🌾 अध्याय 8: किसान, ज़मींदार और राज्य (लगभग सोलहवीं और सत्रहवीं सदी) 🕌
यह अध्याय सोलहवीं और सत्रहवीं सदी के दौरान मुग़ल साम्राज्य के कृषि समाज, किसानों, ज़मींदारों और राज्य के बीच संबंधों पर आधारित है। यह हमें उस समय के ग्रामीण जीवन और कृषि उत्पादन की गहरी समझ प्रदान करता है।
1. 📜 सभी महत्वपूर्ण विषयों की सरल एवं स्पष्ट हिंदी में व्याख्या:
गाँव का समाज और कृषि उत्पादन
सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में लगभग 85% आबादी गाँवों में रहती थी। किसान, चाहे छोटे हों या भूस्वामियों जैसे संभ्रांत लोग, कृषि उत्पादन से जुड़े थे। वे ज़मीन की जुताई, बीज बोने और फसल काटने जैसे काम करते थे। कृषि पर आधारित वस्तुओं जैसे चीनी और तेल के उत्पादन में भी उनकी भागीदारी होती थी। ग्रामीण समाज इन रिश्तों से बना था।
राज्य का हस्तक्षेप
मुग़ल राज्य एक महत्वपूर्ण बाहरी शक्ति थी जो ग्रामीण दुनिया में दाखिल हुई। राज्य अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा कृषि उत्पादन से प्राप्त करता था। राज्य के प्रतिनिधि, जैसे राजस्व निर्धारित करने वाले, वसूलने वाले और हिसाब रखने वाले, ग्रामीण समाज पर नियंत्रण रखने की कोशिश करते थे। वे सुनिश्चित करना चाहते थे कि खेतों की जुताई हो और राज्य को समय पर उपज का हिस्सा मिले।
बाजार और व्यापार
कई फसलें बिक्री के लिए उगाई जाती थीं। इसलिए व्यापार, मुद्रा और बाजार भी गाँवों तक पहुँच गए, जिससे कृषि क्षेत्र शहरों से जुड़ गया।
भौगोलिक विविधता और कृषि
ग्रामीण भारत की विशेषता सिर्फ मैदानी इलाकों में बसे किसानों की खेती नहीं थी। सूखे या पहाड़ी क्षेत्रों में अलग तरह की खेती होती थी। भूखंड का एक बड़ा हिस्सा जंगलों से घिरा था। कृषि समाज को समझने के लिए इन भौगोलिक विविधताओं को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है।
सिंचाई और तकनीक
जमीन की बहुतायत, मजदूरों की उपलब्धता और किसानों की गतिशीलता के कारण कृषि का लगातार विस्तार हुआ। चूंकि खेती का प्राथमिक उद्देश्य लोगों का पेट भरना था, इसलिए चावल, गेहूँ, ज्वार जैसी दैनिक भोजन की फसलें सबसे ज्यादा उगाई जाती थीं। 40 इंच या उससे ज्यादा बारिश वाले इलाकों में चावल की खेती होती थी, जबकि कम बारिश वाले क्षेत्रों में गेहूँ, ज्वार-बाजरा उगाया जाता था। मानसून भारतीय कृषि की रीढ़ था। कुछ फसलों के लिए अतिरिक्त पानी की आवश्यकता होती थी, जिसके लिए कृत्रिम सिंचाई के तरीके बनाए गए।
किसानों की बस्तियों का बसना-उजड़ना
यह हिंदुस्तान के कृषि समाज की एक खास बात थी जिसे मुग़ल शासक बाबर ने अपनी यादों, 'बाबरनामा' में नोट किया। बाबर हैरान था कि बस्तियाँ और गाँव, यहाँ तक कि शहर भी, एक पल में वीरान हो जाते हैं और बस जाते हैं। सालों से आबाद बड़ा शहर छोड़कर लोग चले जाते हैं तो डेढ़ दिन में उसका निशान मिट जाता है। दूसरी ओर, वे कहीं बसना चाहें तो उन्हें पानी के रास्ते खोदने की ज़रूरत नहीं होती क्योंकि फसलें बारिश के पानी से उगती हैं, और आबादी बहुत ज़्यादा है। लोग तालाब या कुआँ बना लेते हैं; उन्हें घर या दीवार बनाने की भी ज़रूरत नहीं होती। बहुतायत में पाई जाने वाली घास और जंगल से झोंपड़ियाँ बनाई जाती हैं, और अचानक एक गाँव या शहर खड़ा हो जाता है।
फसलों की भरमार
खेती के दो मुख्य चक्र थे: खरीफ (पतझड़ में) और रबी (वसंत में)। सूखे और बंजर इलाकों को छोड़कर, ज्यादातर जगहों पर साल में कम से कम दो फसलें होती थीं। जहाँ बारिश या सिंचाई के साधन उपलब्ध थे, वहाँ तीन फसलें भी उगाई जाती थीं। इसके कारण पैदावार में भारी विविधता थी। आइन-ए-अकबरी के अनुसार, मुग़ल प्रांत आगरा में दोनों मौसमों में मिलाकर 39 तरह की फसलें और दिल्ली प्रांत में 43 फसलें उगाई जाती थीं। बंगाल में अकेले चावल की 50 किस्में पैदा होती थीं।
मुद्रा का प्रवाह
