NCERT-Class12-History-chapter6-भक्ति-सूफी परंपराएं - revision notes

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भक्ति-सूफी परंपराएं (अध्याय 6): स्व-अध्ययन नोट्स और विस्तृत समाधान

स्व-अध्ययन नोट्स: भक्ति-सूफी परंपराएं (अध्याय 6)

यह अध्याय भारतीय उपमहाद्वीप में आठवीं से अठारहवीं शताब्दी के दौरान विकसित हुई भक्ति और सूफी परंपराओं पर केंद्रित है। हम देखेंगे कि ये परंपराएं कैसे उभरीं, कैसे विकसित हुईं और कैसे समाज और शासकों के साथ उनके संबंध बने।

महत्वपूर्ण विषय एवं संकल्पनाएँ

1. 'महान' और 'लघु' परंपराएँ

- बीसवीं शताब्दी में समाजशास्त्री रॉबर्ट रेडफील्ड ने किसान समाज की सांस्कृतिक प्रथाओं का वर्णन करने के लिए 'महान' और 'लघु' जैसे शब्दों का प्रयोग किया।

- उन्होंने देखा कि किसान उन अनुष्ठानों और पद्धतियों का अनुकरण करते थे जिनका पालन समाज के प्रभावशाली वर्ग जैसे पुरोहित और राजा करते थे। इन अनुष्ठानों को रेडफील्ड ने 'महान' परंपरा की संज्ञा दी।

- साथ ही, कृषक समुदाय अन्य लोकाचारों का भी पालन करते थे जो इस महान परिपाटी से पूरी तरह भिन्न थे। इन्हें उन्होंने 'लघु' परंपरा के नाम से अभिहित किया।

- रेडफील्ड ने यह भी देखा कि 'महान' और 'लघु' दोनों ही परंपराओं में समय के साथ हुए पारस्परिक आदान-प्रदान के कारण परिवर्तन हुए।

- हालांकि विद्वान इन प्रक्रियाओं और वर्गीकरण के महत्व से इनकार नहीं करते, तथापि वे इन शब्दों में निहित पदानुक्रमित स्वर की आलोचना करते हैं। इसे लक्षित करने के लिए इन शब्दों को उद्धरण चिह्न के साथ प्रस्तुत किया जाता है जैसे 'लघु' और 'महान'

2. धार्मिक विश्वासों और आचरणों की गंगा-जमुनी बनावट

- इस काल की शायद सबसे प्रभावशाली विशेषता यह है कि साहित्य और मूर्तिकला दोनों में ही अनेक तरह के देवी-देवता अधिक से अधिक दृष्टिगोचर होते हैं।

- विष्णु, शिव और देवी, जिन्हें अनेक रूपों में व्यक्त किया गया था, की आराधना की परिपाटी न केवल चलती रही अपितु और अधिक विस्तृत हुई।

- इतिहासकार इस विकास को समझने के लिए कम से कम दो प्रक्रियाओं को कार्यरत मानते हैं:

  • ब्राह्मणीय विचारधारा का प्रचार: इसका प्रसार पौराणिक ग्रंथों की रचना, संकलन और परिरक्षण द्वारा हुआ। ये ग्रंथ सरल संस्कृत छंदों में थे जो वैदिक विद्या से विहीन स्त्रियों और शूद्रों द्वारा भी ग्राह्य थे।
  • ब्राह्मणों द्वारा स्थानीय आस्थाओं को स्वीकृति एवं नया रूप: इसी काल की एक अन्य प्रक्रिया थी स्त्री, शूद्रों व अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं और आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृत किया जाना और उसे एक नया रूप प्रदान करना।

- समाजशास्त्रियों का मानना है कि पूरे उपमहाद्वीप में अनेक धार्मिक विचारधाराएं और पद्धतियां 'महान' संस्कृत-पौराणिक परिपाटी तथा 'लघु' परंपरा के बीच हुए अविरल संवाद का परिणाम हैं।

