपों के कुछ उदाहरण वेलिसनेरिया (Vallisneria) तथा हाइड्रिला (Hydrilla) जो कि ताजे पानी में उगते हैं और अनेकों समुद्र जलीय घासें जैसे - ज़ोस्टेरा (Zostera) आदि हैं।
- सभी जलीय पौधे जल को परागण के लिए उपयोग में नहीं लाते हैं। अधिकतर जलीय पौधे जैसे कि वाटर हायसिंथ एवं वाटर लिली (मुकुंदनी) पानी के सतह पर पैदा होते हैं और इनका परागण कीटों एवं वायु से होता है, जैसा कि अधिकतर स्थलीय पादपों में होता है।
- एक प्रकार के जलीय परागण में मादा पुष्प एक लंबे डंठल द्वारा जल की सतह पर आ जाते हैं और नर पुष्प या परागकण पानी की सतह पर अवमुक्त होकर आ जाते हैं उदाहरणार्थ - वेलिसनेरिया।
- एक अन्य समूह के जलीय परागण वाले पादपों जैसे कि समुद्री घासों (सीग्रासेस) में मादा पुष्प जल के सतह के नीचे ही पानी में डूबा रहता है और परागकणों को जल के अंदर ही अवमुक्त किया जाता है।
- इस प्रकार की बहुत सारी प्रजातियों के परागकण लंबे, फीते जैसे होते हैं तथा जल के भीतर निष्क्रिय रूप से बहते रहते हैं।
- जल परागित अधिकतर प्रजातियों में परागकणों को पानी के भीतर गीले श्लेष्मद आवरण द्वारा संरक्षित रखा जाता है।
- वायु एवं जल परागित पुष्प न तो बहुत रंग युक्त होते हैं और न ही मकरंद पैदा करते हैं। (इसका कारण यह है कि उन्हें प्राणियों को आकर्षित करने की आवश्यकता नहीं होती।)
जीवीय परागण (Biotic Pollination):
अधिकतर पुष्पीय पादप परागण के लिए प्राणियों को परागण कर्मक/कारक के रूप में उपयोग करते हैं। मधुमक्खियाँ, भौरें, तितलियाँ, बर्र, चींटियाँ, शलभ या कीट, पक्षी (शकरखोरा तथा गुंजनपक्षी) तथा चमगादड़ आदि सामान्य परागणीय अभिकर्मक हैं। प्राणियों में कीट-पतंग विशेष रूप से मधुमक्खी, प्रधान जीवीय परागण कर्मक हैं। यहाँ तक कि बड़े नर - वानर गण के प्राणी (लीमर या लेम्यूर), वृक्षवासी (शाखाचारी) कृन्तक और यहाँ तक कि सरीसृप वर्ग (गीको छिपकली तथा उपवन छिपकली) भी कुछ प्रजाति के पादपों के परागण के लिए सक्रिय पाए गए हैं।
- प्रायः प्राणी परागित पादपों के पुष्प एक विशिष्ट प्रजाति के प्राणी के लिए विशेष रूप से अनुकूलित होते हैं।
- अधिकतर कीट परागित पुष्प बड़े, रंगीन पूर्ण सुगंध युक्त तथा मकरंद से भरपूर होते हैं।
- जब पुष्प छोटे होते हैं तब अनेक पुष्प एक पुष्पवृंत में समूहबद्ध होकर अधिक उभर आते हैं।
- प्राणी रंगों एवं/अथवा सुगंध (महक) के कारण पुष्पों की ओर आकर्षित होते हैं।
- मक्खियों एवं बीटलों से परागिणित होने वाले पुष्प मलिन गंध स्रावित करते हैं, जिससे ये प्राणी आकर्षित होते हैं।
- प्राणियों से भेंट जारी रखने के लिए पुष्पों को कुछ लाभ या पारितोषिक उपलब्ध कराना होता है।
- मकरंद और परागकण फूलों द्वारा प्रदत्त आम पारितोषिक हैं।
- इस पारितोषिकों को पाने के लिए प्राणी आगंतुकों को परागकोष तथा वर्तिकाग्र के संपर्क में आना पड़ता है।
- प्राणी के शरीर पर परागकणों का एक आवरण सा चढ़ जाता है, जो प्राणी परागित फूलों में प्रायः चिपचिपा होता है।
- जब परागकणों से लिप्त प्राणी वर्तिकाग्र के संपर्क में आता है तो यह परागण पूरा करता है।
- कुछ पुष्प प्रजातियों में यह पुरस्कार अंडा देने की सुरक्षित जगह के रूप में होता है। उदाहरण: एमोरफोफैलस (Amorphophallus) का लंबेतर पुष्प (जो लगभग 6 फुट ऊँचा होता है)।
- ठीक ऐसा ही एक सह-संबंध शलभ की एक प्रजाति और यूका पादप के बीच होता है जहाँ दोनों ही प्रजाति - शलभ एवं पादप बिना एक दूसरे के बिना अपना जीवन चक्र नहीं पूरा कर सकते हैं। इसमें शलभ अपने अंडे पुष्प के अंडाशय के कोष्ठक में देती है। जबकि इसके बदले में वह शलभ द्वारा परागित होता है।
- बहुत सारे कीट या भ्रमणकर्ता बिना परागण किए पराग या मकरंद का भक्षण कर लेते हैं। ऐसे आगंतुकों या भ्रमणकारियों को पराग/मकरंद दस्यु (pollen/nectar robbers) के रूप में संदर्भित किया जाता है।
बहि:प्रजनन युक्तियाँ (Outbreeding Devices):
अधिकतर पुष्पी पादप उभयलिंगी पुष्पों एवं परागकणों को उत्पन्न करते हैं जो बहुत हद तक उसी पुष्प के वर्तिकाग्र के संपर्क में आते हैं। निरंतर स्व परागण के फलस्वरूप प्रजनन में अंतः प्रजनन अवनमन (inbreeding depression) होता है। पुष्पी पादपों ने बहुत सारे ऐसे साधन या उपाय विकसित कर लिए हैं जो स्वपरागण को हतोत्साहित एवं परपरागण को प्रोत्साहित करते हैं।
- कुछ प्रजातियों में पराग अवमुक्ति एवं वर्तिकाग्र ग्राह्यता समकालिक नहीं होती है: या तो वर्तिकाग्र के तैयार होने से पहले ही पराग अवमुक्त कर दिए जाते हैं या फिर परागों के झड़ने से काफी पहले ही वर्तिकाग्र ग्राह्य बन जाता है।
- कुछ प्रजातियों में परागकोष एवं वर्तिकाग्र भिन्न स्थानों पर अवस्थित होते हैं, जिससे उसी पादप में पराग वर्तिकाग्र के संपर्क में नहीं आ पाते हैं। दोनों ही युक्तियाँ स्वयुग्मन रोकती हैं।
- अंतः प्रजनन रोकने का तीसरा साधन स्व-असामंजस्य (Self-incompatibility) है। यह एक वंशानुगत प्रक्रम तथा स्वपरागण रोकने का उपाय है। इसमें उसी पुष्प या उसी पादप के अन्य पुष्प से जहाँ बीजांड के निषेचन को पराग अंकुरण या स्त्रीकेसर में परागनलिका वृद्धि को रोका जाता है।
