🌍 अध्याय 9: औपनिवेशिक शासन और ग्रामीण समाज 🌾
भूमिका: यह अध्याय बताता है कि ब्रिटिश सरकार द्वारा लागू किए गए कानूनों का आम लोगों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा। इन कानूनों ने तय किया कि कौन अमीर बनेगा और कौन गरीब, किसे नई ज़मीन मिलेगी और कौन अपनी ज़मीन खो देगा। किसान पैसों के लिए कहाँ जाएँगे और किससे कर्ज लेंगे। लोग कानूनों का पालन करने के लिए मजबूर होने के बावजूद अन्यायपूर्ण कानूनों का विरोध भी करते थे और कानूनों को लागू करने के तरीके को प्रभावित करने की कोशिश करते थे।
अध्याय मुख्य रूप से दो क्षेत्रों के ग्रामीण समाजों पर केंद्रित है: बंगाल और बंबई दक्कन।
1. बंगाल और वहाँ के ज़मींदार 🏯
औपनिवेशिक शासन सबसे पहले बंगाल में स्थापित हुआ था। यहीं पर ग्रामीण समाज को पुनर्व्यवस्थित करने, भूमि संबंधी अधिकार और एक नई राजस्व प्रणाली स्थापित करने के प्रयास किए गए थे।
1.1 बर्दवान में की गई नीलामी की एक घटना
1797 में, बर्दवान के राजा द्वारा कंपनी को भू-राजस्व का भुगतान न किए जाने के कारण एक नीलामी की गई। नीलामी में कई खरीदार आए और संपत्ति सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेच दी गई। लेकिन कलेक्टर ने देखा कि कई खरीदार राजा के अपने नौकर या एजेंट थे, जिन्होंने राजा की ओर से ज़मीनें खरीदी थीं। 95% से अधिक बिक्री फर्जी थी। ज़मीनें खुले तौर पर बेची गईं, लेकिन ज़मींदारी का नियंत्रण राजा के हाथों में ही रहा। यह घटना पूर्वी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में उस समय क्या हो रहा था, इसके बारे में जानकारी देती है।
1.2 अदा न किए गए राजस्व की समस्या
18वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में केवल बर्दवान राज की ज़मीनें ही नहीं बेची गईं। इस्तमरारी बंदोबस्त (स्थायी बंदोबस्त) लागू होने के बाद 75% से अधिक ज़मींदारियाँ हस्तांतरित कर दी गईं।
इस्तमरारी बंदोबस्त (स्थायी बंदोबस्त):
- यह बंदोबस्त 1793 में चार्ल्स कॉर्नवॉलिस (उस समय बंगाल के गवर्नर जनरल) द्वारा बंगाल में लागू किया गया था।
- ब्रिटिश अधिकारी उम्मीद करते थे कि यह बंदोबस्त बंगाल की विजय के समय से चली आ रही सभी समस्याओं को हल कर देगा।
- 1770 के दशक तक, बंगाल की ग्रामीण अर्थव्यवस्था संकट में थी, क्योंकि बार-बार अकाल पड़ रहे थे और खेती की पैदावार घट रही थी।
- अधिकारियों का मानना था कि खेती, व्यापार और राज्य के राजस्व संसाधन तभी विकसित हो सकते हैं जब कृषि में निवेश किया जाए।
- यह निवेश तभी संभव था जब संपत्ति के अधिकार प्राप्त हो जाएं और राजस्व मांग स्थायी रूप से तय कर दी जाए।
- यदि राज्य (सरकार) की राजस्व मांग स्थायी रूप से निर्धारित हो जाती, तो कंपनी नियमित रूप से राजस्व प्राप्त करने की उम्मीद कर सकती थी।
- उद्यमी (निवेशक) भी अपने पूंजी निवेश से निश्चित लाभ कमाने की उम्मीद रख सकते थे, क्योंकि राज्य अपने दावे में वृद्धि करके लाभ की राशि नहीं छीन सकेगा।
- अधिकारियों को उम्मीद थी कि इस प्रक्रिया से छोटे किसानों (योमैन) और धनी भूस्वामियों का एक ऐसा वर्ग उत्पन्न होगा जिसके पास कृषि में सुधार करने के लिए पूंजी और उद्यम दोनों होंगे।
- उन्हें यह भी उम्मीद थी कि ब्रिटिश शासन से पोषण और प्रोत्साहन पाकर, यह वर्ग कंपनी के प्रति वफादार बना रहेगा।
1.3 राजस्व राशि के भुगतान में ज़मींदार क्यों चूक करते थे?
