बदलती हुई सांस्कृतिक परंपराएँ: स्व-अध्ययन नोट्स
अध्याय का परिचय
यह अध्याय मुख्य रूप से चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोप में आए महत्वपूर्ण सांस्कृतिक बदलावों पर केंद्रित है। इस दौरान शहरों का विकास हुआ, ज्ञान और कला के नए केंद्र बने, और इतिहास, मनुष्य और ब्रह्मांड को देखने का नजरिया बदला। मानवतावाद, मुद्रण क्रांति, और धार्मिक सुधार (प्रोटेस्टेंट सुधारवाद) जैसे आंदोलनों ने यूरोप की सांस्कृतिक और बौद्धिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित किया। इस अध्याय में इन बदलावों और उनके प्रभावों का विस्तृत अध्ययन किया गया है।
1. नगरीय संस्कृति का विकास
- चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक यूरोप के कई देशों में शहरों की संख्या बढ़ रही थी।
- शहरों में एक खास तरह की 'नगरीय संस्कृति' विकसित हो रही थी।
- शहरों के लोग सोचने लगे थे कि वे गाँव के लोगों से ज्यादा 'सभ्य' हैं।
- शहर, खासकर फ्लोरेंस, वेनिस और रोम, कला और विद्या के प्रमुख केंद्र बन गए।
- शहरों को राजाओं और चर्च से थोड़ी-बहुत स्वायत्तता (autonomy) मिली थी।
- शहर कला और ज्ञान के केंद्र बन गए थे।
- अमीर और अभिजात वर्ग के लोग कलाकारों और लेखकों के आश्रयदाता (patrons) थे।
2. इतिहास की बदलती समझ और मानवतावाद का उदय
- इस समय मुद्रण (printing) के आविष्कार से छपी हुई किताबें दूर-दराज के शहरों या देशों में रहने वाले अनेक लोगों को उपलब्ध होने लगीं।
- यूरोप में इतिहास की समझ विकसित होने लगी, और लोग अपने 'आधुनिक विश्व' की तुलना यूनानी व रोमन 'प्राचीन दुनिया' से करने लगे थे।
- चर्च के पृथ्वी के केंद्र संबंधी विश्वासों को वैज्ञानिकों ने गलत साबित कर दिया, क्योंकि वे अब सौर-मंडल (solar system) को समझने लगे थे।
- नवीन भौगोलिक ज्ञान ने इस विचार को उलट दिया कि भूमध्यसागर विश्व का केंद्र है।
- जैकब बर्खार्ट (Jacob Burckhardt, 1818-97) जैसे इतिहासकार ने इन बदलावों पर बहुत अधिक बल दिया।
- बर्खार्ट जर्मन इतिहासकार लियोपोल्ड वॉन रांके (Leopold von Ranke, 1795-1886) के विद्यार्थी थे।
- रांके का मानना था कि इतिहासकार का पहला उद्देश्य राज्यों और राजनीति के बारे में लिखना है, जिसके लिए वह सरकारी कागजात और फाइलों का उपयोग करे।
- बर्खार्ट अपने गुरु के सीमित लक्ष्यों से असंतुष्ट थे। उनके अनुसार, इतिहास-लेखन में राजनीति ही सब कुछ नहीं है; इतिहास का सरोकार संस्कृति से उतना ही है जितना राजनीति से।
- 1860 में बर्खार्ट ने 'द सिविलाइजेशन ऑफ द रेनेसां इन इटली' नामक पुस्तक की रचना की। इसमें उन्होंने पाठकों का ध्यान साहित्य, वास्तुकला और चित्रकला की ओर आकर्षित किया और बताया कि चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक इटली के नगरों में एक 'मानवतावादी' संस्कृति कैसे पनप रही थी।
- यह संस्कृति इस नए विश्वास पर आधारित थी कि व्यक्ति अपने बारे में खुद निर्णय लेने और अपनी दक्षता को आगे बढ़ाने में समर्थ है। ऐसा व्यक्ति 'आधुनिक' था, जबकि 'मध्यकालीन मानव' पर चर्च का नियंत्रण था।
- मानवतावाद (Humanism) नामक नई संस्कृति को उन्नीसवीं शताब्दी के इतिहासकारों ने यह नाम दिया।
- पंद्रहवीं शताब्दी की शुरुआत के दशकों में 'मानवतावादी' शब्द उन अध्यापकों के लिए प्रयुक्त होता था जो व्याकरण, अलंकारशास्त्र, कविता, इतिहास और नीतिदर्शन विषय पढ़ाते थे।
- लैटिन शब्द 'ह्यूमेनीटास' (Humanitas), जिससे 'ह्यूमेनिस्ट' शब्द बना है, को कई शताब्दियों पहले रोम के वकील तथा निबंधकार सिसरो (Cicero, 106-43 ईसा पूर्व) ने 'संस्कृति' के अर्थ में लिया था।
- ये विषय धार्मिक नहीं थे, बल्कि उस कौशल पर बल देते थे जो व्यक्ति चर्चा और वाद-विवाद से विकसित करता है।
- मानवतावादी समझते थे कि वे अंधकार की कई शताब्दियों बाद सभ्यता के सही रूप को पुनः स्थापित कर रहे हैं। इसके पीछे यह मान्यता थी कि रोमन साम्राज्य के टूटने के बाद 'अंधकार युग' शुरू हुआ।
- मानवतावादियों और बाद के विद्वानों ने बिना प्रश्न उठाए मान लिया कि यूरोप में चौदहवीं शताब्दी के बाद 'नए युग' का जन्म हुआ।
- 'मध्यकाल' (Middle Ages) जैसी संज्ञाओं का प्रयोग रोम साम्राज्य के पतन के बाद एक हजार वर्ष की समयावधि के लिए किया गया। उनका तर्क था कि 'मध्ययुग' में चर्च ने लोगों की सोच को इस तरह जकड़ रखा था कि यूनान और रोमवासियों का समस्त ज्ञान उनके दिमाग से निकल चुका था।
- मानवतावादियों ने 'आधुनिक' शब्द का प्रयोग पंद्रहवीं शताब्दी से शुरू होने वाले काल के लिए किया।
कालक्रम (Periodisation):
काल | अवधि |
---|---|
मध्य युग | 5-14 शताब्दी |
अंधकार युग | 5-9 शताब्दी |
आरम्भिक मध्य युग | 9-11 शताब्दी |
उत्तर मध्य युग | 11-14 शताब्दी |
आधुनिक युग | 15 शताब्दी से |
हाल के इतिहासकारों ने इस काल विभाजन पर सवाल उठाया है, खासकर किसी काल को 'अंधकार युग' कहना अनुचित माना गया है।
3. इतालवी शहरों का पुनरुत्थान और नागरिकता
- पश्चिम रोम साम्राज्य के पतन के बाद इटली के राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्रों का विनाश हो गया। इस समय कोई भी एकीकृत सरकार नहीं थी, और रोम का पोप समस्त यूरोपीय राजनीति में इतना मजबूत नहीं था।
- बाईज़ेंटाइन साम्राज्य और इस्लामी देशों के बीच व्यापार बढ़ने से इटली के तटवर्ती बंदरगाह पुनर्जीवित हो गए।
- बारहवीं शताब्दी से जब मंगोलों ने चीन के साथ 'रेशम-मार्ग' (Silk Road) से व्यापार आरम्भ किया, तो इससे पश्चिमी यूरोपीय देशों के व्यापार को बढ़ावा मिला। इसमें इटली के नगरों ने मुख्य भूमिका निभाई।