- स्वपरागण को रोकने के लिए एक अन्य साधन है, एकलिंगी पुष्पों (unisexual flowers) का उत्पादन।
- अगर एक ही पौधे पर नर एवं मादा दोनों ही पुष्प उपलब्ध हों जैसे - एरंड, मक्का (उभयलिंगाश्रयी - monoecious), यह स्वपरागण को रोकता है न कि सजातपुष्पी परागण को।
- अन्य बहुत सारी प्रजातियों जैसे पपीता में नर एवं मादा पुष्प भिन्न पादपों पर होते हैं अर्थात् प्रत्येक पादप या तो मादा या नर है (एकलिंगाश्रयी - dioecious)। यह परिस्थिति स्वपरागण तथा सजातपुष्पी परागण दोनों को अवरोधित करती है।
पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण (पारस्परिक्रक्रिया) (Pollen-Pistil Interaction):
परागण बिल्कुल सही प्रकार के परागकणों का स्थानांतरण सुनिश्चित नहीं कराता है (ठीक उसी प्रजाति का सुयोग्य पराग वर्तिकाग्र तक पहुँचे)। प्रायः गलत प्रकार के पराग भी उसी वर्तिकाग्र पर आ पड़ते हैं। स्त्रीकेसर में यह सक्षमता होती है कि वह पराग को पहचान सके कि वह उसी वर्ग के सही प्रकार का पराग (सुयोग्य) है या फिर गलत प्रकार का (अयोग्य)। यदि पराग सही प्रकार का होता है तो स्त्रीकेसर उसे स्वीकार कर लेता है तथा परागण-पश्च घटना के लिए प्रोत्साहित करता है जो कि निषेचन की ओर बढ़ता है। यदि पराग गलत प्रकार का होता है तो स्त्रीकेसर वर्तिकाग्र पर पराग अंकुरण या वर्तिका में पराग नलिका वृद्धि रोककर पराग को अस्वीकार कर देता है।
एक स्त्रीकेसर द्वारा पराग के पहचानने की सक्षमता उसकी स्वीकृति या अस्वीकृति द्वारा अनुपालित होती है, जो परागकणों एवं स्त्रीकेसर के बीच निरंतर संवाद का परिणाम है। इस संवाद की मध्यस्थता स्त्रीकेसर तथा पराग के रासायनिक घटकों के संकर्षण द्वारा होता है।
सुयोग्य परागण के अनुपालन में, परागकण वर्तिकाग्र पर जनित होते हैं ताकि एक जनन छिद्र के माध्यम से एक परागनलिका (pollen tube) उत्पन्न हो। पराग नलिका वर्तिकाग्र तथा वर्तिका के ऊतकों के माध्यम से वृद्धि करती है और अंडाशय तक पहुँचती है। जिन पादपों में पराग तीन कोशीय स्थिति में होते हैं, वहाँ परागनलिका शुरुआत से ही दो नर युग्मकों को ले जाती है। परागनलिका अंडाशय में पहुँचने के पश्चात, बीजांड द्वार के माध्यम से बीजांड में प्रविष्ट करती है और तत्पश्चात तंतुमय समुच्चय के माध्यम से एक सहाय कोशिका में प्रविष्ट करती है। सहाय कोशिका के बीजांडद्वारी हिस्से पर उपस्थित तंतुरूपी समुच्चय पराग नलिका के प्रवेश को दिशा निर्देशित करती है। वर्तिकाग्र पर पराग अवस्थित होने से लेकर बीजांड में पराग नलिका के प्रविष्ट होने तक की सभी घटनाओं को परागस्त्रीकेसर संकर्षण के नाम से संबोधित किया जाता है। पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण एक गतिक प्रक्रम है जिसमें पराग पहचान के साथ पराग को प्रोन्नति या अवनति द्वारा अनुपालन सम्मिलित है।
कृत्रिम संकरण (Artificial Hybridisation):
कृत्रिम संकरण फसल की उन्नति या प्रगतिशीलता कार्यक्रम के लिए एक प्रमुख उपागम है। इस प्रकार के संकरण प्रयोगों हेतु, यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि केवल अपेक्षित परागों का उपयोग परागण के लिए किया जाए तथा वर्तिकाग्र को संदूषण (अनापेक्षित परागों) से बचाया जाए। यह उपलब्धि केवल बोरावस्त्र तकनीक (बैगिंग तकनीक) तथा विपुंसन तकनीक द्वारा पाई जा सकती है।
- विपुंसन (Emasculation): यदि कोई मादा जनक द्विलिंगी पुष्पधारण करता है तो पराग के प्रस्फुटन से पहले पुष्प कलिका से पराग कोष के निष्कासन हेतु एक जोड़ा चिमटी का इस्तेमाल आवश्यक होता है। इस चरण को विपुंसन के रूप में संदर्भित किया जाता है। यदि मादा जनक एकलिंगी पुष्प को पैदा करता है तो विपुंसन की आवश्यकता नहीं होती है।
- बैगिंग (Bagging): विपुंसित पुष्पों को उपयुक्त आकार की थैली से आवृत किया जाना चाहिए जो सामान्यतः बटर पेपर (पतले कागज़) की बनी होती है, ताकि इसके वर्तिकाग्र को अवांछित परागों से बचाया जा सके। इस प्रक्रम को बैगिंग (या बोरा-वस्त्रावरण) कहते हैं। जब बैगिंग (वस्त्रावृत) पुष्प का वर्तिकाग्र सुग्राह्यता को प्राप्त करता है तब नर अभिभावक से संगृहीत पराग कोष के पराग को उस पर छिड़का जाता है और उस पुष्प को पुनः आवृत करके, उसमें फल विकसित होने के लिए छोड़ दिया जाता है। एकलिंगी मादा पुष्पों को फूलने से पूर्व ही आवृत कर दिया जाता है। जब वर्तिकाग्र सुग्राह्य बन जाता है तब अपेक्षित पराग के उपयोग द्वारा परागण करके पुष्प को पुनः आवृत (रिबैगड) कर दिया जाता है।
1.3 दोहरा निषेचन (द्वि-निषेचन) (Double Fertilisation)