- देवी संप्रदायों में समन्वय के उदाहरण: देवी की उपासना अधिकतर सिंदूर से पोते गए पत्थर के रूप में की जाती थी। इन स्थानीय देवियों को पौराणिक परंपरा के भीतर मुख्य देवताओं की पत्नी के रूप में मान्यता दी गई। कभी वे लक्ष्मी के रूप में विष्णु की पत्नी बनीं और कभी शिव की पत्नी पार्वती के रूप में सामने आईं।

- तांत्रिक पूजा पद्धति: अधिकांशतः देवी की आराधना पद्धति को तांत्रिक नाम से जाना जाता है। यह उपमहाद्वीप के कई भागों में प्रचलित थी। इसके अंतर्गत स्त्री और पुरुष दोनों ही शामिल हो सकते थे। इसके अतिरिक्त कर्मकांडीय संदर्भ में वर्ग और वर्ण के भेद की अवहेलना की जाती थी। इस पद्धति के विचारों ने शैव और बौद्ध दर्शन को भी प्रभावित किया।

- वैदिक देवकुल के अग्नि, इंद्र और सोम जैसे देवता पूरी तरह गौण हो गए और साहित्य व मूर्तिकला दोनों में ही उनका निरूपण नहीं दिखता। हालांकि वैदिक मंत्रों में विष्णु, शिव और देवी की झलक मिलती है, इसकी तुलना इनके विशद, पौराणिक मिथकों से कदापि नहीं की जा सकती। किंतु इन विसंगतियों के बावजूद वेदों को प्रामाणिक माना जाता रहा।

3. भक्ति परंपराएँ

- जिस काल विशेष पर हम गौर कर रहे हैं, उससे पूर्व लगभग एक हजार वर्ष पुरानी भक्तिपूर्ण उपासना की परिपाटी रही है।

- इस समय भक्ति प्रदर्शन में, मंदिरों में इष्टदेव की आराधना से लेकर उपासकों का प्रेमभाव में तल्लीन हो जाना, दिखाई पड़ता है। भक्ति रचनाओं का उच्चारण अथवा गाया जाना इस उपासना पद्धति के अंश थे। यह कथन वैष्णव और शैव संप्रदायों पर तो विशेष रूप से लागू होता है।

4. प्रारंभिक भक्ति आंदोलन: तमिलनाडु के अलवार और नयनार संत

- प्रारंभिक भक्ति आंदोलन (लगभग छठी शताब्दी) अलवारों (विष्णु भक्ति में तन्मय) और नयनारों (शिवभक्त) के नेतृत्व में हुआ।

- वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए तमिल में अपने इष्ट की स्तुति में भजन गाते थे।

- अपनी यात्राओं के दौरान अलवार और नयनार संतों ने कुछ पावन स्थलों को अपने इष्ट का निवासस्थल घोषित किया। इन्हीं स्थलों पर बाद में विशाल मंदिरों का निर्माण हुआ और वे तीर्थस्थल माने गए।

- संत-कवियों के भजनों को इन मंदिरों में अनुष्ठानों के समय गाया जाता था और साथ ही इन संतों की प्रतिमा की भी पूजा की जाती थी।

- कराइक्काल अम्मइयार: ये शिव की अनुयायी थीं और तमिल में भक्तिगान की रचना करती थीं। ये एक नयनार संत थीं। स्रोत 7 में उनकी कविता का उद्धरण है जहाँ वे स्वयं का वर्णन एक राक्षसी के रूप में करती हैं। यह वर्णन स्त्री सौंदर्य की पारंपरिक अवधारणा से भिन्न है।

- राज्य के साथ संबंध: तमिल क्षेत्र में पल्लव और पाण्ड्य राज्यों (छठी से नौवीं शताब्दी) का उदय हुआ। बौद्ध और जैन धर्म इस क्षेत्र में मौजूद थे और उन्हें व्यापारी व शिल्पी वर्ग का प्रश्रय प्राप्त था। इन धर्मों को राजकीय संरक्षण और अनुदान यदा-कदा ही हासिल होता था।

- तमिल भक्ति रचनाओं की एक मुख्य विषयवस्तु बौद्ध और जैन धर्म के प्रति उनका विरोध है। यह विरोध नयनार संतों की रचनाओं में विशेष रूप से उभर कर आता है। इतिहासकारों ने इस विरोध की व्याख्या करते हुए यह सुझाव दिया है कि परस्पर विरोधी धार्मिक समुदायों में राजकीय अनुदान को लेकर प्रतिस्पर्धा थी।