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में मुग़ल साम्राज्य उन बड़े एशियाई साम्राज्यों में से एक था जो सत्ता और संसाधनों पर पकड़ बनाने में सफल रहे। इन साम्राज्यों की राजनीतिक स्थिरता ने चीन से लेकर भूमध्य सागर तक स्थलीय व्यापार का जीवंत जाल बिछाने में मदद की। खोज यात्राओं और 'नई दुनिया' के खुलने से यूरोप और एशिया, खासकर भारत के बीच व्यापार में भारी विस्तार हुआ। इससे भारत के समुद्री व्यापार में भौगोलिक विविधता आई और नई वस्तुओं का व्यापार शुरू हुआ। लगातार बढ़ते व्यापार के कारण बड़ी मात्रा में चांदी भारत में आई। जोवान्नी कारेरी के लेख (बर्नियर पर आधारित) के अनुसार, दुनिया भर का सारा सोना-चांदी आखिरकार यहीं (मुग़ल साम्राज्य में) पहुँच जाता था। इसका एक बड़ा हिस्सा अमेरिका से आता था और यूरोप के कई राज्यों से होते हुए तुर्की, फारस पहुँचता था, और फिर जहाजों से हिंदुस्तान भेजा जाता था। डच, अंग्रेजी और पुर्तगाली जहाज जो हर साल हिंदुस्तान से वस्तुएं ले जाते थे, उन्हें भी इन देशों से बहुत सारा सोना-चांदी वहां पहुंचाना पड़ता था।
ज़मींदार
मुग़ल भारत में कृषि संबंधों की कहानी ज़मींदारों के उल्लेख के बिना अधूरी है। ये वे लोग थे जिनकी कमाई खेती से आती थी, लेकिन वे सीधे कृषि उत्पादन में हिस्सेदारी नहीं करते थे। वे अपनी ज़मीन के मालिक होते थे और ग्रामीण समाज में उनकी ऊँची हैसियत के कारण उन्हें विशेष सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ प्राप्त थीं। ज़मींदारों की ऊँची हैसियत का एक कारण जाति था, और दूसरा यह कि वे राज्य को कुछ खास सेवाएँ ('खिदमत') देते थे। अबुल फज़ल ने संकेत दिया कि 'ऊँची जाति' के ब्राह्मण-राजपूत गठबंधन का ग्रामीण समाज पर पहले से ही ठोस नियंत्रण था। इसमें तथाकथित मध्यम जातियों और कई मुस्लिम ज़मींदारों का भी प्रतिनिधित्व था। ज़मींदारों की उत्पत्ति का एक संभावित स्रोत युद्ध में जीत था। कभी-कभी, ज़मींदारी फैलाने का एक तरीका ताकतवर सैन्य सरदारों द्वारा कमजोर लोगों को बेदखल करना था, लेकिन राज्य शायद ही ऐसी आक्रामक कार्रवाई की अनुमति देता जब तक कि राजाज्ञा (सनद) द्वारा इसकी पुष्टि पहले से न हो गई हो। ज़मींदारी को पक्का करने की एक धीमी प्रक्रिया भी थी, जिसमें नई जमीनें बसाना (जंगल-बारी), अधिकारों का हस्तांतरण, राज्य का आदेश, या खरीद शामिल थे। इन प्रक्रियाओं से अपेक्षाकृत 'निचली' जातियों के लोग भी ज़मींदार बन सकते थे।
महिलाओं की भूमिका 👩🌾
कृषि उत्पादन प्रक्रिया में पुरुष और महिलाएँ विशिष्ट भूमिकाएँ निभाते थे। वे कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में काम करते थे। पुरुष खेत जोतते और हल चलाते थे, जबकि महिलाएँ बुवाई, निराई और कटाई तथा पकी हुई फसल से दाना निकालने का काम करती थीं। जब छोटी ग्रामीण इकाइयाँ और किसान की व्यक्तिगत खेती विकसित हुई, तो घर-परिवार के संसाधन और श्रम उत्पादन का आधार बने। ऐसे में आम तौर पर किया जाने वाला लिंग-आधारित अंतर (घर के लिए महिलाएँ और बाहर के लिए पुरुष) संभव नहीं था। फिर भी महिलाओं की जैविक प्रक्रियाओं को लेकर पूर्वाग्रह बने रहे। उदाहरण के लिए, पश्चिमी भारत में, रजस्वला महिलाओं को हल या कुम्हार का चाक छूने की अनुमति नहीं थी, और बंगाल में मासिक धर्म के दौरान महिलाएँ पान के बागान में नहीं जा सकती थीं। सूत कातना, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी साफ करना और गूंथना, और कपड़ों पर कढ़ाई जैसे दस्तकारी के काम महिलाओं के श्रम पर निर्भर थे। किसी वस्तु का जितना अधिक व्यवसायीकरण होता था, उसके उत्पादन के लिए महिलाओं के श्रम की उतनी ही अधिक माँग होती थी। किसान और दस्तकार महिलाएँ ज़रूरत पड़ने पर खेतों में काम करने के अलावा नियोक्ताओं के घरों पर भी जाती थीं और बाजारों में भी।
गाँव में मुद्रा (Money in the village) 💰
सत्रहवीं सदी में फ्रांसीसी यात्री जाँ बैप्टिस्ट टैवर्नियर को यह उल्लेखनीय लगा कि भारत में ऐसे गाँव बहुत कम होंगे जहाँ मुद्रा का फेरबदल करने वाले, जिन्हें सराफ़ कहते हैं, न हों। एक बैंकर की तरह सराफ़ हवाला भुगतान करते थे और अपनी मर्जी के अनुसार पैसे के मुकाबले रुपये और कौड़ियों के मुकाबले पैसे की कीमत बढ़ा देते थे।
भूमि-राजस्व प्रणाली
जमीन से मिलने वाला राजस्व मुग़ल साम्राज्य की आर्थिक नींव थी। कृषि उत्पादन पर नियंत्रण रखने और साम्राज्य के सभी इलाकों में राजस्व आकलन व वसूली के लिए राज्य ने एक प्रशासनिक तंत्र खड़ा किया। दीवान, जिसके दफ़्तर पर पूरे राज्य की वित्तीय व्यवस्था की देखरेख की ज़िम्मेदारी थी, इस तंत्र में शामिल था। इस तरह हिसाब रखने वाले और राजस्व अधिकारी खेती की दुनिया में दाखिल हुए और कृषि संबंधों को shaping देने में एक निर्णायक शक्ति के रूप में उभरे।