कंपनी के अधिकारियों को लगता था कि राजस्व मांग तय होने से ज़मींदारों में सुरक्षा का भाव उत्पन्न होगा और वे अपनी संपदा में सुधार करने के लिए प्रोत्साहित होंगे। लेकिन इस्तमरारी बंदोबस्त के बाद, शुरुआती दशकों में ज़मींदार राजस्व मांग चुकाने में लगातार कोताही करते रहे, जिससे बकाया रकम बढ़ती गई।
ज़मींदारों की असफलता के कारण:
- प्रारंभिक मांगें बहुत ऊंची थीं: कंपनी को लगता था कि यदि मांग भविष्य के लिए तय की जा रही है, तो कीमतों में वृद्धि और कृषि विस्तार से होने वाली आय वृद्धि में कंपनी हिस्सा नहीं ले पाएगी। इस अपेक्षित हानि को कम करने के लिए, कंपनी ने राजस्व मांग को ऊंचे स्तर पर रखा। उन्होंने तर्क दिया कि जैसे-जैसे कृषि उत्पादन बढ़ेगा और कीमतें बढ़ेंगी, ज़मींदारों का बोझ धीरे-धीरे कम होता जाएगा।
- (अन्य कारण जैसे खराब फसलें, आदि)
ज़मींदार का नियंत्रण कम करना:
कंपनी ज़मींदारों को महत्व देती थी, लेकिन उन्हें नियंत्रित और विनियमित भी करना चाहती थी। उनकी सैन्य टुकड़ियों को भंग कर दिया गया, सीमा शुल्क समाप्त कर दिया गया, और उनकी कचहरियों को कंपनी द्वारा नियुक्त कलेक्टर की देखरेख में रखा गया। ज़मींदारों से स्थानीय न्याय और पुलिस व्यवस्था की शक्ति छीन ली गई। समय के साथ, कलेक्टर का कार्यालय सत्ता के एक वैकल्पिक केंद्र के रूप में उभरा।
1.4 जोतदारों का उदय
18वीं शताब्दी के अंत में जब कई ज़मींदार संकट से गुज़र रहे थे, तब गांवों में धनी किसानों के कुछ समूह अपनी स्थिति मज़बूत कर रहे थे। इन्हें जोतदार कहा जाता था। 19वीं शताब्दी की शुरुआत तक, जोतदारों ने ज़मीन के बड़े-बड़े रकबे (हजारों एकड़ में फैले) अर्जित कर लिए थे। स्थानीय व्यापार और साहूकारी के कारोबार पर भी उनका नियंत्रण था। वे गरीब काश्तकारों पर व्यापक शक्ति का प्रयोग करते थे। उनकी ज़मीन का बड़ा हिस्सा बटाईदारों (अधियारों या बरगदारों) द्वारा जोता जाता था, जो खुद हल लाते थे, खेत में मेहनत करते थे और फसल के बाद उपज का आधा हिस्सा जोतदारों को देते थे।
जोतदार उत्तरी बंगाल में सबसे अधिक शक्तिशाली थे, खासकर दिनाजपुर जिले में। बंगाल के अन्य हिस्सों में भी धनी किसान और गांव के मुखिया प्रभावशाली बनकर उभर रहे थे, जिन्हें हवलदार, गांतीदार या मंडल कहा जाता था। जोतदारों के उदय से ज़मींदारों के अधिकार का कमज़ोर पड़ना स्वाभाविक था।
स्रोत 1 के अनुसार जोतदार ज़मींदारों की सत्ता का प्रतिरोध कैसे करते थे?