एक सहायककोशिका में प्रवेश करने के पश्चात पराग नलिका द्वारा सहायककोशिका के जीव द्रव्य में दो नर युग्मक अवमुक्त किए जाते हैं। इनमें से एक नर युग्मक अंड कोशिका की ओर गति करता है और केंद्रक के साथ संगलित होता है, जिससे युग्मक संलयन पूर्ण होता है। इसके परिणाम में एक द्विगुणित कोशिका युग्मनज (zygote) की रचना होती है। दूसरा नर युग्मक केंद्रीय कोशिका में स्थित दो ध्रुवीय न्यूक्लिआई (केंद्रकी) की ओर गति करता है और उनसे संगलित होकर त्रिगुणित (प्राथमिक भ्रूणपोष न्यूक्लियस - Primary Endosperm Nucleus - PEN) बनाता है।
त्रिसंलयन (Triple fusion): चूँकि इसके अंतर्गत तीन अगुणितक न्यूक्लिआई (केंद्रकी) सम्मिलित होते हैं। अतः इसे त्रिसंलयन कहते हैं।
दोहरा निषेचन (Double fertilisation): चूँकि एक भ्रूण पुटी (भ्रूणकोष) में दो प्रकार के संलयन (संलगन), युग्मकसंलयन तथा त्रिसंलयन स्थान लेते हैं अतः इस परिघटना को दोहरा निषेचन कहा जाता है। जो कि पुष्पी पादपों के लिए एक अनूठी घटना है।
त्रिसंलयन के पश्चात केंद्रीय कोशिका प्राथमिक भ्रूणपोष कोशिका बन जाती है तथा भ्रूणपोष (endosperm) के रूप में विकसित होने लगती है जबकि युग्मनज एक भ्रूण (embryo) के रूप में विकसित होता है।
1.4 निषेचन - पश्च-संरचनाएँ एवं घटनाएँ (Post-fertilisation Structures and Events)
दोहरे निषेचन के अनुपालन या अनुहरण में भ्रूणपोष एवं भ्रूण के विकास की अगली घटनाक्रम में, बीजांड के परिपक्व होकर बीज में बदलने तथा अंडाशय को फल के रूप में विकसित होने की सभी घटनाओं को सामूहिक रूप से निषेचन-पश्च घटना (post-fertilisation events) के नाम से जाना जाता है।
1.4.1 भ्रूणपोष (Endosperm)
भ्रूणपोष का विकास भ्रूण विकास के रूप में बढ़ता है (क्योंकि यह विकासशील भ्रूण को पोषण प्रदान करता है)। प्राथमिक भ्रूणपोष कोशिका बार-बार विभाजित होती है तथा एक त्रिगुणित भ्रूणपोष ऊतक की रचना करते हैं। इन ऊतकों की कोशिकाएँ संरक्षित खाद्य सामग्री से पूरित होती हैं और विकासशील भ्रूण की पोषकता के लिए उपयोग किए जाते हैं।
सर्वाधिक सामान्य प्रकार के प्राथमिक भ्रूणपोष केंद्रक नामक भ्रूणपोष विकास उत्तरोत्तर केंद्रकीय (न्यूक्लिअर) विभाजन से गुजर कर मुक्त न्यूक्लिआई (केंद्रकी) के रूप में पैदा होता है। भ्रूणपोष के विकास की इस अवस्था को फ्री-न्यूक्लियर एन्डोसपर्म (Free Nuclear Endosperm) अर्थात् मुक्त केंद्रकीय भ्रूणपोष कहते हैं। इसके सापेक्ष ही कोशिका भित्ति रचना स्थान लेती है और भ्रूणपोष कोशकीय (cellular) बन जाता है।
कोशिकीकरण से पहले मुक्त न्यूक्लिआई की संख्याओं में व्यापक भिन्नता होती है। एक कच्चे नारियल का पानी, जिससे आप परिचित हैं, और कुछ नहीं भी, बल्कि यह मुक्त केंद्रकीय भ्रूणपोष (जो हजारों न्यूक्लिआई से बना) है। और इसके आस-पास का सफेद गूदा (गिरी) कोशकीय भ्रूणपोष होता है। बीज के परिपक्व होने से पहले भ्रूणपोष पूरी तरह से विकासशील भ्रूण द्वारा उपभोग कर लिया जाता है (जैसे - मटर, मूँगफली, सेम आदि) या फिर परिपक्व बीज में विद्यमान रहता है (जैसे - अरंडी और नारियल) और इसे बीज अंकुरण के समय इस्तेमाल किया जाता है।
1.4.2 भ्रूण (Embryo)
भ्रूण भ्रूणकोष या पुटी के बीजांडद्वारी सिरे पर विकसित होता है, जहाँ पर युग्मनज स्थित होता है। अधिकतर युग्मनज तब विभाजित होते हैं जब कुछ निश्चित सीमा तक भ्रूणपोष विकसित हो जाता है। यह एक प्रकार का अनुकूलन है ताकि विकासशील भ्रूण को सुनिश्चित पोषण प्राप्त हो सके। भ्रूण विकास (भ्रूणोद्भव) की प्रारंभिक अवस्था (चरण) एक बीजपत्री तथा द्विबीजपत्री दोनों ही में समान होती है। युग्मनज प्राक्भ्रूण (proembryo) के रूप में वृद्धि करता है और इसके सापेक्ष ही गोलाकार (globular), हृदयाकार (heart-shaped) तथा परिपक्व भ्रूण में वृद्धि करता है।
एक प्रारूपिक द्विबीजपत्री भ्रूण (Dicotyledonous Embryo):
एक भ्रूणीय अक्ष (धुरी) तथा दो बीजपत्र समाहित होते हैं। बीजपत्र के स्तर से ऊपर भ्रूणीय अक्ष की प्रोटीन (एपिकॉटिल) बीजपत्राधार होती है जो प्रांकुर या स्तंभ सिरे पर प्रायः समाप्त होती है। (स्रोत में "बीजपत्राधार" एपिकॉटिल के लिए प्रयोग हुआ है, जो शायद गलत अनुवाद है, सामान्यतः इसे बीजपत्राधार (hypocotyl) और बीजपत्रोपरिक (epicocotyl) कहते हैं। एपिकॉटिल प्रांकुर/स्तंभ सिरे पर समाप्त होती है।) बीजपत्राधार में बीजपत्रों के स्तर से नीचे बेलनाकार प्रोटीन, जो कि मूलांत सिरा या मूलज के शीर्षारंत पर समाप्त होती है। (स्रोत में "बीजपत्राधार" हाइपोकॉटिल के लिए प्रयोग हुआ है।) यह मूलशीर्ष एक ढक्कन द्वारा आवृत होती है, जिसे मूल गोप (root cap) कहते हैं।
एकबीजपत्रीय-भ्रूण (Monocotyledonous Embryo):
केवल एक बीजपत्र होता है। घास परिवार में बीजपत्र को स्कूटेलम (scutellum) कहते हैं। जो भ्रूणीय अक्ष के एक तरफ (पार्श्व की ओर) स्थित होता है। इसके निचले सिरे पर भ्रूणीय अक्ष में एक गोलाकार और मूल आवरण एक बिना विभेदित पर्त से आवृत होता है, जिसे कोलियोराइज़ा (coleorhiza) मूलंकुर चोल कहते हैं। स्कूटेलम के जुड़ाव के स्तर से ऊपर, भ्रूणीय अक्ष के भाग को बीजपत्रोपरिक (epicotyl) कहते हैं। बीजपत्रोपरिक में प्ररोह शीर्ष तथा कुछ आदि कालिक (आद्य) पर्ण होते हैं, जो एक खोखला-पर्णीय संरचना को घेरते हैं, जिसे कोलियोप्टाइल (coleoptile) प्रांकुरचोल कहते हैं।