2. 📖 प्रमुख परिभाषाएँ, संकल्पनाएँ और शब्दों की स्पष्ट व्याख्या:
रैयत (Ryot) / रियाया (Riyaya) / मुज़रियन (Muzarian): मुग़ल काल के भारतीय-फ़ारसी स्रोतों में किसानों के लिए आमतौर पर इन शब्दों का इस्तेमाल किया जाता था।
खुद-काश्त (Khud-kashta): ये वे किसान थे जो उसी गाँव में रहते थे जहाँ उनकी ज़मीनें थीं।
पाही-काश्त (Pahi-kashta): ये वे किसान थे जो दूसरे गाँवों से ठेके पर खेती करने आते थे। लोग अपनी मर्जी से या मजबूरी (जैसे अकाल या भुखमरी के बाद आर्थिक परेशानी) से पाही-काश्त बनते थे।
जिन्स-ए-कामिल (Jins-i kamil): इसका अर्थ है 'सर्वोत्तम फसलें'। मुग़ल राज्य इन फसलों की खेती को बढ़ावा देता था क्योंकि इनसे राज्य को ज्यादा कर मिलता था। कपास और गन्ना जैसी फसलें बेहतरीन जिन्स-ए-कामिल थीं।
पेशकश (Peshkash): यह मुग़ल राज्य द्वारा ली जाने वाली एक तरह की भेंट थी।
सर्राफ़ (Sarraf): सत्रहवीं सदी में गाँवों में पाए जाने वाले मुद्रा का फेरबदल करने वाले लोग, जो बैंकर की तरह हवाला भुगतान करते थे और मुद्रा की कीमतें तय करते थे।
दीवान (Diwan): मुग़ल साम्राज्य में एक अधिकारी, जिसके दफ़्तर पर पूरे राज्य की वित्तीय व्यवस्था की देखरेख की ज़िम्मेदारी थी।
अमीन (Amin): एक मुलाज़िम (अधिकारी) जिसकी ज़िम्मेदारी प्रांतों में राजकीय नियम कानूनों का पालन सुनिश्चित करना था।
पोलज (Polaj): वह ज़मीन जिसमें एक के बाद एक हर फसल की सालाना खेती होती है और जिसे कभी खाली नहीं छोड़ा जाता।
परौती (Parauti): वह ज़मीन जिस पर कुछ दिनों के लिए खेती रोक दी जाती है ताकि वह अपनी खोई ताकत वापस पा सके।
चचर (Chachar): वह ज़मीन जो तीन या चार वर्षों तक खाली रहती है।
बंजर (Banjar): वह ज़मीन जिस पर पाँच या उससे ज्यादा वर्षों से खेती नहीं की गई हो।
जमा (Jama): निर्धारित राजस्व।
3. 🖼️ पुस्तक में दिए गए उदाहरणों (चित्रों/स्रोतों) का विश्लेषण:
अध्याय में सीधे 'उदाहरण' के रूप में कोई गणितीय या गणनात्मक प्रश्न नहीं दिए गए हैं। हालांकि, अध्याय में कुछ चित्र और स्रोत दिए गए हैं जिनका विश्लेषण यहाँ प्रस्तुत है:
चित्र 8.1 (एक ग्रामीण दृश्य)
यह सत्रहवीं शताब्दी के एक मुग़ल चित्र का विवरण है। चित्र में कृषि से जुड़े कई कार्यकलाप दिखाए गए हैं। लोग कुएं से पानी निकाल रहे हैं, संभवतः सिंचाई के लिए या पीने के लिए। कुछ लोग जमीन पर काम कर रहे हैं, संभवतः बीज बो रहे हैं या फसल की देखभाल कर रहे हैं। दूर खेतों को छोटे-छोटे भूखंडों में विभाजित दिखाया गया है, जो व्यक्तिगत स्वामित्व का संकेत देता है। पेड़ और हरियाली भी दिखाई गई है। यह चित्र उस समय के ग्रामीण जीवन और कृषि पद्धतियों का एक visual record प्रस्तुत करता है।
स्रोत 1 (बाबरनामा से अंश) और चित्र 8.3 (एक पंजाबी गाँव का चित्र)
स्रोत 1 में, बाबर हिंदुस्तान (उत्तरी भारत) के कृषि जीवन की कुछ खास बातें बताता है:
- वह हैरान होता है कि बस्तियाँ और गाँव, यहाँ तक कि शहर भी, बहुत तेज़ी से बस जाते हैं और उजड़ जाते हैं। अगर लोग किसी बड़े शहर को छोड़कर जाते हैं तो डेढ़ दिन में उसका कोई निशान नहीं रहता। अगर वे कहीं बसना चाहते हैं तो उन्हें पानी के रास्ते खोदने की ज़रूरत नहीं पड़ती क्योंकि फसलें बारिश से उगती हैं। आबादी बहुत ज़्यादा है।
- वे तालाब या कुआँ बना लेते हैं। उन्हें घर या दीवार बनाने की ज़रूरत नहीं होती। घास और जंगल से झोंपड़ियाँ बनाई जाती हैं और अचानक गाँव या शहर खड़ा हो जाता है। यह गाँवों की अस्थायी प्रकृति और निर्माण की सादगी पर प्रकाश डालता है।
- सिंचाई: बाबर उत्तर भारत में इस्तेमाल होने वाले सिंचाई के तरीकों का भी वर्णन करता है:
- रहट (Rahat): लाहौर, दीपालपुर और ऐसी अन्य जगहों पर लोग रहट से सिंचाई करते हैं। इसमें कुएँ की गहराई के अनुसार रस्सी के दो गोलाकार फंदे होते हैं। इनमें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लकड़ी के गुटके और उन पर घड़े बांधे होते हैं। ये रस्सियाँ कुएँ के ऊपर पहियों से लटकी होती हैं। पहिए की धुरी पर एक और पहिया होता है, जिसे बैल घुमाते हैं। इस पहिए के दांत पास के दूसरे पहिए के दांतों को पकड़ लेते हैं और घड़ों वाला पहिया घूमने लगता है। जहाँ घड़ों से पानी गिरता है, वहाँ एक संकरा नाला खोद दिया जाता है और इस तरह हर जगह पानी पहुँचाया जाता है।