- जोतदार बहुत हठीले थे और राजस्व कम देते थे।
- उनके पास पट्टे से ज़्यादा ज़मीनें होती थीं।
- ज़मींदार के अधिकारियों द्वारा बुलाए जाने पर, वे पुलिस या मुंसिफ के पास ज़मींदार के कारिंदों द्वारा अपमान की शिकायत करते थे।
- वे छोटे रैयत को राजस्व न देने के लिए भड़काते थे।
- ज़मींदारी नीलाम होने पर अक्सर जोतदार ही ज़मीनें खरीद लेते थे।
1.5 ज़मींदारों की ओर से प्रतिरोध
ज़मींदारों की सत्ता ग्रामीण क्षेत्रों में समाप्त नहीं हुई। उच्च राजस्व मांग और संभावित नीलामी से निपटने के लिए ज़मींदारों ने रास्ते निकाल लिए और नई रणनीतियाँ बनाईं।
ज़मींदारों द्वारा अपनाई गई रणनीतियाँ:
- फर्जी बिक्री (बेनामी खरीद): यह एक चाल थी। बर्दवान के राजा ने पहले अपनी ज़मींदारी का कुछ हिस्सा अपनी माता को दे दिया (क्योंकि कंपनी महिलाओं की संपत्ति नहीं छीनती थी)। फिर उसके एजेंटों ने नीलामी में जोड़-तोड़ की। राजस्व मांग जानबूझकर रोक ली जाती, और नीलामी में ज़मींदार के आदमी ही ऊंची बोलियां लगाकर संपत्ति खरीदते, पर भुगतान नहीं करते, जिससे बार-बार नीलामी होती। बेनामी का अर्थ है 'गुमनाम'।
- बाहरी खरीदारों का कब्ज़ा रोकना: जब कोई बाहरी व्यक्ति नीलामी में ज़मीन खरीदता, तो पुराने ज़मींदार के लठियाल (लाठी वाले गुंडे) नए खरीदार के लोगों को मारपीट कर भगा देते। पुराने रैयत भी नए लोगों को ज़मीन में घुसने नहीं देते थे क्योंकि वे पुराने ज़मींदार को अन्नदाता मानते थे।
पांचवीं रिपोर्ट:
यह रिपोर्ट ज़मींदारों की हालत और ज़मीनों की नीलामी के बारे में बताती है। राजस्व समय पर वसूल नहीं होता था और ज़मीनें बार-बार नीलाम होती थीं। नादिया, राजशाही, बिशनपुर के राजाओं जैसे पुराने परिवार गरीबी और बर्बादी का सामना कर रहे थे।
ग्रामीण बंगाल में शक्ति के धारक (चित्र 9-5 के तर्क के आधार पर)
कंपनी राज राजस्व ज़मींदार से लेता था। ज़मींदार रैयतों से लगान वसूलते थे। जोतदार अन्य रैयतों को उधार देते, उपज खरीदते और ज़मींदारों के खिलाफ रैयतों को भड़काते थे। रैयत शिकमी रैयत को ज़मीन लगान पर देते थे।
2. 🏞️ औपनिवेशिक शासन का प्रभाव: राजमहल की पहाड़ियों में रहने वाले लोग
2.1 राजमहल की पहाड़ियों में
19वीं शताब्दी की शुरुआत में, फ्रांसिस बुकानन ने राजमहल की पहाड़ियों का दौरा किया। यह इलाका दुर्गम और खतरनाक माना जाता था। बुकानन को वहां के निवासी, जिन्हें पहाड़ियां कहा जाता था, शत्रुतापूर्ण लगे। वे जंगल की उपज और झूम खेती से गुज़ारा करते थे।
झूम खेती: जंगल के छोटे हिस्से को काटकर-जलाकर ज़मीन साफ करना, राख से उपजाऊ बनी ज़मीन पर दालें-ज्वार-बाजरा उगाना, कुछ साल बाद ज़मीन परती छोड़कर नई जगह खेती करना। पहाड़िया लोग महुआ, रेशम के कोया, राल इकट्ठा करते और काठकोयला बनाते थे। जंगल उनकी पहचान और जीवन का आधार था। वे बाहरी लोगों का प्रतिरोध करते थे।
विलियम होजेस और राजमहल की पहाड़ियां:
विलियम होजेस, एक ब्रिटिश कलाकार, 1782 में राजमहल गए। वह स्वच्छंदतावाद (Romanticism) से प्रेरित थे, जो प्रकृति की पूजा करता था। औपनिवेशिक अधिकारी जिन्हें यह इलाका भयानक मानते थे, होजेस की चित्रकारी में वह मनमोहक लगता था।