1.4.3 बीज (Seed)
आवृतबीजियों में, लैंगिक जनन का अंतिम परिणाम बीज होता है। इसको प्रायः एक निषेचित बीजांड के रूप में वर्णित किया जाता है। बीज फलों के अंदर पैदा होते हैं। एक बीज में विशिष्ट रूप से बीज आवरण, बीजपत्र तथा एक भ्रूण अक्ष (अंकुआ) समाहित होता है। भ्रूण का बीजपत्र एक सरल संरचना होती है। प्रायः आरक्षित आहार भंडारण के कारण फूली हुई एवं स्थूल होती है (जैसा कि लेग्यूम्स में)।
- गैर-एल्बुमिनस बीज (Non-albuminous seeds): इसमें अवशिष्ट भ्रूणपोष नहीं होता है, क्योंकि भ्रूण विकास के दौरान यह पूर्णतः उपभुक्क्त कर लिया जाता है (जैसे - मटर, मूँगफली)।
- एल्बुमिनस बीज (Albuminous seeds): इनमें भ्रूणपोष का कुछ भाग शेष रह जाता है क्योंकि भ्रूण विकास के दौरान इसका पूर्णतः उपभोग नहीं हो पाता है (जैसे कि गेहूँ, मक्का, बाजरा, अरंड आदि)।
कभी-कभार कुछ बीजों में जैसे कि काली मिर्च तथा चुकंदर में बीजांडकाय (न्यूसेलस) भी शेष रह जाता है। अवशिष्ट उपस्थित बीजांडकाय परिभ्रूणपोष (perisperm) होता है। बीजांड (अंडाशय) का अध्यावरण बीज के ऊपर सख्त सुरक्षात्मक आवरण बन जाता है। बीज के आवरण में बीजांडद्वार एक छोटे छिद्र के रूप में रह जाता है। बीज अंकुरण के समय यह ऑक्सीजन एवं जल के प्रवेश को सुगम बनाता है। जैसे-जैसे बीज परिपक्व होता है, उसके अंदर जल की मात्रा घटने लगती है तथा बीज अपेक्षाकृत शुष्क होता जाता है। फलस्वरूप सामान्य चयापचयी क्रिया धीमी पड़ने लगती है।
प्रसुप्ति (Dormancy):
भ्रूण निष्क्रियता की दशा में प्रवेश कर जाता है, जिसे प्रसुप्ति (dormancy) कहते हैं। या यदि अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध (पर्याप्त नमी, आर्द्रता, ऑक्सीजन तथा उपयुक्त तापमान) होती है तो वे अंकुरित हो जाते हैं।
बीज की जीवनक्षमता (survivability) व्यापक रूप से भिन्न होती है। कुछ प्रजातियों में बीज अपनी जीवन क्षमता कुछ महीनों में ही खो देते हैं। बहुसंख्य प्रजातियों के बीज कई वर्षों तक जीवनक्षम रहते हैं। कुछ बीज तो सैकड़ों वर्षों तक जीवित रह सकते हैं। विश्व के प्राचीन जीवन सक्षम बीजों के अनेक रिकार्ड उपलब्ध हैं:
- एक प्राचीन बीज ल्यूपाइन, ल्यूपिनस आर्कटिकस (Lupinus arcticus) है, जिसे आर्कटिक टुंड्रा से खनित किया गया था। एक अनुमानित रिकार्ड 10,000 वर्ष की प्रसुप्ति के बाद बीज अंकुरित एवं पुष्पित हुआ था।
- हाल ही का एक रिकार्ड 2000 वर्ष पुराने खजूर के जीवनक्षम बीज - फीनिक्स डैक्टाइलीफेरा (Phoenix dactylifera) का है जिसे मृत सागर के पास किंग हेराल्ड के महल की पुरातात्विक खुदाई के दौरान खोज पाया गया था।
फल (Fruit):
जैसे-जैसे बीजांड परिपक्व होकर बीज बनते हैं अंडाशय एक फल के रूप में विकसित हो जाता है अर्थात् बीजांड का बीज के रूप में तथा अंडाशय का फल के रूप में रूपांतरण साथ-साथ चलता है। अंडाशय की दीवार, फल की दीवार (छिलके) के रूप में विकसित होती है जिसे फलभित्ति (pericarp) कहते हैं। फल अमरुद, आम, संतरे आदि की भांति गूदेदार हो सकते हैं अथवा मूँगफली, सरसों आदि की भांति शुष्क भी हो सकते हैं。
- अधिकतर फल केवल अंडाशय से विकसित होते हैं और उन्हें यथार्थ या वास्तविक फल (true fruits) कहते हैं।
- कुछेक प्रजातियों में, जैसे कि सेब, स्ट्राबेरी (रसभरी), अखरोट आदि में फल की रचना में पुष्पासन (thalamus) भी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाता है। इस प्रकार के फलों को (मिथ्या) आभासी फल (false fruits) कहते हैं।
- यद्यपि अधिकतर प्रजातियों में फल निषेचन का परिणाम होते हैं, परंतु कुछ ऐसी प्रजातियाँ भी हैं जिनमें बिना निषेचन के फल विकसित होते हैं। ऐसे फलों को अनिषेकजनित फल (parthenocarpic fruits) कहते हैं। इसका एक उदाहरण केला है।
- अनिषेक फलन को वृद्धि हॉर्मोन्स के प्रयोग से प्रेरित किया जा सकता है और इस प्रकार के फल बीज रहित होते हैं।
बीज के लाभ (Advantages of Seeds):
- बीज आवृतबीजियों को अनेक लाभ प्रस्तावित करते हैं।
- जबकि प्रजनन प्रक्रिया जैसे कि परागण एवं निषेचन जल आदि से स्वतंत्र हैं, बीज की रचना काफी निर्भरता पूर्ण है।
- इसके साथ ही बीज नए पर्यावासों में प्रसारण हेतु बेहतर अनुकूलित रणनीतियों से युक्त होते हैं तथा प्रजाति को अन्य क्षेत्रों में बसने में मदद करते हैं।
- जैसा कि इनमें पर्याप्त आरक्षित आहार भंडार होता है, अल्पवयस्क नवोद्भिद तब तक पोषण देते हैं, जब तक कि वह स्वयं ही प्रकाश संश्लेषण न करने लगे।
- युवा भ्रूण को कठोर बीज-आवरण संरक्षण प्रदान करता है।
- लैंगिक जनन का उत्पाद होने की वजह से, ये नवीन जेनेटिक (वंशीय) संपर्क को पैदा करते हैं जो विविधता का रूप लेते हैं।
- बीज हमारी कृषि का आधार है।
- बीज के भंडारण हेतु परिपक्व बीज का निर्जलीकरण एवं प्रसुप्ति बहुत ही महत्वपूर्ण है, जिसे पूरे वर्ष भर खाद्यान्न के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है तथा अगले मौसम के लिए फसल के रूप में उगाया भी जा सकता है।