- बाल्टियों से सिंचाई: आगरा, चांदवर और बयाना तथा अन्य इलाकों में लोग बाल्टियों से सिंचाई करते हैं। वे कुएँ के किनारे लकड़ी के खंभे गाड़ देते हैं और उनके बीच बेलन टिकाते हैं। एक बड़ी बाल्टी में रस्सी बांधते हैं, रस्सी को बेलन पर लपेटते हैं और दूसरे छोर को बैल से बांध देते हैं। एक व्यक्ति को बैल हांकना पड़ता है और दूसरा बाल्टी से पानी निकालता है।
- बाबर के अनुसार, उत्तर भारत की ज़्यादातर ज़मीन मैदानी है, और यहाँ शहर और खेती योग्य ज़मीन बहुतायत में है, लेकिन बहते पानी का इंतज़ाम कहीं नहीं है। शरद ऋतु की फसलें बारिश के पानी से पैदा होती हैं, और वसंत ऋतु की फसलें तब भी पैदा हो जाती हैं जब बारिश बिल्कुल नहीं होती। छोटे पेड़ों तक बाल्टियों या रहट से पानी पहुँचाया जाता है।
चित्र 8.3 में महिलाएँ और पुरुष क्या करते दिख रहे हैं: चित्र 8.3 पंजाब के एक गाँव को दर्शाता है। चित्र में महिलाएँ और पुरुष दोनों विभिन्न गतिविधियों में संलग्न दिख रहे हैं। पुरुष शायद खेती से जुड़े काम कर रहे हैं या गाँव की चर्चा में भाग ले रहे हैं। महिलाएँ शायद घरेलू काम कर रही हैं, पानी भर रही हैं, या संभवतः दस्तकारी जैसे काम कर रही हैं। गाँव की वास्तुकला मिट्टी और घास-फूस की झोंपड़ियों से बनी दिखती है, जैसा कि बाबर ने भी वर्णन किया था। कुछ पक्के निर्माण भी हो सकते हैं। चित्र में लोग पारंपरिक वेशभूषा पहने दिख रहे हैं।
चित्र 8.5 (कपड़ा उत्पादन को दर्शाती चित्रकारी)
यह सत्रहवीं शताब्दी की चित्रकारी है जो कपड़ा उत्पादन से जुड़ी गतिविधियाँ दिखाती है। चित्र में लोग सूत कातते हुए, धागे तैयार करते हुए, और शायद बुनाई या रंगाई जैसे काम करते हुए दिखाए गए हैं। यह दर्शाता है कि दस्तकारी, विशेष रूप से कपड़ा उत्पादन, ग्रामीण क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण गतिविधि थी और इसमें पुरुषों और महिलाओं दोनों का श्रम शामिल था।
चित्र 8.10 (सूफी गायक को सुनते हुए किसान और शिकारी)
यह चित्र दिखाता है कि ग्रामीण समाज में कृषि और शिकार के अलावा अन्य सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी होती थीं। एक किसान और एक शिकारी एक सूफी गायक को सुन रहे हैं, जो ग्रामीण जीवन में मनोरंजन और धार्मिक/सांस्कृतिक प्रभावों की उपस्थिति को दर्शाता है।
चित्र 8.16 (मिठाई बेचती हुई महिला)
यह चित्र ग्रामीण या शहरी बाजार में एक महिला को मिठाई बेचते हुए दिखाता है। यह दर्शाता है कि महिलाएँ केवल कृषि या दस्तकारी तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि व्यापार और बाजार से जुड़ी गतिविधियों में भी भाग लेती थीं।
4. ✍️ अध्याय के अभ्यास प्रश्नों (Exercise Questions) के विस्तृत उत्तर:
प्रश्न (स्रोत 1 के नीचे, पृष्ठ 199): कृषि जीवन के उन पहलुओं का विवरण दीजिए जो बाबर को उत्तरी भारत के इलाके की खासियत लगी।
उत्तर: बाबर को उत्तरी भारत के कृषि जीवन में निम्नलिखित पहलू खासियत लगे:
- गाँवों और शहरों का बहुत तेज़ी से बसना और उजड़ जाना। लोग एक बड़े शहर को छोड़कर इतनी जल्दी चले जाते हैं कि डेढ़ दिन में उसका कोई निशान नहीं रहता।
- कहीं भी बसने के लिए पानी के रास्ते खोदने की ज़रूरत नहीं होती क्योंकि फसलें बारिश के पानी पर निर्भर करती हैं।
- आबादी का बहुत ज़्यादा होना।
- सरलता से उपलब्ध घास और जंगल का उपयोग करके झोंपड़ियाँ बनाना और जल्दी से गाँव या शहर बसा लेना।
- बहते पानी के इंतज़ाम का अभाव।
- शरद ऋतु की फसलों का बारिश पर निर्भर होना और वसंत ऋतु की फसलों का बिना बारिश के भी उगना।
- छोटे पेड़ों तक बाल्टियों या रहट से पानी पहुँचाने की आवश्यकता।
प्रश्न (पृष्ठ 199 पर): सिंचाई के जिन साधनों का ज़िक्र बाबर ने किया है उनकी तुलना विजयनगर की सिंचाई (अध्याय 7) व्यवस्था से कीजिए। सिंचाई की इन दोनों अलग-अलग प्रणालियों में किस-किस तरह के संसाधनों की ज़रूरत पड़ती होगी? इनमें से किन-किन प्रणालियों में कृषि तकनीक में सुधार के लिए किसानों की भागीदारी ज़रूरी होती होगी?