शांति संधियाँ और उनका भंग होना:
ब्रिटिश अधिकारियों को पहाड़ी मुखियाओं को नियमित खिराज देकर शांति खरीदनी पड़ती थी। व्यापारी भी पथकर देते थे। यह शांति तब भंग हुई जब स्थायी खेती का विस्तार हुआ। अंग्रेजों ने जंगलों की कटाई को प्रोत्साहित किया। इससे पहाड़ियों और स्थायी खेतीहरों के बीच झगड़ा बढ़ा। 1770 के दशक में अंग्रेजों ने पहाड़ियों के निर्मूलन की क्रूर नीति अपनाई। 1780 के दशक में ऑगस्टस क्लीवलैंड ने शांति की नीति प्रस्तावित की: पहाड़ी मुखियाओं को वार्षिक भत्ता, बदले में उन्हें अपने लोगों को नियंत्रित रखना था। कई मुखियाओं ने भत्ता ठुकरा दिया, और जिन्होंने स्वीकार किया, वे अपने समुदाय में सत्ता खो बैठे।
2.2 संथाल: अगुआ बाशिंदे
इसी समय संथाल लोगों का आगमन हुआ। वे जंगलों का सफाया कर, ज़मीन जोतकर चावल और कपास उगाने लगे। पहाड़ियों को और भीतर हटना पड़ा। पहाड़िया अपनी झूम खेती के लिए कुदाल का प्रयोग करते थे; संथाल स्थायी कृषि के लिए हल का। यह हल और कुदाल के बीच एक लंबी लड़ाई थी।
1800 के आसपास संथाल इस इलाके में आए और पहाड़ी लोगों को भगाकर बस गए। पहाड़िया लोग निचली पहाड़ियों और घाटियों से वंचित हो गए और गरीब हो गए। सर्वाधिक उर्वर ज़मीनें उनके लिए दुर्लभ हो गईं, क्योंकि वे दामिन-ए-कोह (संथालों के लिए आरक्षित क्षेत्र) का हिस्सा बन गईं।
संथाल विद्रोह (1855-56):
संथालों ने उत्पीड़न के खिलाफ विद्रोह किया, जिसके नेता सिधू मांझी थे। विद्रोह के बाद संथाल परगना का निर्माण हुआ। औपनिवेशिक राज को उम्मीद थी कि इससे संथाल संतुष्ट हो जाएंगे।
बुकानन का विवरण:
बुकानन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का कर्मचारी था। उसकी यात्राएं कंपनी द्वारा वित्तपोषित थीं। उसका दृष्टिकोण विकास की आधुनिक पाश्चात्य विचारधारा से प्रभावित था। वह वनवासियों का आलोचक था और वनों को कृषि भूमि में बदलने का समर्थक था।
3. 💣 दक्कन (बंबई दक्कन) में विद्रोह
अब हम पश्चिमी भारत और बाद की अवधि पर नज़र डालते हैं। 19वीं शताब्दी में भारत के विभिन्न प्रांतों के किसानों ने साहूकारों और अनाज के व्यापारियों के खिलाफ अनेक विद्रोह किए। ऐसा ही एक दक्कन में 1875 में हुआ।
3.1 लेखा बहियाँ जला दी गईं 🔥
यह आंदोलन पूना (आधुनिक पुणे) जिले के एक बड़े गांव सुपा में शुरू हुआ। सुपा एक विपणन केंद्र था। 12 मई 1875 को, आसपास के ग्रामीण इलाकों के रैयत (किसान) इकट्ठा हुए, उन्होंने साहूकारों से उनके बही-खातों और ऋणबंधों की मांग करते हुए उन पर हमला किया। उन्होंने बही-खाते जला दिए, अनाज की दुकानें लूटीं और साहूकारों के घरों को आग लगा दी। यह विद्रोह पूना से अहमदनगर और फिर 6,500 वर्ग किलोमीटर के इलाके में फैल गया। हर जगह विद्रोह का स्वरूप एकसमान था। साहूकार गांव छोड़कर भाग गए। ब्रिटिश अधिकारियों को 1857 के 'गदर' की याद आ गई। सेना बुलाई गई और कई लोगों को दंडित किया गया।
साहूकार: पैसा उधार देने वाला और व्यापारी। रैयत: किसान।