- अब इतालवी शहर अपने को एक शक्तिशाली साम्राज्य के अंग के रूप में ही नहीं देखते थे, बल्कि स्वतंत्र नगर-राज्यों (independent city-states) का एक समूह मानते थे।
- नगरों में फ्लोरेंस और वेनिस गणराज्य (republics) थे, और कई अन्य दरबारी-नगर (court-cities) थे जिनका शासन राजकुमार चलाते थे।
- इनमें सर्वाधिक जीवंत शहरों में पहला वेनिस और दूसरा जिनेवा था।
- ये शहर यूरोप के अन्य क्षेत्रों से इस दृष्टि से अलग थे कि यहाँ पर धर्माधिकारी और सामंत वर्ग राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली नहीं थे।
- नगर के धनी व्यापारी और महाजन (bankers) नगर के शासन में सक्रिय रूप से भाग लेते थे, जिससे नागरिकता (citizenship) की भावना पनपने लगी।
- यहाँ तक कि जब इन नगरों का शासन सैनिक तानाशाहों के हाथ में रहा, तब भी इन नगरों के निवासी अपने को यहाँ का नागरिक कहने में गर्व का अनुभव करते थे।
नागरिकता पर विचार:
नागरिक वर्ग में सामान्य जनता को शामिल न करने के संबंध में तर्क दिए गए, क्योंकि जहाँ आम जनता का प्रभाव होता है, वहाँ गड़बड़ियाँ और जन उपद्रव होते रहते हैं। कुछ लोगों का कहना था कि शासन अधिक कुशलता से चलाने के लिए योग्यता और संपन्नता को आधार बनाना चाहिए। हालांकि, दूसरे विचार के अनुसार, सच्चरित्र नागरिक जिनका लालन-पालन उदार वातावरण में होता है, वे अक्सर निर्धन हो जाते हैं। बुद्धिमान पूर्वजों ने सार्वजनिक नियम बदलकर धन-संपन्नता को आधार न बनाकर कुलीन वंशीय लोगों को प्राथमिकता देने का विचार रखा। हालांकि, शर्त यह थी कि केवल उच्च अभिजात वंशीय लोग ही सत्ता में न रहें। गरीब लोगों को छोड़कर सभी नागरिकों का प्रतिनिधित्व सत्ता में होना चाहिए: चाहे वे अभिजात वंशीय हों या वे लोग जो अपने विशिष्ट गुणों के कारण उदात्त हों। इन सभी को सरकार चलाने का अधिकार मिलना चाहिए।
4. कला, यथार्थवाद और विज्ञान
- मानवतावादी विचारों को फैलाने में कला, वास्तुकला और ग्रंथों ने प्रभावी भूमिका निभाई।
- नए कलाकारों को पुराने कलाकारों द्वारा बनाए गए चित्रों के अध्ययन से प्रेरणा मिली।
- रोमन संस्कृति के भौतिक अवशेषों (ruins) की उतनी ही उत्सुकता के साथ खोज की गई, जितनी कि अतीत के प्राचीन ग्रंथों की।
- प्राचीन रोम और उसके उजड़े नगरों के खंडहरों में कलात्मक वस्तुएँ मिलीं।
- कई शताब्दियों पहले बनी आदमी और औरतों की 'संतुलित' मूर्तियों के प्रति आदर ने इतालवी वास्तुविदों को उस परंपरा को कायम रखने के लिए प्रोत्साहित किया।
- 1416 में दोनातेल्लो (Donatello, 1386–1466) ने सजीव मूर्तियाँ बनाकर नई परंपरा कायम की।
- कलाकारों द्वारा हूबहू मूल आकृति जैसी मूर्तियाँ बनाने की चाह को वैज्ञानिकों के कार्यों से सहायता मिली।
- नर-कंकालों का अध्ययन करने के लिए कलाकार आयुर्विज्ञान कॉलेजों की प्रयोगशालाओं में गए।
- बेल्जियम मूल के आंद्रेयस वेसेलियस (Andreas Vesalius, 1514-64) पादुआ विश्वविद्यालय में आयुर्विज्ञान के प्राध्यापक थे। ये पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सूक्ष्म परीक्षण के लिए मनुष्य के शरीर की चीर-फाड़ (dissection) की। इसी समय से आधुनिक शरीर-क्रिया विज्ञान (Physiology) का आरम्भ हुआ।
- अल्बर्ट ड्यूरर (Albrecht Durer, 1471-1528) ने कहा: "कला प्रकृति में रची-बसी होती है। जो इसके सार को पकड़ सकता है, वही इसे प्राप्त कर सकता है... इसके अतिरिक्त, आप अपनी कला को गणित द्वारा दिखा सकते हैं। जिंदगी की अपनी आकृति से आपकी कृति जितनी जुड़ी होगी, उतना ही सुंदर आपका चित्र होगा। कोई भी आदमी केवल अपनी कल्पना मात्र से एक सुंदर आकृति नहीं बना सकता, जब तक उसने अपने मन को जीवन की प्रतिछवि से न भर लिया हो"।
- चित्रकारों के लिए नमूने के तौर पर प्राचीन कृतियाँ नहीं थीं। लेकिन मूर्तिकारों की तरह उन्होंने यथार्थ चित्र बनाने की कोशिश की।
- उन्हें अब यह मालूम हो गया था कि रेखागणित (geometry) के ज्ञान से चित्रकार अपने परिदृश्य (perspective) को ठीक तरह से समझ सकता है, तथा प्रकाश के बदलते गुणों का अध्ययन करने से उनके चित्रों में त्रि-आयामी (three-dimensional) प्रभाव आ सकता है।
- फिलिप्पो ब्रुनेलेस्की (Philippo Brunelleschi, 1337-1446), जिन्होंने फ्लोरेंस के भव्य गुम्बद (Duomo) का परिरूप प्रस्तुत किया था, ने अपना पेशा एक मूर्तिकार के रूप में शुरू किया था।
- इस काल में एक और अनोखा बदलाव आया। अब कलाकार की पहचान उसके नाम से होने लगी, न कि पहले की तरह उसके संघ या श्रेणी (guild) के नाम से।
विज्ञान और दर्शन – अरबों का योगदान
- पूरे मध्यकाल में ईसाई गिरजाघरों और मठों के विद्वान यूनानी और रोमन विद्वानों की कृतियों से परिचित थे, पर इन लोगों ने इनका प्रचार-प्रसार नहीं किया।
- चौदहवीं शताब्दी में अनेक विद्वानों ने प्लेटो और अरस्तु के ग्रंथों के अनुवादों को पढ़ना शुरू किया। इसके लिए वे अरबी अनुवादकों के ऋणी थे, जिन्होंने अतीत की पांडुलिपियों का संरक्षण और अनुवाद सावधानीपूर्वक किया था। (अरबी भाषा में प्लेटो, अफलातून और एरिस्टोटिल, अरस्तु नाम से जाने जाते थे)।
- जबकि एक ओर यूरोप के विद्वान यूनानी ग्रंथों के अरबी अनुवादों का अध्ययन कर रहे थे, दूसरी ओर यूनानी विद्वान अरबी और फारसी विद्वानों की कृतियों को अन्य यूरोपीय लोगों के बीच प्रसार के लिए अनुवाद कर रहे थे।
- ये ग्रंथ प्राकृतिक विज्ञान, गणित, खगोल विज्ञान (astronomy), औषधि विज्ञान और रसायन विज्ञान से संबंधित थे।
- टॉलेमी के अलमजेस्ट (खगोल शास्त्र पर रचित ग्रंथ) में अरबी भाषा के विशेष उपपद 'अल' का उल्लेख है, जो कि यूनानी और अरबी भाषा के बीच रहे संबंधों को दर्शाता है।