उत्तर:
- सिंचाई साधनों की तुलना: बाबर ने उत्तर भारत में रहट और बाल्टियों से कुएँ के पानी के उपयोग का वर्णन किया। विजयनगर साम्राज्य में सिंचाई मुख्य रूप से बड़े जलाशयों (जैसे कमलपुरम् जलाशय) और नहरों पर आधारित थी। उत्तर भारत में व्यक्तिगत या छोटे समूह स्तर पर कुएँ से सिंचाई प्रमुख थी, जबकि विजयनगर में सामुदायिक या राज्य स्तर पर बड़े पैमाने पर जल संचयन और वितरण प्रणाली विकसित की गई थी।
- संसाधनों की ज़रूरत:
- रहट और बाल्टी प्रणाली: इसमें कुएँ खोदने, लकड़ी, रस्सी, चमड़े की बाल्टी या मिट्टी के घड़े, और पशु शक्ति (बैल) जैसे संसाधनों की आवश्यकता होती थी। यह अपेक्षाकृत कम पूंजी और स्थानीय संसाधनों पर आधारित थी।
- विजयनगर की प्रणाली: इसमें बड़े बांधों, जलाशयों और नहरों के निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर श्रम, इंजीनियरिंग कौशल, पत्थर, मिट्टी और राज्य के वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होती थी। यह अधिक पूंजी-गहन और संगठित प्रयास था।
- किसानों की भागीदारी:
- रहट और बाल्टी प्रणाली में किसानों की सीधी और व्यक्तिगत भागीदारी महत्वपूर्ण थी। उन्हें स्वयं कुएँ खोदने, उपकरणों को बनाने और बनाए रखने, और बैलों का उपयोग करके सिंचाई का काम करने की आवश्यकता होती थी। कृषि तकनीक में सुधार, जैसे बेहतर रहट या बाल्टी डिजाइन, व्यक्तिगत किसानों या स्थानीय समुदायों द्वारा किए जा सकते थे।
- विजयनगर की बड़ी सिंचाई प्रणालियों में, राज्य या समुदाय निर्माण और रखरखाव में प्रमुख भूमिका निभाता था। किसानों की भागीदारी मुख्य रूप से नहरों से अपने खेतों तक पानी मोड़ने और शायद रखरखाव में कुछ श्रम प्रदान करने के रूप में होती थी। तकनीक में बड़े पैमाने पर सुधार राज्य या शासक वर्ग द्वारा संचालित होते थे। हालांकि, जल वितरण के प्रबंधन और दक्षता में किसानों के बीच सहयोग महत्वपूर्ण रहा होगा।
प्रश्न (चित्र 8.3 के नीचे, पृष्ठ 16): चित्र में महिलाएँ और पुरुष क्या-क्या करते दिखाए गए हैं? गाँव की वास्तुकला का भी वर्णन कीजिए।
उत्तर: इस प्रश्न का उत्तर ऊपर 'स्रोत 1 (बाबरनामा से अंश) और चित्र 8.3 (एक पंजाबी गाँव का चित्र)' के विश्लेषण में दिया गया है। संक्षेप में: पुरुष खेती या चर्चा में, महिलाएँ घरेलू या दस्तकारी कार्यों में। वास्तुकला मिट्टी व घास-फूस की झोपड़ियां, जैसा बाबर ने वर्णित किया।
प्रश्न (चित्र 8.4 के नीचे, पृष्ठ 203): चित्रकार ने गाँव के बुजुर्गों और कर अधिकारियों में फर्क कैसे डाला है?