- शक्तिशाली चोल सम्राटों (नौवीं से तेरहवीं शताब्दी) ने ब्राह्मणीय और भक्ति परंपरा को समर्थन दिया तथा विष्णु और शिव के मंदिरों के निर्माण के लिए भूमि-अनुदान दिए।

5. कर्नाटक की वीरशैव परंपरा

- बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक में एक नवीन आंदोलन का उद्भव हुआ जिसका नेतृत्व बासवन्ना (1106-68) नामक एक ब्राह्मण ने किया। बासवन्ना कलचुरी राजा के दरबार में मंत्री थे।

- इनके अनुयायी वीरशैव (शिव के वीर) व लिंगायत (लिंग धारण करने वाले) कहलाए। आज भी लिंगायत समुदाय का इस क्षेत्र में महत्व है।

- वे शिव की आराधना लिंग के रूप में करते हैं। इस समुदाय के पुरुष बाएं कंधे पर चांदी के एक पिटारे में एक लघु लिंग को धारण करते हैं।

- जिन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है उनमें जंगम अर्थात यायावर भिक्षु शामिल हैं।

- लिंगायतों का विश्वास है कि मृत्युोपरांत भक्त शिव में लीन हो जाएंगे तथा इस संसार में पुनः नहीं लौटेंगे।

- वे धर्मशास्त्र में बताए गए श्राद्ध संस्कार का पालन नहीं करते और अपने मृतकों को विधिपूर्वक दफनाते हैं।

- बासवन्ना का अनुष्ठानों के प्रति रवैया: स्रोत 8 में बासवन्ना द्वारा रचित एक वचन है जो अनुष्ठानों की आलोचना करता है। वे एक पत्थर से बने सर्प को देखकर उस पर दूध चढ़ाने और असली सांप के आ जाने पर उसे मारने की बात कहते हैं। वे भोजन परोसने पर खाने वाले सेवक को 'चले जाओ' कहने और ईश्वर की प्रतिमा को व्यंजन परोसने की बात कहते हैं जो खा नहीं सकती। इस उदाहरण से वे अनुष्ठानों के प्रति अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हैं।

6. नए धार्मिक विकास (मध्यवर्ती शताब्दियाँ)

- मध्यवर्ती शताब्दियों में दो मुख्य विकास देखने में आए:

  • तमिल भक्तों (खासकर वैष्णव) के विचारों को संस्कृत परंपरा में समाहित कर लिया गया, जिसका परिणाम सर्वाधिक प्रसिद्ध पुराणों में से एक भागवत पुराण की रचना थी।
  • तेरहवीं शताब्दी में भक्ति परंपरा का विकास महाराष्ट्र में हुआ।

- उत्तरी भारत में, इस काल में विष्णु और शिव जैसे देवताओं की उपासना मंदिरों में की जाती थी जिन्हें शासकों की सहायता से निर्मित किया जाता था। किंतु इतिहासकारों को अलवार और नयनार संतों की रचनाओं जैसा कोई ग्रंथ चौदहवीं शताब्दी तक उत्तरी भारत से प्राप्त नहीं हुआ है।

7. इस्लाम का आगमन एवं परंपराएँ

- उपमहाद्वीप का समुद्र और पहाड़ों के पार के क्षेत्रों से भी संपर्क सदियों से बना रहा।

- प्रथम सहस्राब्दी ईसवी में अरब व्यापारी समुद्र के रास्ते पश्चिमी भारत के बंदरगाहों तक आए। इसी समय मध्य एशिया से लोग देश के उत्तर-पश्चिम प्रांतों में आकर बस गए।

- सातवीं शताब्दी में इस्लाम के उद्भव के बाद ये क्षेत्र उस संसार का हिस्सा बन गए जिसे अक्सर इस्लामी विश्व कहा जाता है।