1.5 असंगजनन एवं बहुभ्रूणता (Apomixis and Polyembryony)
असंगजनन (Apomixis): सामान्य तौर पर बीज निषेचन के परिणाम हैं, कुछेक पुष्पी पादपों जैसे कि एस्ट्रेसी (Asteraceae) तथा घासों ने बिना निषेचन के ही बीज पैदा करने की प्रक्रिया विकसित कर ली है, जिसे असंगजनन कहते हैं। यह अलैंगिक प्रजनन है जो लैंगिक प्रजनन का अनुकारक है।
असंगजननीय बीजों के विकास के सैकड़ों तरीके हैं। कुछ प्रजातियों में द्विगुणित अंडकोशिका का निर्माण बिना अर्धसूत्री विभाजन के होता है, जो बिना निषेचन के ही भ्रूण में विकसित हो जाता है। प्रायः कई अवसरों पर, जैसा कि बहुत सारे नीबू वंश (साइट्रस) तथा आम की किस्मों में भ्रूणकोष (पुटी) के आस पास की कुछ बीजांड कायिक कोशिकाएँ विभाजित होने लगती हैं और भ्रूणकोष में प्रोद्बधी (protrude) होती हैं तथा भ्रूण के रूप में विकसित हो जाती हैं। इस प्रकार की प्रजातियों में प्रत्येक बीजांड में अनेक भ्रूण होते हैं।
बहुभ्रूणता (Polyembryony): एक बीज में एक से अधिक भ्रूण की उपस्थिति को बहुभ्रूणता कहते हैं。
असंगजनन भ्रूणों की आनुवंशिक प्रकृति क्या होगी? क्या उन्हें क्लोन (एकपूर्वजक) कहा जा सकता है? (स्रोत में उत्तर नहीं है, लेकिन प्रश्न पूछा गया है। ये अलैंगिक जनन से बनते हैं, अतः ये अनुवंशिक रूप से जनक पादप के समान होते हैं और क्लोन कहे जा सकते हैं - यह जानकारी स्रोत के बाहर की है, पर समझने के लिए प्रासंगिक है।)
संकर किस्मों की खेती ने उत्पादकता को विस्मयकारी ढंग से बढ़ाया है। संकर बीजों की एक समस्या यह है कि उन्हें हर साल उगाया (पैदा किया) जाना चाहिए। यदि संकर किस्म का संगृहीत बीज को बुआई करके प्राप्त किया गया है तो उसकी पादप संतति पृथक्कृत होगी और वह संकर बीज की विशेषता को यथावत नहीं रख पाएगा।
यदि यह संकर (बीज) असंगजनन से तैयार की जाती है तो संकर संतति में कोई पृथक्करण की विशेषताएँ नहीं होंगी। इसके बाद किसान प्रतिवर्ष फसल-दर-फसल संकर बीजों का उपयोग जारी रख सकते हैं और उसे प्रतिवर्ष संकर बीजों को खरीदने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। संकर बीज उद्योग में असंगजनन की महत्ता के कारण दुनिया भर में, विभिन्न प्रयोगशालाओं में असंगजनन की आनुवंशिकता को समझने के लिए शोध और संकर किस्मों में असंगजनित जीन्स को स्थानांतरित करने पर अध्ययन चल रहे हैं।
अभ्यास (Exercises)
यहाँ अध्याय में दिए गए अभ्यास प्रश्नों के उत्तर स्रोत में दी गई जानकारी के आधार पर प्रस्तुत किए गए हैं:
1. एक आवृतबीजी पुष्प के उन अंगों के नाम बताएँ जहाँ नर एवं मादा युग्मकोद्भिद् का विकास होता है?
- नर युग्मकोद्भिद् (Male Gametophyte): परागकोष में परागकणों के अंदर विकसित होता है।
- मादा युग्मकोद्भिद् (Female Gametophyte): बीजांड के बीजांडकाय में भ्रूणकोष के अंदर विकसित होता है।
2. लघुबीजाणुधानी तथा गुरुबीजाणुधानी के बीच अंतर स्पष्ट करें? इन घटनाओं के दौरान किस प्रकार का कोशिका विभाजन संपन्न होता है? इन दोनों घटनाओं के अंत में बनने वाली संरचनाओं के नाम बताएँ?
- लघुबीजाणुधानी (Microsporangium): यह परागकोष के अंदर होती है। इसमें लघुबीजाणु मातृ कोशिकाएँ होती हैं। इस घटना (लघुबीजाणुजनन) के दौरान अर्धसूत्री विभाजन होता है। इसके अंत में लघुबीजाणु (जो परागकण के रूप में विकसित होते हैं) बनते हैं।
- गुरुबीजाणुधानी (Megasporangium) (बीजांड): यह अंडाशय के अंदर होती है। इसमें गुरुबीजाणु मातृ कोशिका होती है। इस घटना (गुरुबीजाणुजनन) के दौरान अर्धसूत्री विभाजन होता है। इसके अंत में गुरुबीजाणु बनते हैं, जिनमें से एक कार्यशील गुरुबीजाणु भ्रूणकोष (मादा युग्मकोद्भिद्) के रूप में विकसित होता है।
3. निम्नलिखित शब्दावलियों को सही विकासीय क्रम में व्यवस्थित करें: परागकण, बीजाणुजन ऊतक, लघुबीजाणुचतुष्टय, परागमातृ कोशिका, नर युग्मक
सही क्रम: बीजाणुजन ऊतक → परागमातृ कोशिका → लघुबीजाणुचतुष्टय → परागकण → नर युग्मक
- बीजाणुजन ऊतक की कोशिकाएँ परागमातृ कोशिका के रूप में कार्य करती हैं।
- परागमातृ कोशिका अर्धसूत्री विभाजन से लघुबीजाणु चतुष्टय बनाती है।
- लघुबीजाणु चतुष्टय से लघुबीजाणु अलग होकर परागकण बनते हैं।
- परागकण के अंदर जनन कोशिका विभाजित होकर नर युग्मक बनाती है (या तीन कोशीय अवस्था में पहले से ही नर युग्मक होते हैं)।
4. एक प्रारूपिक आवृतबीजी बीजांड के भागों का विवरण दिखाते हुए एक स्पष्ट एवं साफ सुथरा नामांकित चित्र बनाएँ।
चित्र 1-7 (d) में एक प्रारूपिक प्रतीप बीजांड का चित्रात्मक दृश्य दिखाया गया है जिसके मुख्य भाग नामांकित हैं: बीजांडवृंत, नाभिका, बीजांड द्वार, बीजांडद्वारी सिरा, निभाग, अध्यावरण (बाह्य और अंतः आवरण), बीजांडकाय, भ्रूणकोष। (छात्रों को इस चित्र का अभ्यास करना होगा)।
पाठ्यपुस्तक में दिए गए चित्र का संदर्भ लें और अभ्यास करें।
5. आप मादा युग्मकोद्भिद् के एकबीजाणुज विकास से क्या समझते हैं?