उत्तर: चित्र 8.4 में, चित्रकार ने गाँव के बुजुर्गों और कर अधिकारियों को उनकी वेशभूषा, बैठने की स्थिति और आसपास के अन्य लोगों के साथ उनके interaction के तरीके से अलग किया है। बुजुर्ग अक्सर पगड़ी पहने हुए, सम्मानित स्थिति में बैठे या खड़े दिखाए जाते हैं, और उनके चेहरे पर अनुभव और ज्ञान की छाप होती है। वे शायद पंचायत में सलाह दे रहे हैं या निर्णय ले रहे हैं। कर अधिकारी आमतौर पर मुग़ल दरबार से जुड़ी अधिक औपचारिक या विशिष्ट वेशभूषा में होते हैं, शायद हथियार लिए हुए लोगों के साथ, और उनका व्यवहार अधिक आधिकारिक या ज़बरदस्ती वाला लग सकता है, खासकर अगर वे राजस्व वसूली कर रहे हों। चित्र में, बुजुर्गों को शायद ज़मींदारों या गाँव के मुखियाओं के रूप में दिखाया गया है जिनके पास संपत्ति के वंशानुगत अधिकार थे।
प्रश्न (पृष्ठ 212 पर): चर्चा कीजिए - आज़ादी के बाद भारत में ज़मींदारी व्यवस्था खत्म कर दी गई। इस अनुभाग को पढ़िए और उन कारणों की पहचान कीजिए जिनकी वजह से ऐसा किया गया।
उत्तर: अध्याय के इस अनुभाग (खंड 5) में ज़मींदारों के बारे में चर्चा की गई है। यद्यपि यह सीधे तौर पर आज़ादी के बाद के कारणों का उल्लेख नहीं करता, स्रोत में वर्णित ज़मींदारी व्यवस्था की प्रकृति से इसके उन्मूलन के कारणों का अनुमान लगाया जा सकता है:
- ग्रामीण समाज में ऊँची स्थिति और विशेष सुविधाएँ: ज़मींदारों के पास अपनी ज़मीन के स्वामित्व के साथ-साथ ग्रामीण समाज में ऊँची हैसियत और विशेष सामाजिक व आर्थिक सुविधाएँ थीं।
- कृषि उत्पादन में सीधी भागीदारी का अभाव: ज़मींदार कृषि उत्पादन में सीधे तौर पर शामिल नहीं होते थे, फिर भी उन्हें आय प्राप्त होती थी। इससे मेहनत करने वाले किसानों और ज़मीन के मालिक ज़मींदारों के बीच एक बड़ा अंतर पैदा होता था।
- कमजोर वर्गों का शोषण: अध्याय में पंचायत के संदर्भ में ज़मींदारों या 'ऊँची जाति' के खिलाफ जबरन कर वसूली या बेगार की शिकायतों का उल्लेख है। यह संकेत देता है कि ज़मींदार अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर सकते थे और ग्रामीण समाज के कमजोर वर्गों का शोषण कर सकते थे।
- विरासत में मिले अधिकार और शक्ति का केंद्रीकरण: ज़मींदारों के पास अक्सर संपत्ति के वंशानुगत अधिकार होते थे। यह शक्ति कुछ ही लोगों के हाथों में केंद्रित हो जाती थी।
- किसानों के साथ विवाद: ज़मींदारों और किसानों के बीच राजस्व की मांग या अन्य मुद्दों पर अक्सर झगड़े होते थे। किसान कभी-कभी अत्यधिक कर की मांग के खिलाफ विरोध करते थे।
आज़ादी के बाद, इन असमानताओं को दूर करने, किसानों को ज़मीन का अधिकार देने और मध्यस्थों (ज़मींदारों) की भूमिका को समाप्त करके सीधे राज्य और किसान के बीच संबंध स्थापित करने के लिए ज़मींदारी व्यवस्था को समाप्त किया गया।
प्रश्न (पृष्ठ 214 पर): चर्चा कीजिए - क्या आप मुग़लों की भू-राजस्व प्रणाली को एक लचीली व्यवस्था मानेंगे?
उत्तर: मुग़लों की भू-राजस्व प्रणाली, विशेष रूप से अकबर के शासनकाल में Ain-i Akbari में वर्णित वर्गीकरण, कुछ हद तक लचीलापन दिखाती है:
- ज़मीन का वर्गीकरण: ज़मीन को उसकी उर्वरता और खेती की निरंतरता के आधार पर चार श्रेणियों में बाँटा गया था - पोलज, परौती, चचर और बंजर। यह recognition कि सभी ज़मीनें समान नहीं हैं और उन्हें अलग-अलग दरों पर कर लगाया जाना चाहिए, एक लचीलापन दर्शाता है।
- उत्पादन के आधार पर निर्धारण: पोलज और परौती भूमि के लिए, अच्छी, मध्यम और खराब किस्मों के औसत उत्पादन के आधार पर राजस्व तय किया जाता था। यह सैद्धांतिक रूप से उत्पादन क्षमता को ध्यान में रखता था।
- करों में छूट: हालांकि स्रोत सीधे तौर पर छूट का उल्लेख नहीं करता है, अन्य ऐतिहासिक जानकारी बताती है कि अकाल या आपदाओं के समय राजस्व में रियायतें दी जाती थीं।
हालांकि, कुछ पहलू inflexible हो सकते थे:
- निर्धारित दरें: राजस्व दरें एक बार तय होने के बाद बदलना मुश्किल हो सकता था।
- जबरन वसूली: स्रोतों में कर अधिकारियों द्वारा जबरन वसूली की शिकायतों का उल्लेख है। यह बताता है कि व्यवहार में प्रणाली कठोर हो सकती थी।
निष्कर्ष रूप में, सैद्धांतिक रूप से ज़मीन के वर्गीकरण और उत्पादन के आकलन के आधार पर मुग़ल भू-राजस्व प्रणाली में कुछ लचीलापन था, लेकिन इसका वास्तविक क्रियान्वयन क्षेत्र और अधिकारियों पर निर्भर करता था, और कभी-कभी किसानों के लिए यह कठोर हो सकती थी।
प्रश्न (पृष्ठ 220 पर): उन सभी स्रोतों की सूची बनाएँ जिनका इस्तेमाल अबुल फज़ल ने अपनी किताब पूरी करने के लिए किया था। कृषि संबंधों को समझने के लिए इनमें से कौन से स्रोत सबसे उपयोगी होते? आपके मुताबिक किस हद तक अबुल फज़ल की किताब अकबर से उसके रिश्ते से प्रभावित हुई होगी?