3.2 एक नई राजस्व प्रणाली
बंगाल से बाहर इस्तमरारी बंदोबस्त कम ही लागू किया गया। 1810 के बाद खेती की कीमतें बढ़ने से बंगाल के ज़मींदारों की आय बढ़ी, पर कंपनी का हिस्सा तय था। इसलिए, अन्य प्रदेशों में राजस्व बढ़ाने के लिए नए बंदोबस्त किए गए।
3.3 राजस्व की मांग और किसान का कर्ज़
बंबई दक्कन में पहला राजस्व बंदोबस्त 1820 के दशक में हुआ। राजस्व इतना अधिक था कि किसान गांव छोड़कर चले गए। वर्षा कम होने पर राजस्व देना असंभव हो जाता था। राजस्व इकट्ठा करने वाले कठोरता बरतते थे। राजस्व न दे पाने पर फसलें ज़ब्त कर ली जाती थीं।
महाराष्ट्र में निर्यात व्यापारी और साहूकार दीर्घकालिक ऋण देने के लिए उत्सुक नहीं रहे क्योंकि भारतीय कपास की मांग और कीमतें गिर रही थीं। ऋण का स्रोत सूख गया, वहीं राजस्व की मांग 50 से 100 प्रतिशत तक बढ़ा दी गई। किसानों को फिर ऋणदाता की शरण में जाना पड़ा, लेकिन उन्होंने ऋण देने से इनकार कर दिया।
3.6 अन्याय का अनुभव
ऋणदाता द्वारा ऋण देने से इनकार पर रैयत समुदाय को बहुत गुस्सा आया। वे ऋणदाताओं की संवेदनहीनता और प्रथागत मानदंडों के उल्लंघन से नाराज़ थे।
प्रथागत मानदंड और उनका उल्लंघन:
औपनिवेशिक शासन से पहले, एक सामान्य मानक यह था कि ब्याज मूलधन से अधिक नहीं लिया जा सकता था। औपनिवेशिक शासन में इस नियम की धज्जियां उड़ा दी गईं। दक्कन दंगा आयोग ने पाया कि एक मामले में ऋणदाता ने 100 रुपये के मूलधन पर 2,000 रुपये से अधिक ब्याज लगा रखा था।
ऋणदाताओं द्वारा धोखाधड़ी और कानून को धत्ता बताना:
रैयत ऋणदाताओं को कुटिल और धोखेबाज़ समझने लगे। 1859 में अंग्रेजों ने एक परिसीमन कानून (Limitation Law) पारित किया कि ऋणपत्र केवल तीन वर्षों के लिए मान्य होंगे। ऋणदाता ने इस कानून को अपने पक्ष में कर लिया और रैयत से हर तीसरे साल एक नया बंधपत्र भरवाने लगे। न चुकाई गई राशि (मूलधन + ब्याज) को नए बांड में मूलधन के रूप में दर्ज कर, उस पर फिर से ब्याज लगने लगता। ऋणदाता रसीद नहीं देते थे, जाली आंकड़े भरते थे, फसल नीची कीमतों पर लेते थे और किसानों की संपत्ति पर कब्ज़ा कर लेते थे।
किरायानामा (पट्टा):
जब किसान ऋण चुकाने में असमर्थ हो जाता, तो उसे अपनी ज़मीन, गाड़ियाँ, पशुधन देने पड़ते। पशुओं के बिना खेती असंभव थी, इसलिए वह ज़मीन और पशु किराये पर लेता। उसे अपनी ही संपत्ति के लिए किराया देना पड़ता और एक किरायानामा लिखना पड़ता।
4. 📜 दक्कन दंगा आयोग
जब विद्रोह दक्कन में फैला, तो भारत सरकार ने बंबई सरकार पर जांच आयोग बैठाने का दबाव डाला। आयोग ने एक रिपोर्ट तैयार की जो 1878 में ब्रिटिश पार्लियामेंट में पेश की गई। यह दक्कन दंगा रिपोर्ट इतिहासकारों के लिए दंगों का अध्ययन करने का आधार है। आयोग ने रैयत, साहूकारों, चश्मदीद गवाहों के बयान लिए, राजस्व दरों, कीमतों, ब्याज के आंकड़े इकट्ठे किए और जिला कलेक्टरों की रिपोर्टों का संकलन किया।
📖 प्रमुख परिभाषाएँ, संकल्पनाएँ और शब्द:
📊 पुस्तक में दिए गए उदाहरणों का हल:
उदाहरण 1: बर्दवान की फर्जी नीलामी