- शासक वर्ग और इस्लाम: 711 ईसवी में मुहम्मद बिन कासिम नामक एक अरब सेनापति ने सिंध को विजित कर लिया और उसे खलीफा के क्षेत्र में शामिल कर लिया। बाद में (लगभग तेरहवीं शताब्दी ईसवी) तुर्क और अफगानों ने दिल्ली सल्तनत की नींव रखी। समय के साथ दक्कन और अन्य भागों में भी सल्तनत की सीमा का प्रसार हुआ।

- बहुत से क्षेत्रों में इस्लाम शासकों का स्वीकृत धर्म था। यह स्थिति सोलहवीं शताब्दी में मुगल सल्तनत की स्थापना के साथ भी बरकरार रही। अठारहवीं शताब्दी में जो क्षेत्रीय राज्य उभर कर आए उनमें से कई राज्यों के शासक भी इस्लाम धर्म को मानने वाले थे।

- उलेमा और शरिया: उलेमा इस्लाम धर्म के ज्ञाता थे। इस परिपाटी के संरक्षक होने के नाते वे धार्मिक, कानूनी और अध्यापन संबंधी जिम्मेदारी निभाते थे। सैद्धांतिक रूप से मुसलमान शासकों को उलेमा के मार्गदर्शन पर चलना होता था। उलेमा से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे शासन में शरिया का अमल सुनिश्चित करवाएंगे।

- शरिया मुसलमान समुदाय को निर्देशित करने वाला कानून है। यह कुरान शरीफ और हदीस पर आधारित है। हदीस का अर्थ है पैगंबर साहब से जुड़ी परंपराएं।

- जब अरब क्षेत्र से बाहर इस्लाम का प्रसार हुआ जहां के आचार-व्यवहार भिन्न थे, तो कयास (सादृश्यता के आधार पर तर्क) और इजमा (समुदाय की सहमति) को भी कानून का स्रोत माना जाने लगा। इस तरह शरिया, कुरान, हदीस, कयास और इजमा से उद्भूत हुआ।

- किंतु उपमहाद्वीप में स्थिति जटिल थी क्योंकि बड़ी जनसंख्या इस्लाम धर्म को मानने वाली नहीं थी।

- जिम्मी: इस संदर्भ में जिम्मी (संरक्षित श्रेणी) का प्रादुर्भाव हुआ। जिम्मी वे लोग थे जो उद्घाटित धर्मग्रंथ को मानने वाले थे जैसे इस्लामी शासकों के क्षेत्र में रहने वाले यहूदी और ईसाई। ये लोग जज़िया नामक कर चुका कर मुसलमान शासकों द्वारा संरक्षण दिए जाने के अधिकारी हो जाते थे। भारत में इसके अंतर्गत हिंदुओं को भी शामिल कर लिया गया।

- मुगल शासक अपने आपको न केवल मुसलमानों का अपितु सारे समुदायों का बादशाह मानते थे। वास्तव में शासक शासितों की तरफ काफी लचीली नीति अपनाते थे। उदाहरणतः, बहुत से शासकों ने भूमि अनुदान व कर की छूट हिंदू, जैन, पारसी, ईसाई और यहूदी धर्मसंस्थाओं को दी तथा साथ ही गैर-मुसलमान धार्मिक नेताओं के प्रति श्रद्धाभाव व्यक्त किया। ऐसे अनुदान अनेक मुगल बादशाहों जिनमें अकबर और औरंगज़ेब शामिल थे, द्वारा दिए गए।

- अकबर का फरमान (उदाहरण): स्रोत 5 खम्बात के गिरजाघर के बारे में एक फरमान का अंश है जिसे 1598 में अकबर ने जारी किया। इसमें अकबर ने यीशु की पवित्र जमात के पादरीयों को खम्बात शहर में गिरजाघर बनाने की इजाजत दी और अधिकारियों को उनके रास्ते में न आने का आदेश दिया।

- लोक प्रचलन में इस्लाम: इस्लाम के आगमन के बाद जो परिवर्तन हुए वे शासक वर्ग तक ही सीमित नहीं थे, अपितु पूरे उपमहाद्वीप में दूरदराज तक और विभिन्न सामाजिक समुदायों (किसान, शिल्पी, योद्धा, व्यापारी) के बीच फैल गए।