उत्तर:
- अबुल फज़ल द्वारा प्रयुक्त स्रोत: अबुल फज़ल ने अपनी किताब (संभवतः Ain-i Akbari, जो Akbarnama का हिस्सा है) पूरी करने के लिए कई स्रोतों का इस्तेमाल किया। स्रोत 35 और 36 से पता चलता है कि उसने शाही आदेश से:
- आधिकारिक दस्तावेज और अभिलेख एकत्र किए।
- जाँच-पड़ताल के माध्यम से विवरण प्राप्त किए।
- जानकार और दूरदर्शी लोगों द्वारा लिखे गए कच्चे मसौदे और ज्ञापन प्राप्त किए।
- मौखिक बयानों को भी शामिल किया, जिनकी सत्यता अन्य स्रोतों से पुष्टि करने का प्रयास किया गया।
- कृषि संबंधों के लिए सबसे उपयोगी स्रोत: कृषि संबंधों को समझने के लिए, Ain-i Akbari के वे भाग सबसे उपयोगी होंगे जिनमें भूमि का वर्गीकरण, राजस्व की दरें (जमा), मापी गई भूमि (अराज़ी और ज़मीन-ए-पैमूदा), ज़मींदारों (जाति और सेना सहित) की जानकारी और प्रांतों (सूबाओं) व उनकी प्रशासनिक इकाइयों (सरकार, परगना/महल) के भौगोलिक, स्थलाकृतिक और आर्थिक विवरण दिए गए हैं। खासकर 'मुल्क-आबादी' नामक तीसरा खंड कृषि समाज का विस्तृत चित्र प्रस्तुत करता है। मुग़ल राजधानी से दूर लिखे गए दस्तावेज़, जैसे गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान के राजस्व रिकॉर्ड और ईस्ट इंडिया कंपनी के पूर्वी भारत में कृषि संबंधों पर दस्तावेज़ भी उपयोगी हैं क्योंकि वे राज्य, ज़मींदारों और किसानों के बीच तनाव और संघर्षों को दर्ज करते हैं।
- अकबर से रिश्ते का प्रभाव: अबुल फज़ल की किताब आधिकारिक तौर पर अकबर के शासनकाल की सुविधा के लिए विस्तृत जानकारी एकत्र करने हेतु प्रायोजित की गई थी। अबुल फज़ल अकबर का दरबारी था और उसने किताब को पाँच बार संशोधित किया, जो प्रामाणिकता की तलाश को दर्शाता है। हालांकि, यह संभावना है कि अकबर से उसके रिश्ते और शाही संरक्षण ने किताब की सामग्री को प्रभावित किया होगा। किताब स्वाभाविक रूप से राज्य के दृष्टिकोण से लिखी गई है। राज्य और सम्राट की महिमा और दक्षता को दर्शाना एक उद्देश्य रहा होगा। यह पूरी तरह से समस्याओं से रहित नहीं है, जैसा कि योग त्रुटियों और कुछ क्षेत्रों से डेटा की अनुपलब्धता में देखा गया है। यह अकबर के शासन के अनुकूल एक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, जबकि किसानों जैसे अन्य वर्गों के दृष्टिकोण को शायद ही कभी सीधे तौर पर प्रस्तुत किया जाता है, सिवाय उन शिकायतों के जो राज्य या ज़मींदारों के खिलाफ दर्ज की गई थीं।
5. 💡 अध्याय की अवधारणाओं पर आधारित नये अभ्यास प्रश्न:
- मुग़ल काल में गाँवों में रहने वाले किसानों के विभिन्न प्रकारों (जैसे खुद-काश्त, पाही-काश्त) का वर्णन कीजिए और बताइए कि वे किन परिस्थितियों में एक गाँव से दूसरे गाँव प्रवास करते थे।
- सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी के मुग़ल ग्रामीण समाज में जाति व्यवस्था ने सामाजिक संबंधों और आर्थिक स्थिति को किस प्रकार प्रभावित किया? क्या सभी जातियों की गाँव की पंचायत में समान भागीदारी थी?
- 'आइन-ए-अकबरी' मुग़ल साम्राज्य के कृषि समाज को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत क्यों है? इस स्रोत की शक्ति और सीमाएँ (strengths and limitations) क्या हैं?
- बाबर ने 'बाबरनामा' में उत्तर भारत के कृषि जीवन की जिन खासियतों का उल्लेख किया, वे उस क्षेत्र की भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों से किस प्रकार संबंधित थीं?
- मुग़ल काल में कृषि का व्यवसायीकरण किस हद तक हुआ था? 'जिन्स-ए-कामिल' जैसी फसलें किस प्रकार राज्य और किसानों दोनों के लिए महत्वपूर्ण थीं?
- ज़मींदार मुग़ल ग्रामीण समाज में किस प्रकार एक प्रभावशाली वर्ग थे? उनकी शक्ति के स्रोत क्या थे और वे किसानों से किस प्रकार के संबंध साझा करते थे?