अधिकतर पुष्पी पादपों में चार गुरुबीजाणुओं में से केवल एक गुरुबीजाणु कार्यशील होता है जबकि अन्य तीन अविकसित (अपभ्रष्ट) हो जाते हैं। केवल कार्यशील गुरुबीजाणु मादा युग्मकोद्भिद् (भ्रूणकोष) के रूप में विकसित होता है। एक अकेले गुरुबीजाणु से भ्रूणकोष के बनने की विधि को एक-बीजाणुज विकास कहा जाता है।
6. एक स्पष्ट एवं साफ सुथरे चित्र के द्वारा परिपक्व मादा युग्मकोद्भिद् के 7-कोशीय, 8-न्यूक्लिएट (केंद्रक) प्रकृति की व्याख्या करें।
चित्र 1-8 (l) में परिपक्व भ्रूणकोष का एक आरेखीय प्रस्तुतीकरण दिखाया गया है (छात्रों को इस चित्र का अभ्यास करना होगा)।
पाठ्यपुस्तक में दिए गए चित्र का संदर्भ लें और अभ्यास करें।
एक परिपक्व भ्रूणकोष में 8 केंद्रक और 7 कोशिकाएँ होती हैं:
- बीजांडद्वारी सिरे पर अंडोपकरण होता है जिसमें 2 सहाय कोशिकाएँ और 1 अंड कोशिका होती है (कुल 3 कोशिकाएँ)।
- निभाग सिरे पर 3 प्रतिव्यासांत कोशिकाएँ होती हैं (कुल 3 कोशिकाएँ)।
- केंद्र में एक बड़ी केंद्रीय कोशिका होती है जिसमें 2 ध्रुवीय केंद्रक होते हैं (1 कोशिका, 2 केंद्रक)।
कुल कोशिकाएँ = 3 (अंडोपकरण) + 3 (प्रतिव्यासांत) + 1 (केंद्रीय कोशिका) = 7 कोशिकाएँ।
कुल केंद्रक = 3 (अंडोपकरण) + 3 (प्रतिव्यासांत) + 2 (केंद्रीय कोशिका) = 8 केंद्रक।
इस प्रकार, यह 7-कोशीय, 8-केंद्रकीय संरचना होती है।
7. उन्मील परागणी पुष्पों से क्या तात्पर्य है? क्या अनुन्मीलीय पुष्पों में परपरागण संपन्न होता है? अपने उत्तर की सतर्क व्याख्या करें?
- उन्मील परागणी पुष्प (Chasmogamous flowers): ये वे पुष्प होते हैं जिनके परागकोष एवं वर्तिकाग्र खुलते एवं अनावृत होते हैं। ये अन्य प्रजाति के पुष्पों के समान ही होते हैं।
- अनुन्मीलीय पुष्प (Cleistogamous flowers): ये वे पुष्प होते हैं जो कभी भी अनावृत नहीं होते हैं। इन पुष्पों में परागकोष एवं वर्तिकाग्र एक-दूसरे के बिल्कुल नजदीक स्थित होते हैं। जब पुष्प कलिका में परागकोष स्फुजित होते हैं तब परागकण वर्तिकाग्र के संपर्क में आकर परागण को प्रभावित करते हैं।
अनुन्मीलीय पुष्पों में परपरागण संपन्न नहीं होता है। इसका कारण यह है कि ये पुष्प कभी खुलते ही नहीं हैं, जिससे बाहरी परागकण वर्तिकाग्र तक पहुँच ही नहीं पाते हैं और न ही इनके परागकण बाहर जा पाते हैं। ये सदैव स्वयुग्मक होते हैं।
8. पुष्पों द्वारा स्व-परागण रोकने के लिए विकसित की गई दो कार्यनीति का विवरण दें।
अधिकतर पुष्पी पादपों ने स्वपरागण को हतोत्साहित एवं परपरागण को प्रोत्साहित करने के लिए साधन विकसित किए हैं। दो कार्यनीतियाँ (युक्तियाँ) निम्नलिखित हैं:
- पराग अवमुक्ति एवं वर्तिकाग्र ग्राह्यता में असामयिक भिन्नता (Dichogamy): कुछ प्रजातियों में पराग अवमुक्ति एवं वर्तिकाग्र ग्राह्यता समकालिक नहीं होती है। या तो वर्तिकाग्र के तैयार होने से पहले ही पराग अवमुक्त कर दिए जाते हैं (प्रोटोएंड्री) या फिर परागों के झड़ने से काफी पहले ही वर्तिकाग्र ग्राह्य बन जाता है (प्रोटोगैनी)। यह स्वयुग्मन रोकता है।
- परागकोष एवं वर्तिकाग्र की भिन्न स्थिति (Herkogamy): कुछ प्रजातियों में परागकोष एवं वर्तिकाग्र भिन्न स्थानों पर अवस्थित होते हैं, जिससे उसी पुष्प के पराग वर्तिकाग्र के संपर्क में नहीं आ पाते हैं। यह भी स्वयुग्मन रोकता है।
(अन्य युक्तियाँ: स्व-असामंजस्य, एकलिंगी पुष्पों का उत्पादन।)
9. स्व अयोग्यता क्या है? स्व-अयोग्यता वाली प्रजातियों में स्व-परागण प्रक्रिया बीज की रचना तक क्यों नहीं पहुँच पाती है?
स्व-अयोग्यता (Self-incompatibility): यह अंतः प्रजनन रोकने का एक साधन है। यह एक वंशानुगत प्रक्रम है। स्व-अयोग्यता वाली प्रजातियों में, उसी पुष्प या उसी पादप के अन्य पुष्प से आए परागकणों को स्त्रीकेसर द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है। यह अस्वीकृति वर्तिकाग्र पर पराग अंकुरण रोककर या वर्तिका में पराग नलिका वृद्धि रोककर होती है। इस कारण, पराग नलिका बीजांड तक नहीं पहुँच पाती और अंड कोशिका के साथ संलयन (निषेचन) नहीं हो पाता। चूंकि निषेचन नहीं होता, अतः बीज की रचना तक प्रक्रिया नहीं पहुँच पाती।
10. बैगिंग (बोरावस्त्रावरण) या थैली लगाना तकनीक क्या है? पादप जनन कार्यक्रम में यह कैसे उपयोगी है?
बैगिंग (Bagging): यह कृत्रिम संकरण का एक भाग है। विपुंसित पुष्पों या एकलिंगी मादा पुष्पों को उपयुक्त आकार की थैली से आवृत किया जाता है जो सामान्यतः बटर पेपर की बनी होती है। यह तकनीक पादप जनन कार्यक्रम में उपयोगी है क्योंकि यह अवांछित परागों द्वारा वर्तिकाग्र के संदूषण को बचाने में मदद करती है। यह सुनिश्चित करता है कि केवल अपेक्षित (वांछित) परागों का उपयोग परागण के लिए किया जाए, जिससे इच्छित संकर (hybrid) प्राप्त हो सके।
11. त्रि-संलयन क्या है? यह कहाँ और कैसे संपन्न होता है? त्रि-संलयन में सम्मिलित न्यूक्लिआई का नाम बताएँ।
त्रि-संलयन (Triple fusion): यह दोहरे निषेचन का एक भाग है। इसमें दूसरा नर युग्मक केंद्रीय कोशिका में स्थित दो ध्रुवीय न्यूक्लिआई से संगलित होता है। यह भ्रूणकोष के अंदर केंद्रीय कोशिका में संपन्न होता है। पराग नलिका द्वारा अवमुक्त दो नर युग्मकों में से एक केंद्रीय कोशिका की ओर गति करता है और उसमें उपस्थित दो ध्रुवीय न्यूक्लिआई से संलयन करता है।
त्रि-संलयन में सम्मिलित न्यूक्लिआई हैं: एक नर युग्मक तथा दो ध्रुवीय न्यूक्लिआई।
12. एक निषेचित बीजांड में, युग्मनज प्रसुप्ति के बारे में आप क्या सोचते हैं?