- मुसलमान लेखकों, जिन्हें इतालवी दुनिया में ज्ञानी माना जाता था, में अरबी के हकीम और मध्य एशिया के बुखारा के दार्शनिक इब्न-सिना (Ibn Sina - लैटिन में एविसिना 980-1037) और आयुर्विज्ञान विश्वकोश के लेखक अल-राज़ी (रेज़ेस) सम्मिलित थे।
- स्पेन के अरबी दार्शनिक इब्न रुश्द (Ibn Rushd - लैटिन में एवर्रोस 1126-98) ने दार्शनिक ज्ञान (फलसफा) और धार्मिक विश्वासों के बीच रहे तनावों को सुलझाने की चेष्टा की। उनकी पद्धति को ईसाई चिंतकों द्वारा अपनाया गया।
- मानवतावादी विषय धीरे-धीरे स्कूलों में पढ़ाए जाने लगे, न सिर्फ इटली में, बल्कि यूरोप के अन्य देशों में भी।
- इस काल के स्कूल लड़कों के लिए ही थे।
5. प्रथम मुद्रित पुस्तकें
- यदि दूसरे देशों के लोग महान कलाकारों द्वारा रचित चित्र, मूर्तियाँ या भवन देखना चाहते थे, तो उन्हें इटली की यात्रा करनी पड़ती थी। किंतु साहित्य इटली से विदेशों तक पहुँचा।
- यह सब सोलहवीं शताब्दी की क्रांतिकारी मुद्रण प्रौद्योगिकी (printing technology) की दक्षता की वजह से हुआ।
- इसके लिए यूरोपीय लोग मुद्रण प्रौद्योगिकी के लिए चीनियों के, तथा मंगोल शासकों के ऋणी रहे, क्योंकि यूरोपीय व्यापारी और राजनयिक मंगोल शासकों के राज-दरबार में अपनी यात्राओं के दौरान इस तकनीक से परिचित हुए थे। (ऐसा ही अन्य तीन प्रमुख तकनीकी नवीकरणों – आग्नेयास्त्र, कंपास और फलक (एबेकस) के विषय में भी हुआ)।
- इससे पहले किसी ग्रंथ की कुछ ही हस्तलिखित प्रतियाँ होती थीं।
- सन 1455 में जर्मन मूल के जोहानेस गुटेनबर्ग (Johennes Gutenberg, 1400-58), जिन्होंने पहले छापेखाने का निर्माण किया, उनकी कार्यशाला में बाइबिल की 150 प्रतियाँ छपीं। इससे पहले, इतने ही समय में एक धर्मभिक्षु (Monk) बाइबिल की केवल एक ही प्रति लिख पाता था।
- छपी हुई किताबें उपलब्ध होने लगीं और उन्हें खरीदना संभव हो गया, जिससे छात्रों को केवल अध्यापकों के व्याख्यानों से बने नोट पर निर्भर नहीं रहना पड़ा।
- अब विचार, मत और जानकारी पहले की अपेक्षा तेजी से प्रसारित हुए।
- एक मुद्रित पुस्तक कई सौ पाठकों के पास बहुत जल्दी पहुँच सकती थी।
- अब पाठक एकांत में बैठकर पुस्तकों को पढ़ सकता था, क्योंकि वह उन्हें बाजार से खरीद सकता था। इससे लोगों में पढ़ने की आदत का विकास हुआ।
- पंद्रहवीं शताब्दी के अंत से इटली की मानवतावादी संस्कृति का आल्प्स पर्वत के पार बहुत तेजी से फैलने का मुख्य कारण वहाँ पर छपी हुई पुस्तकों का वितरण था।
6. मनुष्य की एक नई संकल्पना
- मानवतावादी संस्कृति की विशेषताओं में से एक था मानव जीवन पर धर्म का नियंत्रण कमजोर होना।
- इटली के निवासी भौतिक संपत्ति, शक्ति और गौरव से बहुत ज्यादा आकर्षित थे। परंतु ये जरूरी नहीं कि वे अधार्मिक थे।
- वेनिस निवासी मानवतावादी फ्रेंचेस्को बरबारो (Francesco Barbaro) विश्वास करते थे कि इतिहास का अध्ययन मनुष्य को पूर्णतया जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करता है। उन्होंने अपनी पुस्तक 'ऑनप्लेज़र' में भोग-विलास पर लगाई गई ईसाई धर्म की निषेधाज्ञा की आलोचना की।
- इस समय लोगों में अच्छे व्यवहारों के प्रति दिलचस्पी थी - व्यक्ति को किस तरह विनम्रता से बोलना चाहिए, कैसे कपड़े पहनने चाहिए, और एक सभ्य व्यक्ति को किसमें दक्षता हासिल करनी चाहिए।
- मानवतावाद का मतलब यह भी था कि व्यक्ति विशेष सत्ता और दौलत की होड़ को छोड़कर अन्य कई माध्यमों से अपने जीवन को रूप दे सकता था।
- यह आदर्श इस विश्वास से घनिष्ठ रूप से जुड़ा था कि मनुष्य का स्वभाव बहुमुखी (multifaceted) है, जो कि तीन भिन्न-भिन्न वर्गों (three orders) जिनमें सामंती समाज विश्वास करता था, के विरुद्ध गया।
- निकोलों मैकियावेली (Niccolo Machiavelli) अपने ग्रंथ 'द प्रिंस' (The Prince, 1513) के पंद्रहवें अध्याय में मनुष्य के स्वभाव के बारे में लिखते हैं। वे विभिन्न गुणों का वर्णन करते हैं जिनके कारण मनुष्यों की प्रशंसा या निंदा होती है (जैसे दानी/कंजूस, हितैषी/लोभी, निर्दयी/दयालु, अविश्वसनीय/विश्वसनीय, आदि)।
- मैकियावेली मानते थे कि "सभी मनुष्य बुरे हैं, और वे अपनी दुष्ट स्वभाव को प्रदर्शित करने में सदैव तत्पर रहते हैं, क्योंकि कुछ हद तक मनुष्य की इच्छाएँ अपूर्ण रह जाती हैं"।
- मैकियावेली ने देखा कि इसके पीछे प्रमुख कारण यह है कि मनुष्य अपने समस्त कार्यों में अपना स्वार्थ देखता है।
7. महिलाओं की आकांक्षाएँ
- व्यक्तिगतता (individuality) और नागरिकता के नए विचारों से महिलाओं को दूर रखा गया।
- सार्वजनिक जीवन में अभिजात व संपन्न परिवार के पुरुषों का प्रभुत्व था, और घर-परिवार के मामले में भी वे ही निर्णय लेते थे।
- लोग अपने लड़कों को ही शिक्षा देते थे ताकि वे बाद में उनके खानदानी पेशे या जीवन की आम जिम्मेदारियों को उठा सकें।
- विवाह में प्राप्त महिलाओं के दहेज को वे अपने पारिवारिक कारोबारों में लगा देते थे, तथापि महिलाओं को यह अधिकार नहीं था कि वे अपने पति को कारोबार चलाने के बारे में कोई राय दें।
- अक्सर कारोबारी मैत्री को सुदृढ़ करने के लिए दो परिवारों में आपस में विवाह संबंध होते थे।
- अगर पर्याप्त दहेज का प्रबंध नहीं हो पाता था, तो शादीशुदा लड़कियों को ईसाई मठों में भिक्षुणी (Nun) का जीवन बिताने के लिए भेज दिया जाता था।
- आम तौर पर सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी बहुत सीमित थी, और उन्हें घर-परिवार को चलाने वाले के रूप में देखा जाता था।
- व्यापारी परिवारों में महिलाओं की स्थिति कुछ भिन्न थी।