- मुग़ल भारत में महिलाओं ने कृषि और गैर-कृषि उत्पादन प्रक्रियाओं में क्या भूमिका निभाई? क्या लैंगिक पूर्वाग्रहों का उनकी गतिविधियों पर कोई प्रभाव पड़ता था?
- सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में भारत में चांदी का प्रवाह क्यों बढ़ा? इस व्यापार विस्तार का मुग़ल साम्राज्य और उसके कृषि समाज पर क्या प्रभाव पड़ा होगा?
- गाँव की पंचायत की संरचना और कार्यप्रणाली का वर्णन कीजिए। क्या यह संस्था सभी ग्रामीण निवासियों के लिए समान रूप से न्याय सुनिश्चित करती थी?
- मुग़ल साम्राज्य की भूमि-राजस्व प्रणाली का मुख्य उद्देश्य क्या था? इस प्रणाली में शामिल प्रमुख अधिकारी (जैसे दीवान, अमीन) कौन थे और उनकी क्या भूमिकाएँ थीं?
✨ अध्याय का संक्षिप्त सारांश (Board Exam Revision Special) ✨
- ग्रामीण जीवन का वर्चस्व: सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में भारत की अधिकांश आबादी (लगभग 85%) गाँवों में रहती थी और कृषि उनका मुख्य व्यवसाय था।
- कृषक समाज: किसान (रैयत/रियाया) कृषि उत्पादन की मूल इकाई थे। वे खेत जोतने, बोने, काटने के साथ-साथ कृषि आधारित उत्पादों के निर्माण में भी शामिल थे।
- किसानों के प्रकार: दो मुख्य प्रकार के किसान थे: खुद-काश्त (अपने गाँव में खेती करने वाले) और पाही-काश्त (दूसरे गाँवों से आकर ठेके पर खेती करने वाले)।
- भूमि स्वामित्व: कृषि व्यक्तिगत स्वामित्व के सिद्धांत पर आधारित थी। ज़मीन खरीदी और बेची जा सकती थी।
- कृषि विस्तार और विविधता: भूमि की बहुतायत और श्रम की उपलब्धता के कारण कृषि का विस्तार हुआ। मानसून महत्वपूर्ण था, लेकिन कुछ फसलों के लिए कृत्रिम सिंचाई (रहट, बाल्टी) का उपयोग होता था। साल में कम से कम दो, और जहाँ सिंचाई उपलब्ध थी, वहाँ तीन फसलें भी उगाई जाती थीं, जिससे फसलों में विविधता थी।
- व्यापार और बाज़ार: कई फसलें (जिन्स-ए-कामिल जैसे कपास, गन्ना) बिक्री के लिए उगाई जाती थीं, जिससे गाँव व्यापार, मुद्रा और बाज़ार से जुड़ गए। सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के कारण बड़ी मात्रा में चांदी भारत आई।
- सामाजिक संरचना: ग्रामीण समाज जाति, लिंग और अन्य भेदों के आधार पर विभाजित था। 'निचली' समझी जाने वाली जातियों और मजदूर वर्ग के लोगों को अक्सर कठिन काम दिए जाते थे और वे आर्थिक रूप से कमजोर थे।
- महिलाएँ और श्रम: महिलाएँ कृषि और दस्तकारी (सूत कातना, मिट्टी का काम) दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं और अक्सर बाहर काम करती थीं।
- ग्राम पंचायत: गाँव में बुजुर्गों (अक्सर संपत्ति के मालिकों) की पंचायत होती थी जो निर्णय लेती थी। इसमें विभिन्न जातियों का प्रतिनिधित्व हो सकता था, लेकिन गरीब मजदूरों की भागीदारी कम थी। पंचायत राज्य या ज़मींदारों के खिलाफ किसानों की शिकायतों पर सुनवाई कर सकती थी। गाँव छोड़कर भाग जाना किसानों के लिए विरोध का एक शक्तिशाली हथियार था।
- ज़मींदार: ये भूमि के मालिक थे जिनकी ग्रामीण समाज में ऊँची सामाजिक और आर्थिक स्थिति थी, जो जाति और राज्य को सेवाएँ देने से प्राप्त होती थी। वे सीधे उत्पादन में शामिल नहीं थे लेकिन आय प्राप्त करते थे। वे ग्रामीण समाज में शक्तिशाली थे, हालांकि कभी-कभी कमजोर वर्गों का शोषण करते थे।
- राज्य और राजस्व: मुग़ल राज्य के लिए भूमि राजस्व आय का मुख्य स्रोत था। राज्य ने राजस्व निर्धारण और वसूली के लिए दीवान और अमीन जैसे अधिकारियों के साथ एक प्रशासनिक तंत्र स्थापित किया। अकबर के शासन में भूमि को वर्गीकरण के आधार पर राजस्व तय किया गया।
- मुख्य स्रोत: मुग़ल दरबार के ऐतिहासिक ग्रंथ और दस्तावेज़ (जैसे आइन-ए-अकबरी, बाबरनामा) और प्रांतों तथा ईस्ट इंडिया कंपनी के रिकॉर्ड इस काल के कृषि इतिहास को समझने के मुख्य स्रोत हैं।
यह नोट्स आपको अध्याय की मुख्य बातों को समझने में मदद करेंगे। इसे पढ़कर और अभ्यास प्रश्नों को हल करके आप विषय पर अच्छी पकड़ बना सकते हैं। शुभकामनाएं!
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