- जिन्होंने इस्लाम धर्म कबूल किया उन्होंने सैद्धांतिक रूप से इसकी पांच मुख्य बातें मानीं: अल्लाह एकमात्र ईश्वर है, पैगंबर मोहम्मद उनके दूत हैं ('शाहद'), दिन में पांच बार नमाज़ पढ़ी जानी चाहिए, खैरात (जकात) बांटनी चाहिए, रमज़ान के महीने में रोज़ा रखना चाहिए और हज के लिए मक्का जाना चाहिए।

- मस्जिदों की वास्तुकला (उदाहरण): एक सार्वभौमिक धर्म के स्थानीय आचारों के संग जटिल मिश्रण का सर्वोत्तम उदाहरण संभवतः मस्जिदों की स्थापत्य कला में दृष्टिगोचर होता है। मस्जिदों के कुछ स्थापत्य संबंधी तत्व सार्वभौमिक थे - जैसे इमारत का मक्का की तरफ अभिविन्यास जो मेहराब (प्रार्थना का आला) और मिंबर (व्यासपीठ) की स्थापना से लक्षित होता था। बहुत से तत्व ऐसे थे जिनमें भिन्नता देखने में आती है जैसे छत और निर्माण का सामान। (पाठ्यपुस्तक में चित्र 6-9 केरल में 13वीं शताब्दी की एक मस्जिद और चित्र 6-11 श्रीनगर की शाह हमदान मस्जिद का संदर्भ है)।

- म्लेच्छ: आप्रवासी समुदायों के लिए एक अधिक सामान्य शब्द म्लेच्छ था जो इस बात की ओर इंगित करता था कि वे वर्ण नियमों का पालन नहीं करते थे।

8. सूफीवाद और तसव्वुफ़

- सूफीवाद उन्नीसवीं शताब्दी में मुद्रित एक अंग्रेजी शब्द है। इस्लामी ग्रंथों में जिस शब्द का इस्तेमाल होता है वह है तसव्वुफ़

- कुछ विद्वानों के अनुसार यह शब्द 'सूफ' से निकलता है जिसका अर्थ ऊन है, जो उस खुरदुरे ऊनी कपड़े की ओर इशारा करता है जिसे सूफी पहनते थे। अन्य विद्वान इस शब्द की व्युत्पत्ति 'सफा' से मानते हैं जिसका अर्थ है साफ। यह भी संभव है कि यह शब्द 'सुफ्फा' से निकला हो जो पैगंबर की मस्जिद के बाहर एक चबूतरा था जहां निकट अनुयायियों की मंडली धर्म के बारे में जानने के लिए इकट्ठी होती थी।

- सूफीमत का विकास: इस्लाम की प्रारंभिक शताब्दियों में, धार्मिक और राजनीतिक संस्था के रूप में खिलाफत की बढ़ती विषयशक्ति के विरुद्ध कुछ आध्यात्मिक लोगों का रहस्यवाद और वैराग्य की ओर झुकाव बढ़ा, इन्हें सूफी कहा जाने लगा।

- इन लोगों ने रूढ़िवादी परिभाषाओं तथा धर्माचार्यों द्वारा की गई कुरान और सुन्ना (पैगंबर के व्यवहार) की बौद्धिक व्याख्या की आलोचना की। इसके विपरीत उन्होंने मुक्ति की प्राप्ति के लिए ईश्वर की भक्ति और उनके आदेशों के पालन पर बल दिया।

- उन्होंने पैगंबर मोहम्मद को इंसान-ए-कामिल बताकर उनका अनुसरण करने की सीख दी। सूफियों ने कुरान की व्याख्या अपने निजी अनुभवों के आधार पर की।

- पीर और दरगाह: पीर (गुरु) की मृत्यु के बाद उसकी दरगाह (फारसी में अर्थ दरबार) उसके मुरीदों (शिष्यों) के लिए भक्ति का स्थल बन जाती थी।

- इस तरह पीर की दरगाह पर ज़ियारत (दर्शन/तीर्थयात्रा) के लिए जाने की, खासकर उनकी बरसी के अवसर पर, परिपाटी चल निकली। इस परिपाटी को उर्स (विवाह) कहा जाता था क्योंकि लोगों का मानना था कि मृत्यु के बाद पीर ईश्वर से एकीभूत हो जाते हैं और इस तरह पहले के बजाय उनके अधिक करीब हो जाते हैं।