- समस्या: बर्दवान के राजा ने कंपनी को राजस्व नहीं दिया।
- नीलामी: कंपनी ने राजा की संपत्ति नीलाम की।
- खरीदार: कई खरीदार आए।
- बिक्री: संपत्ति सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेची गई।
- चाल: कलेक्टर ने पाया कि कई खरीदार राजा के एजेंट थे।
- फर्जीवाड़ा: 95% बिक्री फर्जी थी; ज़मीनें राजा के एजेंटों ने खरीदीं।
- परिणाम: ज़मीनें कागजों पर बिकीं, पर नियंत्रण राजा के पास रहा। यह ज़मींदारों की नीलामी से बचने की रणनीति थी।
उदाहरण 2: दक्कन में ऋण कैसे बढ़ते गए (एक रैयत की याचिका)
- प्रारंभिक ऋण: साहूकार 100 रुपये का ऋण देता है।
- नवीनीकरण: हर 3 साल बाद, मूलधन + ब्याज को मिलाकर नया मूलधन बनाया जाता है, जिस पर फिर से ब्याज लगता है (चक्रवृद्धि)।
- परिणाम (12 साल बाद): 1000 रुपये (उदाहरण) के मूलधन पर कुल ब्याज 2,028 रुपये 10 आना 3 पैसे हो जाता है।
- विश्लेषण: यह दिखाता है कि चक्रवृद्धि ब्याज और बार-बार बांड नवीनीकरण से किसानों का कर्ज तेजी से बढ़ता था, और ऋणदाता प्रथागत मानदंडों का उल्लंघन करते थे।
✍️ अध्याय के अभ्यास प्रश्नों के विस्तृत उत्तर:
(पाठ्यक्रम के अनुसार महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर ऊपर दिए गए हैं और कुछ काल्पनिक प्रश्न नीचे दिए गए हैं।)
प्रश्न (स्रोत 11 के अंत में): यह बताइए कि जोतदार ज़मींदारों की सत्ता का किस प्रकार प्रतिरोध किया करते थे?
उत्तर: जोतदार कई तरीकों से ज़मींदारों की सत्ता का प्रतिरोध करते थे:
- वे हठीले थे और राजस्व की पूरी रकम नहीं देते थे, अक्सर कुछ बकाया छोड़ देते थे।
- उनके पास पट्टे की हकदारी से अधिक ज़मीनें होती थीं।
- यदि ज़मींदार उन्हें बकाया के लिए कचहरी बुलाते, तो वे पुलिस या मुंसिफ के पास ज़मींदार के कारिंदों द्वारा अपमान की शिकायत कर देते थे।
- वे छोटे रैयतों को राजस्व न देने के लिए भड़काते थे।
- जब ज़मींदारियाँ नीलाम होती थीं, तो अक्सर जोतदार ही उन ज़मीनों को खरीद लेते थे।
प्रश्न (स्रोत 5 के अंत में): बुकानन का वर्णन विकास के संबंध में उसके विचारों के बारे में क्या बतलाता है? यदि आप एक पहाड़िया वनवासी होते, तो उसके इन विचारों के प्रति आपकी प्रतिक्रिया क्या होती?
उत्तर:
- बुकानन के विचार: बुकानन विकास को आधुनिक पश्चिमी विचारों से देखता था – कृषि विस्तार, भूमि का उत्पादक उपयोग, और वनों को कृषि योग्य बनाना। वह वनवासियों की जीवन-शैली का आलोचक था और इसे 'प्रगति की कमी' मानता था।
- पहाड़िया वनवासी की प्रतिक्रिया (काल्पनिक): यदि मैं पहाड़िया होता, तो बुकानन के विचारों से क्रोधित होता। जंगल हमारी पहचान और जीवन का आधार है। उसका वनों को साफ करने और खेती का विचार हमारे अस्तित्व पर हमला है। हम बाहरी लोगों का इसीलिए प्रतिरोध करते थे।
प्रश्न (स्रोत 40 के अंत में): रैयत अपनी अर्ज़ी में क्या शिकायत कर रहा है? ऋणदाता द्वारा किसान से ली जाती जाने वाली फसल उसके खाते में क्यों नहीं चढ़ाई जाती? किसानों को कोई रसीद क्यों नहीं दी जाती? यदि आप ऋणदाता होते, तो इन व्यवहारों के लिए आप क्या-क्या कारण देते?