एक निषेचित बीजांड में, युग्मनज भ्रूण के रूप में विकसित होता है। अधिकतर युग्मनज तभी विभाजित होते हैं जब कुछ निश्चित सीमा तक भ्रूणपोष विकसित हो जाता है। यह विकासशील भ्रूण को सुनिश्चित पोषण प्रदान करने के लिए होता है। बीज के परिपक्व होने पर, भ्रूण निष्क्रियता की दशा में प्रवेश कर जाता है, जिसे प्रसुप्ति कहते हैं। यह अवस्था तब तक रहती है जब तक अंकुरण के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ (जैसे पर्याप्त नमी, आर्द्रता, ऑक्सीजन, तापमान) उपलब्ध न हों।
अतः, निषेचित बीजांड में युग्मनज की प्रसुप्ति एक अनुकूलन है जो भ्रूण को विकास के लिए पोषण की उपलब्धता (भ्रूणपोष के विकसित होने तक) और प्रतिकूल परिस्थितियों से बचने के लिए विलंबित अंकुरण की अनुमति देता है।
13. इनमें विभेद करें:
(क) बीजपत्राधार और बीजपत्रोपरिक
(ख) प्रांकुर चोल तथा मूलांकुर चोल
(ग) अध्यावरण तथा बीजचोल
(घ) परिभ्रूणपोष एवं फलभित्ति
(क) बीजपत्राधार और बीजपत्रोपरिक
- बीजपत्राधार (Hypocotyl): यह द्विबीजपत्री भ्रूण के भ्रूणीय अक्ष का वह भाग है जो बीजपत्रों के स्तर से नीचे होता है और मूलांत सिरा (मूलज के शीर्षारंत) पर समाप्त होता है। एकबीजपत्री भ्रूण में यह भाग मूल आवरण (कोलियोराइज़ा) के ऊपर होता है।
- बीजपत्रोपरिक (Epicotyl): यह द्विबीजपत्री भ्रूण के भ्रूणीय अक्ष का वह भाग है जो बीजपत्रों के स्तर से ऊपर होता है और प्रांकुर या स्तंभ सिरे पर समाप्त होता है। एकबीजपत्री भ्रूण में यह स्कूटेलम के जुड़ाव के स्तर से ऊपर होता है, इसमें प्ररोह शीर्ष तथा कुछ आद्य पर्ण होते हैं।
(ख) प्रांकुर चोल तथा मूलांकुर चोल
- प्रांकुर चोल (Coleoptile): यह एकबीजपत्री भ्रूण में प्ररोह शीर्ष तथा कुछ आद्य पर्णों को घेरने वाली खोखली-पर्णीय संरचना है।
- मूलांकुर चोल (Coleorhiza): यह एकबीजपत्री भ्रूण में मूलांत सिरा या मूलज तथा मूल आवरण को आवृत करने वाली बिना विभेदित पर्त है।
(ग) अध्यावरण तथा बीजचोल
- अध्यावरण (Integument): यह बीजांड को घेरने वाला सुरक्षात्मक आवरण है। एक या दो अध्यावरण हो सकते हैं। यह बीजांड द्वार को छोड़कर पूरे बीजांड को घेरे रहता है।
- बीजचोल (Seed coat): यह बीज का सख्त सुरक्षात्मक आवरण है। यह बीजांड के अध्यावरणों से विकसित होता है।
(घ) परिभ्रूणपोष एवं फलभित्ति
- परिभ्रूणपोष (Perisperm): यह कुछ बीजों (जैसे काली मिर्च, चुकंदर) में बीजांडकाय (न्यूसेलस) का बचा हुआ अवशिष्ट भाग है जो शेष रह जाता है।
- फलभित्ति (Pericarp): यह फल की दीवार (छिलका) है जो अंडाशय की दीवार से विकसित होती है। यह गूदेदार या शुष्क हो सकती है।
14. एक सेब को आभासी फल क्यों कहते हैं? पुष्प का कौन सा भाग फल की रचना करता है।
अधिकतर फल केवल अंडाशय से विकसित होते हैं और उन्हें वास्तविक फल कहते हैं। लेकिन कुछ प्रजातियों में, जैसे सेब, स्ट्राबेरी, अखरोट आदि में फल की रचना में अंडाशय के अलावा पुष्पासन (thalamus) भी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाता है। चूँकि सेब के फल का मुख्य खाने योग्य भाग पुष्पासन से बनता है (अंडाशय के साथ-साथ), इस प्रकार के फल को आभासी फल (false fruit) कहते हैं।
सामान्यतः पुष्प का अंडाशय भाग फल की रचना करता है (वास्तविक फल के मामले में)।
15. विपुंसन से क्या तात्पर्य है? एक पादप प्रजनक कब और क्यों इस तकनीक का प्रयोग करता है?
विपुंसन (Emasculation): यदि कोई मादा जनक द्विलिंगी पुष्पधारण करता है तो पराग के प्रस्फुटन से पहले पुष्प कलिका से परागकोष को चिमटी की सहायता से निकाल देना विपुंसन कहलाता है।
एक पादप प्रजनक इस तकनीक का प्रयोग कृत्रिम संकरण के कार्यक्रम में करता है। इसका प्रयोग तब किया जाता है जब मादा जनक द्विलिंगी पुष्पों वाला पौधा हो। इसका प्रयोग अवांछित स्व-परागण को रोकने के लिए किया जाता है ताकि केवल इच्छित नर जनक के परागकणों से ही परागण कराया जा सके और वांछित गुणों वाली संकर किस्म प्राप्त हो सके।
16. यदि कोई व्यक्ति वृद्धिकारकों का प्रयोग करते हुए अनिषेक जनन को प्रेरित करता है तो आप प्रेरित अनिषेक जनन के लिए कौन सा फल चुनते और क्यों?
अनिषेकजनित फल वे होते हैं जो बिना निषेचन के विकसित होते हैं और सामान्यतः बीज रहित होते हैं। अनिषेक फलन को वृद्धि हॉर्मोन्स के प्रयोग से प्रेरित किया जा सकता है।
मैं प्रेरित अनिषेक जनन के लिए ऐसे फल को चुनूँगा जिसमें बीज एक समस्या हो या खाने में असुविधाजनक हो, या जिनकी बीज रहित किस्मों की बाज़ार में अधिक मांग हो। उदाहरण के लिए, अंगूर (grapes), तरबूज (watermelon), या संतरा (orange) जैसी किस्मों को चुना जा सकता है जिनमें बीज बहुत सारे होते हैं या खाने में बाधा डालते हैं। इन फलों में अनिषेक जनन प्रेरित करने से बीज रहित फल प्राप्त होंगे, जो खाने में अधिक स्वादिष्ट और सुविधाजनक होंगे। केला एक प्राकृतिक अनिषेकजनित फल का उदाहरण है।
17. परागकण भित्ति रचना में टेपीटम की भूमिका की व्याख्या करें।
टेपीटम लघुबीजाणुधानी की सबसे आंतरिक भित्ति परत होती है। इसकी मुख्य भूमिकाएँ हैं:
- यह विकासशील परागकणों को पोषण देती है।
- टेपीटम की कोशिकाएँ सघन जीवद्रव्य से भरी होती हैं और सामान्यतः एक से अधिक केंद्रकों से युक्त होती हैं।
- यह परत परागकण की बाहरी परत, बाह्यचोल (exine) के निर्माण के लिए आवश्यक पदार्थ (जैसे स्पोरोपोलेनिइन के पूर्ववर्ती) और एंजाइम (जैसे कैलेज़, जो चतुष्क के कैलोज को विघटित करता है) भी प्रदान करती है। (हालांकि स्रोत में सीधे तौर पर टेपीटम द्वारा स्पोरोपोलेनिइन प्रदान करने का विस्तृत उल्लेख नहीं है, यह मानक जानकारी है कि टेपीटम बाह्यचोल के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।)
स्रोत के अनुसार, टेपीटम का मुख्य कार्य विकासशील परागकणों को पोषण देना है।
18. असंगजनन क्या है और इसका क्या महत्व है?