- दुकानदारों की स्त्रियाँ दुकानों को चलाने में अक्सर उनकी सहायता करती थीं।
- व्यापारी और साहूकार परिवारों की पत्नियाँ परिवार के कारोबार को उस स्थिति में सँभालती थीं, जब उनके पति लंबे समय के लिए दूर-दराज स्थानों को व्यापार के लिए जाते थे।
- अभिजात संपन्न परिवारों के विपरीत, व्यापारी परिवारों में यदि व्यापारी की कम आयु में मृत्यु हो जाती थी, तो उसकी पत्नी सार्वजनिक जीवन में बड़ी भूमिका निभाने के लिए बाध्य होती थी।
- कुछ महिलाएँ बौद्धिक रूप से बहुत रचनात्मक थीं और मानवतावादी शिक्षा की भूमिका के बारे में संवेदनशील थीं।
- वेनिस निवासी कसांद्रा फेदेले (Cassandra Fedele, 1465-1558) ने लिखा: "यद्यपि महिलाओं को शिक्षा न तो पुरस्कार देती है, न किसी सम्मान का आश्वासन, तथापि प्रत्येक महिला को सभी प्रकार की शिक्षा को प्राप्त करने की इच्छा रखनी चाहिए, और उसे ग्रहण करना चाहिए"।
- उन्होंने तत्कालीन इस विचारधारा को चुनौती दी कि एक मानवतावादी विद्वान के गुण एक महिला के पास नहीं हो सकते। फेदेले का नाम यूनानी और लातिन भाषा के विद्वान के रूप में विख्यात था। उन्हें पादुआ विश्वविद्यालय में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया था।
- फेदेले की रचनाओं से यह बात सामने आती है कि इस काल में सब लोग शिक्षा को बहुत महत्व देते थे।
- वे वेनिस की अनेक लेखिकाओं में से एक थीं जिन्होंने गणराज्य की आलोचना "स्वतंत्रता की एक बहुत सीमित परिभाषा निर्धारित करने के लिए की, जो महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों की इच्छा का ज्यादा समर्थन करती थी"।
- इस काल की एक अन्य प्रतिभाशाली महिला मंतुआ की माचिसा ईसाबेला दि इस्ते (Isabella d’ Este, 1474-1539) थीं। उन्होंने अपने पति की अनुपस्थिति में अपने राज्य पर शासन किया।
- महिलाओं की रचनाएँ उनके इस दृढ़ विश्वास का पता चलता है कि उन्हें पुरुष-प्रधान समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए अधिक आर्थिक स्वायत्तता (economic autonomy), संपत्ति और शिक्षा मिलनी चाहिए।
- लेखक और कूटनीतिज्ञ, बालथासार कास्टिल्योन (Balthasar Castiglione) ने अपनी पुस्तक 'द कोर्टियर' (The Courtier, 1528) में महिलाओं के बारे में लिखा है।
- उनके विचार से, एक महिला अपने तौर-तरीके, व्यवहार, बातचीत, भाव-भंगिमा और छवि में पुरुष के सदृश नहीं होनी चाहिए।
- जैसे पुरुषों को हट्टा-कट्टा और पौरुष-संपन्न होना चाहिए, उसी तरह एक स्त्री के लिए अच्छा है कि उसमें कोमलता और सहृदयता हो, एक स्त्रीयोचित मधुरता का आभास उसके हर हाव-भाव में हो। ये सारे गुण उसे हर हाल में एक स्त्री के रूप में ही दिखाएँ, न कि किसी पुरुष के सदृश।
- वे मानते थे कि मस्तिष्क के कुछ ऐसे गुण हैं जो महिलाओं के लिए उतने ही आवश्यक हैं जितने कि पुरुष के लिए, जैसे अच्छे कुल का होना, दिखावे का परित्याग करना, सहज रूप से शालीन होना, आचरणवान, चतुर और बुद्धिमान होना, गर्वी, ईर्ष्यालु, कटु और उद्दंड न होना।
8. ईसाई धर्म के अंतर्गत वाद-विवाद: सुधारवाद
- व्यापार, सरकार, सैनिक विजय और कूटनीतिक संपर्कों के कारण इटली के नगरों और राजदरबारों के दूर-दूर के देशों से संपर्क स्थापित हुए। नई संस्कृति की शिक्षित और समृद्धिशाली लोगों द्वारा प्रशंसा ही नहीं की गई, वरन् उसको अपनाया भी गया।
- परंतु इन नए विचारों में से कुछ ही आम आदमी तक पहुँच सके, क्योंकि वे साक्षर नहीं थे।
- पंद्रहवीं और आरम्भिक सोलहवीं शताब्दियों में उत्तरी यूरोप के विश्वविद्यालयों के अनेक विद्वान मानवतावादी विचारों की ओर आकर्षित हुए।
- अपने इतालवी सहकर्मियों की तरह उन्होंने भी यूनान और रोम के क्लासिक ग्रंथों और ईसाई धर्मग्रंथों के अध्ययन पर अधिक ध्यान दिया।
- इटली के विपरीत, जहाँ पेशेवर विद्वान मानवतावादी आंदोलन पर हावी रहे, उत्तरी यूरोप में मानवतावाद ने ईसाई चर्च के अनेक सदस्यों को आकर्षित किया।
- उन्होंने ईसाइयों को अपने पुराने धर्मग्रंथों में बताए गए तरीकों से धर्म का पालन करने का आह्वान किया। साथ ही उन्होंने अनावश्यक कर्मकांडों को त्यागने की बात कही और उनकी निंदा की कि उन्हें एक सरल धर्म में बाद में जोड़ा गया है।
- मानव के बारे में उनका दृष्टिकोण बिल्कुल नया था, क्योंकि वे उसे एक मुक्त विवेकपूर्ण कर्ता (free rational agent) समझते थे।
- वे एक दूरवर्ती ईश्वर (distant God) में विश्वास रखते थे और मानते थे कि उसने मनुष्य बनाया है, लेकिन उसे अपना जीवन मुक्त रूप से चलाने की पूरी आजादी भी दी है। वे यह भी मानते थे कि मनुष्य को अपनी खुशी इसी विश्व में वर्तमान में ही ढूंढनी चाहिए।
- ईसाई मानवतावादी, जैसे कि इंग्लैंड के टॉमस मोर (Thomas More, 1478-1535) और हॉलैंड के इरेसमस (Erasmus, 1466-1536), का यह मानना था कि चर्च एक लालची और साधारण लोगों से बात-बात पर लूट-खसोट करने वाली संस्था बन गई है।
- पादरियों का लोगों से धन ठगने का सबसे सरल तरीका 'पाप-स्वीकारोक्ति' (indulgences) नामक दस्तावेज था, जो व्यक्ति को उसके सारे किए गए पापों से छुटकारा दिला सकता था।
- ईसाइयों को बाइबिल के स्थानीय भाषाओं में छपे अनुवाद से यह ज्ञात हो गया कि उनका धर्म इस प्रकार की प्रथाओं के प्रचलन की आज्ञा नहीं देता है।
- यूरोप के लगभग प्रत्येक भाग में किसानों ने चर्च द्वारा लगाए गए इस प्रकार के अनेक करों का विरोध किया।
- इसके साथ-साथ राजा भी राज-काज में चर्च की दखलअंदाजी से चिढ़ते थे।