- लोग आध्यात्मिक और ऐहिक कामनाओं की पूर्ति के लिए उनका आशीर्वाद लेने जाते थे। इस तरह शेख का वली (ईश्वर का मित्र) के रूप में आदर करने की परिपाटी शुरू हुई।

9. चिश्ती परंपरा

- बारहवीं शताब्दी के अंत में भारत आने वाले सूफी समुदायों में चिश्ती सबसे अधिक प्रभावशाली रहे। इसका कारण यह था कि उन्होंने न केवल अपने आपको स्थानीय परिवेश में अच्छी तरह ढाला अपितु भारतीय भक्ति परंपरा की कई विशिष्टताओं को भी अपनाया।

- चिश्ती खानकाह में जीवन: खानकाह सामाजिक जीवन का केंद्र बिंदु था। हमें शेख निज़ामुद्दीन औलिया (चौदहवीं शताब्दी) की खानकाह के बारे में पता है जो उस समय के दिल्ली शहर की बाहरी सीमा पर यमुना नदी के किनारे गियासपुर में था।

- यहां कई छोटे-छोटे कमरे और एक बड़ा हॉल (जमातखाना) था जहां सहवासी और अतिथि रहते, और उपासना करते थे। सहवासियों में शेख का अपना परिवार, सेवक और अनुयायी थे।

- शेख एक छोटे कमरे में छत पर रहते थे जहां वह मेहमानों से सुबह-शाम मिला करते थे। आंगन एक गलियारे से घिरा होता था और खानकाह को चारों ओर से दीवार घेरे रहती थी। एक बार मंगोल आक्रमण के समय पड़ोसी क्षेत्र के लोगों ने खानकाह में शरण ली।

- यहां एक सामुदायिक रसोई (लंगर) फुतूह (बिना मांगे खैरात) पर चलती थी। सुबह से देर रात तक सब तबके के लोग (सिपाही, गुलाम, गायक, व्यापारी, कवि, राहगीर, धनी और निर्धन, हिंदू जोगी और कलंदर) यहां अनुयायी बनने, इबादत करने, ताबीज लेने अथवा विभिन्न मसलों पर शेख की मध्यस्थता के लिए आते थे।

- कुछ अन्य मिलने वालों में अमीर हसन सिज़जी और अमीर खुसरो जैसे कवि तथा दरबारी इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी जैसे लोग शामिल थे। इन सभी लोगों ने शेख के बारे में लिखा।

- शेख के सामने झुकना, मिलने वालों को पानी पिलाना, दीक्षितों के सर का मुंडन तथा यौगिक व्यायाम आदि व्यवहार इस तथ्य के द्योतक हैं कि स्थानीय परंपराओं को आत्मसात करने का प्रयास किया गया।

- शेख निज़ामुद्दीन ने कई आध्यात्मिक वारिसों का चुनाव किया और उन्हें उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में खानकाह स्थापित करने के लिए नियुक्त किया। इस वजह से चिश्तियों के उपदेश, व्यवहार और संस्थाएं तथा शेख का यश चारों ओर फैल गया। उनकी तथा उनके आध्यात्मिक पूर्वजों की दरगाह पर अनेक तीर्थयात्री आने लगे।

- चिश्ती उपासना: ज़ियारत और कव्वाली: सूफी संतों की दरगाह पर की गई ज़ियारत सारे इस्लामी संसार में प्रचलित है। इस अवसर पर संत के आध्यात्मिक आशीर्वाद यानि बरकत की कामना की जाती है।

- पिछले सात सौ सालों से अलग-अलग संप्रदायों, वर्गों और समुदायों के लोग पांच महान चिश्ती संतों की दरगाह पर अपनी आस्था प्रकट करते रहे हैं। इनमें सबसे अधिक पूजनीय दरगाह ख्वाजा मुइनुद्दीन की है जिन्हें 'गरीब नवाज़' कहा जाता है।