उत्तर:
- रैयत की शिकायतें: साहूकारों द्वारा अत्याचार, अनाज-कपड़ा ऊंची दरों पर देना, कड़ी शर्तों पर बंधपत्र, उपज ले जाना पर खाते में कीमत न चढ़ाना, रसीद न देना।
- खाते में कीमत न चढ़ाने/रसीद न देने का कारण: साहूकार जानबूझकर किसान को ठगने, कर्ज का हिसाब अस्पष्ट रखने, और कर्ज के जाल में फंसाए रखने के लिए ऐसा करते थे।
- ऋणदाता के संभावित कारण (काल्पनिक): जोखिम कवर करना, किसान की अशिक्षा, पारंपरिक नियमों का कमजोर होना, लागत, हिसाब में आसानी (अपने लाभ के लिए), नियंत्रण बनाए रखना।
💡 अध्याय की अवधारणाओं पर आधारित नए अभ्यास प्रश्न:
- इस्तमरारी बंदोबस्त लागू करने के पीछे ब्रिटिश अधिकारियों के मुख्य उद्देश्य क्या थे और वे इन उद्देश्यों को प्राप्त करने में कहाँ तक सफल रहे?
- जोतदार और ज़मींदार दोनों ग्रामीण शक्ति के केंद्र थे। उनके बीच संबंध जटिल क्यों थे और जोतदारों ने किस प्रकार ज़मींदारों की सत्ता को चुनौती दी?
- राजमहल की पहाड़ियों के पहाड़िया और संथाल समुदायों की जीवन-शैलियों की तुलना कीजिए। औपनिवेशिक शासन ने दोनों समुदायों को कैसे प्रभावित किया और उनके बीच संघर्ष का मुख्य कारण क्या था?
- बंबई दक्कन के रैयत 1875 में साहूकारों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए क्यों मजबूर हुए? उनकी मुख्य शिकायतें क्या थीं और साहूकार किस प्रकार उनका शोषण कर रहे थे?
- दक्कन दंगा रिपोर्ट इतिहासकार के लिए किस प्रकार एक मूल्यवान स्रोत है? इस रिपोर्ट से हमें 19वीं सदी के ग्रामीण दक्कन के बारे में क्या जानकारी मिलती है?
- फ्रांसिस बुकानन और विलियम होजेस जैसे ब्रिटिश व्यक्तियों के विवरणों को ऐतिहासिक स्रोत के रूप में उपयोग करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? उनके दृष्टिकोण किस प्रकार भिन्न या समान थे?
✨ अध्याय का संक्षिप्त सारांश (Board Exam Revision Special) ✨
- बंगाल: औपनिवेशिक शासन की शुरुआत। इस्तमरारी बंदोबस्त (1793) ज़मींदारों से राजस्व तय करने हेतु लागू। ऊंची मांग से ज़मींदार विफल, ज़मींदारियां नीलाम।
- प्रतिरोध: ज़मींदारों ने फर्जी बिक्री (बेनामी) व लठियालों से प्रतिरोध किया।
- जोतदार: धनी किसानों (जोतदार) का उदय, ज़मींदारों को चुनौती।
- पहाड़ियां और संथाल: राजमहल की पहाड़ियों में पहाड़िया (झूम खेती) और बाद में आए संथाल (स्थायी कृषि)। स्थायी कृषि के विस्तार से पहाड़िया विस्थापित।
- दक्कन विद्रोह: बंबई दक्कन में नई रैयतवाड़ी व्यवस्था, ऊंची राजस्व मांग। कपास व्यापार में गिरावट, ऋणदाताओं का ऋण से इनकार।
- शोषण: साहूकारों द्वारा उच्च ब्याज, धोखाधड़ी, परिसीमन कानून (1859) का दुरुपयोग।
- विद्रोह (1875): शोषण से किसानों का साहूकारों के खिलाफ विद्रोह, बही-खाते जलाए।
- स्रोत: फ्रांसिस बुकानन की रिपोर्ट, पांचवीं रिपोर्ट, दक्कन दंगा आयोग की रिपोर्ट महत्वपूर्ण।
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यह विस्तृत नोट्स आपको अध्याय को अच्छी तरह से समझने और परीक्षा की तैयारी करने में मदद करेंगे। शुभकामनाएं!