- मानवतावादियों ने उन्हें सूचित किया कि न्यायिक और वित्तीय शक्तियों पर पादरियों का दावा 'कॉन्स्टैनटाइन के अनुदान' (Donation of Constantine) नामक एक दस्तावेज से उत्पन्न होता है, जो कि प्रथम ईसाई रोमन सम्राट कॉन्स्टैनटाइन द्वारा संभवतः जारी किया गया था। मानवतावादी विद्वान यह दर्शाने में सफल रहे कि कॉन्स्टैनटाइन का वह दस्तावेज असली नहीं, बल्कि परवर्ती काल में जालसाजी से तैयार किया गया था।
- 1517 में एक जर्मन युवा भिक्षु मार्टिन लूथर (Martin Luther, 1483-1546) ने कैथोलिक चर्च के विरुद्ध अभियान छेड़ा। उन्होंने तर्क दिया कि मनुष्य को ईश्वर से संपर्क साधने के लिए पादरी की आवश्यकता नहीं है।
- उन्होंने अपने अनुयायियों को आदेश दिया कि वे ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखें, क्योंकि केवल उनका विश्वास ही उन्हें एक सम्यक् जीवन की ओर ले जा सकता है और उन्हें स्वर्ग में प्रवेश दिला सकता है।
- इस आंदोलन को प्रोटेस्टेंट सुधारवाद (Protestant Reformation) नाम दिया गया, जिसके कारण जर्मनी और स्विट्जरलैंड के चर्च ने पोप तथा कैथोलिक चर्च से अपने संबंध समाप्त कर दिए।
- स्विट्जरलैंड में लूथर के विचारों को उलरिच ज़्विंगली (Ulrich Zwingli, 1484–1531) और उसके बाद जॉं केल्विन (Jean Calvin, 1509-64) ने काफी लोकप्रिय बनाया।
- व्यापारियों से समर्थन मिलने के कारण सुधारकों की लोकप्रियता शहरों में अधिक थी, जबकि ग्रामीण इलाकों में कैथोलिक चर्च का प्रभाव बरकरार रहा।
- अन्य जर्मन सुधारक, जैसे कि एनाबैपटिस्ट (Anabaptist) संप्रदाय के नेता, इनसे कहीं अधिक उग्र-सुधारक थे। उन्होंने मोक्ष (salvation) के विचार को हर तरह के सामाजिक-उत्पीड़न के अंत होने के साथ जोड़ दिया। उनका कहना था कि क्योंकि ईश्वर ने सभी इंसानों को एक जैसा बनाया है, इसलिए उनसे कर देने की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, और उन्हें अपना पादरी चुनने का अधिकार होना चाहिए। इसने सामंतवाद द्वारा उत्पीड़ित किसानों को आकर्षित किया।
- लूथर ने आमूल परिवर्तनवाद (Radicalism) का समर्थन नहीं किया। उन्होंने जर्मन शासकों से समकालीन किसान विद्रोह का दमन करने का आह्वान किया, जैसा कि उन शासकों ने 1525 में किया।
- आमूल परिवर्तनवादी फ्रांस में प्रोटेस्टेंटों (हुगैनोट्स) के विरोध से मिल गए। उन्होंने कैथोलिक शासकों के अत्याचार के कारण यह दावा करना शुरू कर दिया था कि जनता को अत्याचारी शासक को पदस्थ करने का अधिकार है, और वे उसके स्थान पर अपनी पसंद के व्यक्ति को शासक बना सकते हैं।
- अंततः, यूरोप के अनेक क्षेत्रों की तरह, फ्रांस में भी कैथोलिक चर्च ने प्रोटेस्टेंट लोगों को अपनी पसंद के अनुसार उपासना करने की छूट दी।
- इंग्लैंड के शासकों ने पोप से अपने संबंध तोड़ दिए। इसके उपरांत राजा/रानी इंग्लैंड के चर्च के प्रमुख बन गए।
- कैथोलिक चर्च स्वयं भी इन विचारधाराओं के प्रभाव से अछूता नहीं रह सका और उसने अनेक आंतरिक सुधार करने आरम्भ कर दिए। स्पेन और इटली में पादरियों ने सादा जीवन आरम्भ किया।
- अंग्रेजी भाषा में बाइबिल का अनुवाद करने वाले, लूथरवादी अंग्रेज, विलियम टिंडेल (William Tyndale, 1494–1536) ने प्रोटेस्टेंटवाद का समर्थन किया। उन्होंने तर्क दिया कि पुरोहित वर्ग सामान्य लोगों को धर्मग्रंथ के ज्ञान से दूर रखना चाहता था ताकि दुनिया अंधकार में रहे और पुरोहित लोगों के अंतःकरण (conscience) में बने रहें, जिससे उनके द्वारा बनाए व्यर्थ के अंधविश्वास और झूठे धर्मसिद्धांत चलते रहें, और वे राजा, सम्राट और यहाँ तक कि ईश्वर से भी ऊँचा बन सकें। इसी बात ने उन्हें न्यू टेस्टामेंट का अनुवाद करने की प्रेरणा दी। उनका मानना था कि सामान्य लोगों को किसी भी सच्चाई की तब तक जानकारी नहीं हो सकती, जब तक उनके पास अपने धर्मग्रंथ के मातृभाषा में अनुवाद उपलब्ध न हों।
9. वैज्ञानिक क्रांति
- ईसाइयों की यह धारणा कि मनुष्य पापी है, इस पर वैज्ञानिकों ने पूर्णतया अलग दृष्टिकोण से आपत्ति की।
- यूरोपीय विज्ञान के क्षेत्र में एक युगांतरकारी परिवर्तन मार्टिन लूथर के समकालीन कोपरनिकस (Copernicus, 1473-1543) के काम से आया।
- ईसाइयों का यह विश्वास था कि पृथ्वी पापों से भरी हुई है और पापों की अधिकता के कारण वह स्थिर है। पृथ्वी, ब्रह्मांड (universe) के बीच में स्थिर है, जिसके चारों ओर खगोलीय ग्रह (celestial planets) घूम रहे हैं।
- कोपरनिकस ने यह घोषणा की कि पृथ्वी समेत सारे ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं।
- कोपरनिकस एक निष्ठावान ईसाई थे, और वह इस बात से भयभीत थे कि उनकी इस नई खोज से परंपरावादी ईसाई धर्माधिकारियों में घोर-प्रतिक्रिया उत्पन्न हो सकती है। यही कारण था कि वह अपनी पांडुलिपि 'डी रिवॉल्युशनिबस' (De revolutionibus - परिभ्रमण) को प्रकाशित नहीं करवाना चाहते थे।
- उन्होंने अपनी मृत्यु-शैय्या पर पड़ी यह पांडुलिपि अपने अनुयायी जोशिम रिटिकस (Joachim Rheticus) को सौंप दी।
- खगोलीय का अर्थ दैवी या स्वर्गीय है।
- गैलीलियो (Galileo) ने एक बार टिप्पणी की कि बाइबिल जिस स्वर्ग का मार्ग आलोकित करता है, वह स्वर्ग किस प्रकार चलता है, उसके बारे में कुछ नहीं बताता।
- इन विचारकों ने हमें बताया कि ज्ञान विश्वास से हटकर अवलोकन एवं प्रयोगों पर आधारित है।
- जैसे-जैसे इन वैज्ञानिकों ने ज्ञान की खोज का रास्ता दिखाया, वैसे-वैसे भौतिकी, रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान के क्षेत्र में अनेक प्रयोग और अन्वेषण कार्य बहुत तेजी से पनपने लगे।
- इतिहासकारों ने मनुष्य और प्रकृति के ज्ञान के इस नए दृष्टिकोण को वैज्ञानिक क्रांति (Scientific Revolution) का नाम दिया।