असंगजनन (Apomixis): यह पुष्पी पादपों में (जैसे एस्ट्रेसी और घास) बिना निषेचन के बीज पैदा करने की प्रक्रिया है। यह अलैंगिक प्रजनन का एक प्रकार है जो लैंगिक प्रजनन का अनुकारक दिखता है (क्योंकि बीज बनते हैं)।
महत्व:
- संकर किस्मों की खेती उत्पादकता बढ़ाती है। संकर बीजों को हर साल खरीदना पड़ता है क्योंकि संग्रहित बीज से उगाई गई संतति में गुण पृथक्कृत हो जाते हैं, जिससे संकर गुण समाप्त हो जाते हैं।
- यदि संकर बीज असंगजनन से तैयार किए जाते हैं, तो संकर संतति में कोई पृथक्करण नहीं होगा, क्योंकि वे आनुवंशिक रूप से मातृ पौधे के समान होंगे।
- इससे किसान प्रतिवर्ष फसल-दर-फसल संकर बीजों का उपयोग जारी रख सकते हैं और उन्हें हर साल संकर बीजों को खरीदने की आवश्यकता नहीं होगी।
- इस प्रकार, असंगजनन संकर बीज उद्योग में बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह संकर किस्मों के बीजों को आर्थिक रूप से किसानों के लिए अधिक सुलभ और टिकाऊ बना सकता है।
सारांश (Summary)
- पुष्प आवृत बीजी पौधों में लैंगिक जनन के आधार हैं।
- पुष्पों में पुमंग (पुंकेसर) नर जनन अंग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि जायांग (स्त्रीकेसर) मादा जनन अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- एक प्रारूपिक परागकोष द्विपालित, द्विकोष्ठी तथा चतुष् बीजाणुधानी होता है।
- परागकण लघुबीजाणुधानी के अंदर विकसित होते हैं। लघुबीजाणुधानी चार भित्ति पर्तों (बाह्यत्वचा, अंतस्थीसियम, मध्य पर्त और टेपीटम) से आवृत होती है।
- बीजाणुजन ऊतक की कोशिकाएँ लघुबीजाणुधानी के केंद्र में स्थित होती हैं और अर्धसूत्री विभाजन से गुजरते हुए लघुबीजाणुओं की रचना करती हैं।
- प्रत्येक लघुबीजाणु परागकण के रूप में विकसित होता है, जो नर युग्मकजन पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है।
- परागकण में दो भित्तियाँ होती हैं - बाहरी बाह्यचोल (स्पोरोपोलेनिइन युक्त, जनन छिद्रों के साथ) और आंतरिक अंतःचोल (सेलुलोज और पेक्टिन की बनी)।
- परागकण में अवमुक्ति के समय दो कोशिकाएँ (कायिक और जनन) या तीन कोशिकाएँ (एक कायिक और दो नर युग्मक) हो सकती हैं।
- स्त्रीकेसर में तीन अंग होते हैं - वर्तिकाग्र, वर्तिका तथा अंडाशय। अंडाशय में बीजांड होते हैं।
- बीजांड में बीजांडवृंत, दो सुरक्षात्मक अध्यावरण तथा एक बीजांड द्वार होता है। बीजांडकाय में गुरुबीजाणु मातृ कोशिका अर्धसूत्री विभाजन से विभाजित होकर गुरुबीजाणु बनाती है।
- एक गुरुबीजाणु भ्रूणकोष (मादा युग्मकोद्भिद्) के रूप में विकसित होता है।
- एक परिपक्व भ्रूणकोष 7-कोशीय एवं 8-केंद्रकीय होता है। बीजांड द्वार सिरे पर अंडोपकरण में दो सहाय कोशिकाएँ तथा एक अंड कोशिका होती है। निभाग छोर पर तीन प्रतिव्यासांत होती हैं। केंद्र में दो ध्रुवीय केंद्रक के साथ एक वृहद् केंद्रीय कोशिका होती है।
- परागण एक प्रक्रम है जिसमें परागकण परागकोष से वर्तिकाग्र तक स्थानांतरित होते हैं। परागण कारक अजीवीय (हवा, पानी) या जीवीय (प्राणी) हो सकते हैं।
- पराग-स्त्रीकेसर संकर्षण में परागकण के वर्तिकाग्र पर झड़ने से लेकर भ्रूणकोष में परागनलिका के प्रवेश तक की सभी घटनाएँ शामिल हैं।
- आवृतबीजी दोहरा निषेचन प्रदर्शित करते हैं क्योंकि प्रत्येक भ्रूणकोष में दो संलयन (युग्मक संलयन और त्रिसंलयन) होते हैं।
- युग्मक संलयन से द्विगुणित युग्मनज बनता है।
- त्रिसंलयन से त्रिगुणित प्राथमिक भ्रूणपोष केंद्रक बनता है।
- युग्मनज भ्रूण के रूप में तथा प्राथमिक भ्रूणपोष कोशिका भ्रूणपोष ऊतक के रूप में विकसित होते हैं।
- भ्रूणपोष का निर्माण सदैव भ्रूण के विकास को आगे बढ़ाता है।
- विकासशील भ्रूण कई चरणों से गुजरता है, जैसे प्राक्भ्रूण, गोलाकार, हृदयाकार और परिपक्व भ्रूण।
- परिपक्व द्विबीजपत्री भ्रूण में दो बीजपत्र तथा प्रांकुरचोल सहित एक भ्रूणीय अक्ष तथा बीजपत्राधार होता है। एक बीजपत्री भ्रूण में एक अकेला बीजपत्र (स्कूटेलम) होता है।
- निषेचन के बाद, अंडाशय फल के रूप में तथा बीजांड बीज के रूप में विकसित होता है।
- असंगजनन कुछ आवृतबीजियों (विशेषकर घास कुल) में बिना निषेचन के बीज रचना का परिणाम है। इसका बागवानी एवं कृषि विज्ञान में लाभ है।
- कुछ आवृतबीजी अपने बीज में एक से अधिक भ्रूण उत्पन्न करते हैं। इस घटना को बहुभ्रूणता कहा जाता है।
यह सामग्री NCERT पाठ्यपुस्तक पर आधारित है और केवल शैक्षिक उद्देश्यों के लिए है।
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