- परिणामस्वरूप, संदेहवादियों और नास्तिकों के मन में सारी सृष्टि की रचना के स्रोत के रूप में प्रकृति ईश्वर का स्थान लेने लगी। यहाँ तक कि वे लोग जिन्होंने ईश्वर में अपने विश्वास को बरकरार रखा, वे भी एक दूरस्थ ईश्वर की बात करने लगे, जो भौतिक दुनिया में जीवन को प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित नहीं करता था।
- इस प्रकार के विचारों को वैज्ञानिक संस्थाओं के माध्यम से लोकप्रिय बनाया गया, जिससे सार्वजनिक क्षेत्र में एक नई वैज्ञानिक संस्कृति की स्थापना हुई।
- 1670 में बनी पेरिस अकादमी और 1662 में वास्तविक ज्ञान के प्रसार के लिए लंदन में गठित रॉयल सोसाइटी ने लोगों की जानकारी के लिए व्याख्यानों का आयोजन किया और सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए प्रयोग करवाए।
10. क्या चौदहवीं सदी में यूरोप में 'पुनर्जागरण' हुआ था?
- अब हम 'पुनर्जागरण' (Renaissance) की अवधारणा पर पुनर्विचार करें। क्या हम यह कह सकते हैं कि इस काल में अतीत से साफ विच्छेद हुआ और यूनानी और रोमन परंपराओं से जुड़े विचारों का पुनर्जन्म हुआ?। क्या इससे पहले का काल (बारहवीं और तेरहवीं शताब्दियाँ) अंधकार का समय था?।
- पीटर बर्क (Peter Burke) जैसे हाल ही के लेखकों का सुझाव है कि बर्खार्ट के ये विचार अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। बर्खार्ट इस काल और इससे पहले के कालों के फर्क को कुछ बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे थे।
- 'पुनर्जागरण' शब्द का प्रयोग करने में यह अंतर्निहित है कि यूनानी और रोमन सभ्यताओं का चौदहवीं शताब्दी में पुनर्जन्म हुआ, और समकालीन विद्वानों तथा कलाकारों में ईसाई विश्वदृष्टि की जगह पूर्व ईसाई विश्वदृष्टि का प्रचार-प्रसार किया। दोनों ही तर्क अतिशयोक्तिपूर्ण थे। पिछली शताब्दियों के विद्वान यूनानी और रोमन संस्कृतियों से परिचित थे, और लोगों के जीवन में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान था।
- यह कहना कि पुनर्जागरण, गतिशीलता और कलात्मक सृजनशीलता का काल था, और इसके विपरीत, मध्यकाल अंधकारमय काल था, जिसमें किसी प्रकार का विकास नहीं हुआ था, जरूरत से ज्यादा सरलीकरण (oversimplification) है।
- इटली में पुनर्जागरण से जुड़े अनेक तत्व बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में पाए जा सकते हैं। कुछ इतिहासकारों ने इसका उल्लेख किया है कि नौवीं शताब्दी में फ्रांस में इसी प्रकार के साहित्यिक और कलात्मक रचनाओं के विचार पनपे।
11. सांस्कृतिक बदलावों के व्यापक संदर्भ
- यूरोप में इस समय आए सांस्कृतिक बदलाव में रोम और यूनान की 'क्लासिकी' सभ्यता का ही केवल हाथ नहीं था।
- रोमन संस्कृति के पुरातात्विक और साहित्यिक पुनरुद्धार ने इस सभ्यता के प्रति बहुत अधिक प्रशंसा के भाव उभारे। लेकिन एशिया में प्रौद्योगिकी और कार्य-कुशलता यूनानी और रोमन लोगों की तुलना में काफी विकसित थी।
- विश्व का बहुत बड़ा क्षेत्र आपस में संबद्ध हो चुका था, और नौसंचालन (navigation) की नई तकनीकों ने लोगों के लिए पहले की तुलना में दूरदराज के क्षेत्रों की जलयात्रा को संभव बनाया।
- इस्लाम के विस्तार और मंगोलों की विजयों ने एशिया एवं उत्तरी अफ्रीका को यूरोप के साथ राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि व्यापार और कार्य-कुशलता के ज्ञान को सीखने के लिए आपस में जोड़ दिया।
- यूरोपियों ने न केवल यूनानियों और रोमवासियों से सीखा, बल्कि भारत, अरब, ईरान, मध्य एशिया और चीन से भी ज्ञान प्राप्त किया।
- बहुत लंबे समय तक इन ऋणों को स्वीकार नहीं किया गया, क्योंकि जब इस काल का इतिहास लिखने की प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ, तब इतिहासकारों ने इसके यूरोप-केंद्रित (Eurocentric) दृष्टिकोण को सामने रखा।
12. निजी और सार्वजनिक क्षेत्र
- इस काल में जो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, उनमें धीरे-धीरे 'निजी' (private) और 'सार्वजनिक' (public) दो अलग-अलग क्षेत्र बनने लगे।
- जीवन के सार्वजनिक क्षेत्र का तात्पर्य सरकार के कार्यक्षेत्र और औपचारिक धर्म से संबंधित था, और निजी क्षेत्र में परिवार और व्यक्ति का निजी धर्म था।
- व्यक्ति की दो भूमिकाएँ थीं - निजी और सार्वजनिक। वह न केवल तीन वर्गों (three orders) में से किसी एक वर्ग का सदस्य ही था, बल्कि अपने आप में एक स्वतंत्र व्यक्ति था।
- एक कलाकार किसी संघ या गिल्ड (guild) का सदस्य मात्र ही नहीं होता था, बल्कि वह अपने हुनर के लिए भी जाना जाता था।
- अठारहवीं शताब्दी में व्यक्ति की इस पहचान को राजनीतिक रूप में अभिव्यक्त किया गया, इस विश्वास के साथ कि प्रत्येक व्यक्ति के एकसमान राजनीतिक अधिकार हैं।
13. भाषा-आधारित पहचान
- इस काल की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि भाषा के आधार पर यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों ने अपनी पहचान बनानी शुरू की।
- पहले, आंशिक रूप से रोमन साम्राज्य द्वारा, और बाद में लातिन भाषा और ईसाई धर्म द्वारा जुड़ा यूरोप अब अलग-अलग राज्यों में बँटने लगा। इन राज्यों के आंतरिक जुड़ाव का कारण समान भाषा का होना था।
अध्याय के अभ्यास प्रश्न: विस्तृत उत्तर
यहाँ अध्याय के अंत में दिए गए अभ्यास प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं। ध्यान दें कि उत्तर केवल अपलोड किए गए पाठ्यपुस्तक अंशों पर आधारित हैं।
संक्षेप में उत्तर दीजिए
1. चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दियों में यूनानी और रोमन संस्कृति के किन तत्वों को पुनर्जीवित किया गया?
चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दियों में यूनानी और रोमन संस्कृति के कई तत्वों को पुनर्जीवित किया गया, खासकर कला, वास्तुकला, साहित्य और दर्शन के क्षेत्रों में।
- विद्वानों ने प्राचीन यूनानी और रोमन लेखकों, जैसे प्लेटो और अरस्तु, के ग्रंथों का अध्ययन किया, अक्सर अरबी अनुवादों के माध्यम से।
- कला और वास्तुकला में, प्राचीन रोम के खंडहरों और कलात्मक वस्तुओं की खोज की गई। कलाकारों और वास्तुविदों ने प्राचीन 'संतुलित' मूर्तियों से प्रेरणा ली।
- मानवतावादी शिक्षा के कार्यक्रम में व्याकरण, अलंकारशास्त्र, कविता, इतिहास और नीतिदर्शन जैसे विषय शामिल थे, जो क्लासिक संस्कृति का हिस्सा थे।
- इतिहास की समझ भी बदली, जिसमें लोग अपने 'आधुनिक' युग की तुलना यूनानी और रोमन 'प्राचीन दुनिया' से करने लगे।
2. इस काल की इटली की वास्तुकला और इस्लामी वास्तुकला की विशिष्टताओं की तुलना कीजिए।
पाठ्यपुस्तक के उपलब्ध अंशों में इस काल की इटली की वास्तुकला के बारे में कुछ जानकारी दी गई है, जैसे कि फ्लोरेंस के भव्य गुम्बद (Duomo) का परिरूप फिलिप्पो ब्रुनेलेस्की ने तैयार किया था। इतालवी वास्तुविदों को प्राचीन रोमन संस्कृति की 'संतुलित' मूर्तियों से प्रेरणा मिली थी।
हालांकि, इन अंशों में इस्लामी वास्तुकला की विशिष्टताओं का कोई विवरण नहीं दिया गया है। इसलिए, उपलब्ध स्रोत सामग्री के आधार पर इस काल की इटली की वास्तुकला और इस्लामी वास्तुकला की विशिष्टताओं की तुलना करना संभव नहीं है।
3. मानवतावादी विचारों का अनुभव सबसे पहले इतालवी शहरों में क्यों हुआ?
मानवतावादी विचारों का अनुभव सबसे पहले इतालवी शहरों में होने के कई कारण थे:
- नगरों का विकास और नगरीय संस्कृति: इटली के शहर कला और ज्ञान के केंद्र बन चुके थे, और यहाँ एक विशेष 'नगरीय संस्कृति' विकसित हो रही थी।
- व्यापार और वाणिज्य: इटली के शहर व्यापार और वाणिज्य के केंद्र थे, जिससे वकीलों और नोटरियों की आवश्यकता बढ़ी, जिन्होंने रोमन संस्कृति के संदर्भ में कानून का अध्ययन किया।
- प्राचीन रोमन संस्कृति के अवशेष: इटली में प्राचीन रोम के खंडहरों और कलात्मक वस्तुओं की उपलब्धता ने प्राचीन संस्कृति के प्रति आदर भाव जगाया।
- अरबी योगदान से संपर्क: इटली के शहर इस्लामी देशों के साथ व्यापार के कारण अरबी अनुवादों और विद्वानों की कृतियों तक पहुँच सके।
- शहरों की स्वायत्तता और नागरिकता की भावना: इतालवी शहरों को कुछ स्वायत्तता मिली थी, और धनी व्यापारी शासन में सक्रिय थे, जिससे नागरिकता की भावना पनपी, जो नए विचारों के लिए अनुकूल थी।
- ज्ञान और कला के केंद्र: फ्लोरेंस, वेनिस और रोम जैसे शहर कला और ज्ञान के केंद्र थे, जहाँ अमीर लोग कलाकारों और लेखकों के आश्रयदाता थे।
4. वेनिस और समकालीन फ्रांस में 'अच्छी सरकार' के विचारों की तुलना कीजिए।
पाठ्यपुस्तक के उपलब्ध अंशों में वेनिस और अन्य इतालवी शहरों में नागरिकता और शासन के विचारों के बारे में चर्चा की गई है। वेनिस को एक गणराज्य बताया गया है, जहाँ धनी व्यापारी और महाजन शासन में सक्रिय रूप से भाग लेते थे।
हालांकि, ये अंश समकालीन फ्रांस में 'अच्छी सरकार' के विचारों के बारे में कोई जानकारी नहीं देते हैं। इसलिए, उपलब्ध स्रोत सामग्री के आधार पर वेनिस और समकालीन फ्रांस में 'अच्छी सरकार' के विचारों की तुलना करना संभव नहीं है।
संक्षेप में निबंध लिखिए
5. मानवतावादी विचारों के क्या अभिलक्षण थे?
मानवतावादी विचारों के कई प्रमुख अभिलक्षण थे:
- प्राचीन यूनानी और रोमन संस्कृति पर ध्यान: क्लासिक संस्कृति के अध्ययन पर जोर दिया गया।
- मनुष्य की गरिमा और क्षमता में विश्वास: व्यक्ति अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है और अपनी दक्षता को बढ़ा सकता है।
- धार्मिक शिक्षा से परे ज्ञान की खोज: व्याकरण, अलंकारशास्त्र, कविता, इतिहास और नीतिदर्शन जैसे 'मानवतावादी विषय' पर बल।
- यथार्थवाद और अवलोकन पर जोर: कला और विज्ञान में यथार्थवाद और अवलोकन को महत्व।
- निजी और सार्वजनिक जीवन का उदय: निजी और सार्वजनिक जीवन के अलग-अलग क्षेत्र उभरने लगे।
- इतिहास की नई समझ: रोमन साम्राज्य के पतन के बाद के काल को 'अंधकार युग' और चौदहवीं सदी से 'नए युग' की शुरुआत के रूप में देखना।
- बहुमुखी व्यक्ति (Renaissance Man) का आदर्श: अनेक रुचियाँ और हुनर वाले व्यक्ति का आदर्श।
6. सत्रहवीं शताब्दी के यूरोपियों को विश्व किस प्रकार भिन्न लगा? उसका एक सुनिश्चित विवरण दीजिए।
सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोप में कई महत्वपूर्ण बदलाव हुए थे, जिनसे यूरोपियों को विश्व पहले से काफी भिन्न लगने लगा:
- वैज्ञानिक क्रांति और ब्रह्मांड की नई समझ: कोपरनिकस के सिद्धांत ने पारंपरिक मॉडल को चुनौती दी। ज्ञान अवलोकन और प्रयोगों पर आधारित होने लगा।
- धार्मिक परिदृश्य में बदलाव (प्रोटेस्टेंट सुधारवाद): कैथोलिक चर्च की एकता टूटी, प्रोटेस्टेंट धर्म का उदय हुआ। चर्च की शक्ति कम हुई।
- मुद्रण का प्रभाव: विचारों और जानकारी का प्रसार तेज हुआ। पुस्तकें सुलभ हुईं, पढ़ने की आदत विकसित हुई।
- मनुष्य की नई संकल्पना और व्यक्तिगतता: धर्म का नियंत्रण कमजोर हुआ, मनुष्य को मुक्त कर्ता के रूप में देखा गया। व्यक्तिगतता को महत्व।
- निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों का उदय: जीवन में निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों का स्पष्ट विभाजन।
- नए भौगोलिक ज्ञान और विश्व दृष्टिकोण: लंबी दूरी की यात्राएँ संभव हुईं। दुनिया के बारे में यूरोपीय ज्ञान का विस्तार हुआ।
- भाषा-आधारित राष्ट्रीय पहचान की शुरुआत: यूरोप अलग-अलग राज्यों में बँटने लगा, जिनकी पहचान समान भाषा पर आधारित थी।
नए अभ्यास प्रश्न
- इतालवी शहरों के पुनरुत्थान में व्यापार और वाणिज्य ने क्या भूमिका निभाई? पाठ्यपुस्तक अंशों के आधार पर समझाइए।
- जैकब बर्खार्ट और लियोपोल्ड वॉन रांके के इतिहास लेखन के दृष्टिकोणों में क्या अंतर था?
- मानवतावादी आंदोलन में 'मानवतावादी विषय' (Humanities) क्या थे और वे पारंपरिक धार्मिक शिक्षा से कैसे भिन्न थे?
- कलाकारों द्वारा मानव शरीर रचना का अध्ययन करने और यथार्थवादी चित्र बनाने की इच्छा में वैज्ञानिक कार्यों ने किस प्रकार सहायता की?
- विलियम टिंडेल ने बाइबिल का स्थानीय भाषा में अनुवाद करने पर क्यों जोर दिया? प्रोटेस्टेंट सुधारवाद पर इसके प्रभाव की चर्चा कीजिए।
- सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दियों में वैज्ञानिक संस्थाओं, जैसे पेरिस अकादमी और रॉयल सोसाइटी, ने नई वैज्ञानिक संस्कृति के प्रसार में क्या योगदान दिया?
- कासांद्रा फेदेले और बाल्थासार कास्टिल्योन महिलाओं के बारे में अलग-अलग विचार क्यों रखते थे? उपलब्ध जानकारी के आधार पर विश्लेषण कीजिए।
पुनरावृत्ति के लिए संक्षिप्त सारांश
यह अध्याय चौदहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के दौरान यूरोप, विशेष रूप से इटली, में आए महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और बौद्धिक परिवर्तनों का वर्णन करता है। शहरों का विकास हुआ और वे कला, ज्ञान और व्यापार के केंद्र बने, जिससे एक नई नगरीय संस्कृति पनपी। मानवतावाद का उदय हुआ, जिसने प्राचीन यूनानी और रोमन संस्कृति के अध्ययन पर जोर दिया, मनुष्य की गरिमा और क्षमताओं में विश्वास जताया, और शिक्षा को धार्मिक विषयों से परे विस्तृत किया। इतालवी शहरों में नागरिकता और शासन के नए विचार उभरे। कला में यथार्थवाद बढ़ा, जिसमें वैज्ञानिकों के कार्यों का भी योगदान था। मुद्रण क्रांति ने ज्ञान और विचारों के प्रसार को तेज किया, जिससे पढ़ना अधिक सुलभ हुआ। प्रोटेस्टेंट सुधारवाद ने ईसाई धर्म के भीतर वाद-विवाद को जन्म दिया, चर्च की सत्ता को चुनौती दी और बाइबिल को स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध कराया। वैज्ञानिक क्रांति ने ब्रह्मांड की समझ को बदला और ज्ञान को अवलोकन और प्रयोग पर आधारित किया। इस काल में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र अलग होने लगे, और भाषा-आधारित क्षेत्रीय पहचानें उभरीं। हालांकि, 'पुनर्जागरण' के काल विभाजन पर इतिहासकारों द्वारा पुनर्विचार किया गया है, और यह माना जाता है कि इन बदलावों में एशिया से प्राप्त ज्ञान का भी महत्वपूर्ण योगदान था, जिसे अक्सर यूरोकेंद्रित दृष्टिकोण के कारण नजरअंदाज कर दिया गया।
नर्जागरण, मानवतावाद, बदलती सांस्कृतिक परंपराएँ, बिहार बोर्ड इतिहास, कक्षा 11 इतिहास, इतिहास अध्याय 7, पुनर्जागरण इतिहास, बिहार बोर्ड परीक्षा, इटली में पुनर्जागरण, 14वीं से 17वीं सदी यूरोप, मुद्रण कला का महत्व, वैज्ञानिक क्रांति, धर्म सुधार आंदोलन, मानवतावाद की विशेषताएँ, इटली के नगर राज्य, पुनर्जागरण कला, कोपर्निकस, गैलीलियो, लोरेनज़ो वल्ला, मैकियावेली, पुनर्जागरण कालीन शिक्षा, इसाबेला द इस्ते, कैसेंड्रा फेडेल, पुनर्जागरण काल की महिलाएँ, मध्यकाल और पुनर्जागरण
ये नोट्स आपको अध्याय को समझने और परीक्षा की तैयारी करने में मदद करेंगे। भाषा को सरल रखने का प्रयास किया गया है ताकि आत्म-अध्ययन में आसानी हो। शुभकामनाएं!