- अजमेर दरगाह की लोकप्रियता (उदाहरण): सोलहवीं शताब्दी तक आते-आते अजमेर की यह दरगाह बहुत ही लोकप्रिय हो गई थी। इस दरगाह को जानने वाले तीर्थयात्रियों के भजनों ने ही अकबर को यहां आने के लिए प्रेरित किया था। अकबर यहां चौदह बार आया, कभी तो साल में दो-तीन बार, कभी नई जीत के लिए आशीर्वाद लेने अथवा संकल्प की पूर्ति पर या फिर पुत्रों के जन्म पर।

- मुगल शहजादी जहाँआरा की तीर्थयात्रा (उदाहरण): स्रोत 7 जहाँआरा द्वारा रचित शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की जीवनी 'मुनिस-अल-अरवाह' (यानी आत्मा का विश्वस्त) से लिया गया है। वह अपनी 1643 की अजमेर यात्रा का वर्णन करती हैं। वह दरगाह के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करती हैं, जैसे कि पवित्र दरगाह की ओर पैर न फैलाना, पीठ न करना, नंगे पांव जाना, ज़मीन को चूमना और मजार के चारों ओर सात फेरे लेना।

- शासकों और सूफी संतों के संबंध: शासक न केवल सूफी संतों से संपर्क रखना चाहते थे अपितु उनके समर्थन के भी कायल थे। जब तुर्कों ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की, तो उलेमा द्वारा शरिया लागू किए जाने की मांग को ठुकरा दिया क्योंकि सुल्तान जानते थे कि उनकी अधिकांश प्रजा इस्लाम धर्म मानने वाली नहीं है। ऐसे समय सुल्तानों ने सूफी संतों का सहारा लिया जो अपनी आध्यात्मिक सत्ता को अल्लाह से उद्भूत मानते थे और उलेमा द्वारा शरिया की व्याख्या पर निर्भर नहीं थे।

- शाही भेंट अस्वीकार (उदाहरण): स्रोत 8 एक कहानी है जो शेख निज़ामुद्दीन औलिया की खानकाह में 1313 की घटना का वर्णन करती है। एक स्थानीय शासक ने शेख को दो बगीचे और बहुत सारी जमीन भेंट की। शेख ने यह कहकर इसे अस्वीकार कर दिया कि उनके किसी भी आध्यात्मिक गुरु ने इस तरह का काम नहीं किया। उन्होंने शेख फरीदुद्दीन और सुल्तान गियासुद्दीन (तत्कालीन उलुग खान) की कहानी सुनाई जहाँ शेख फरीद ने सुल्तान द्वारा भेंट किए गए पैसे को गरीबों में बांट दिया पर जमीन को उन लोगों को देने को कहा जिन्हें उसकी कामना थी। यह कहानी सूफियों और राज्य के बीच संबंध के एक पहलू को दर्शाती है - संतों द्वारा शासकों से भौतिक दूरी बनाए रखना और उनकी भेंट स्वीकार न करना। फतेहपुर सीकरी में शेख सलीम चिश्ती की दरगाह चिश्तियों और मुगल राज्य के घनिष्ठ संबंधों का प्रतीक थी।

10. कबीर

- कबीर (लगभग चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी) इस पृष्ठभूमि में उभरने वाले संत कवियों में अप्रतिम थे।

- कबीर की वाणी के संकलन: कबीर की वाणी तीन विशिष्ट किंतु परस्पर व्याप्त परिपाटियों में संकलित है:

  • कबीर बीजक: कबीर पंथियों द्वारा वाराणसी तथा उत्तर प्रदेश के अन्य स्थानों पर संरक्षित।
  • कबीर ग्रंथावली: राजस्थान के दादूपंथियों से संबद्ध।
  • आदि ग्रंथ साहिब: इसमें कबीर के कई पद संकलित हैं।

- लगभग सभी पांडुलिपि संकलन कबीर की मृत्यु के बहुत बाद में किए गए। उन्नीसवीं शताब्दी में उनके पद संग्रहों को बंगाल, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों में मुद्रित किया गया।

- भाषा और शैली: कबीर की रचनाएं अनेक भाषाओं और बोलियों में मिलती हैं। इनमें से कुछ निर्गुण कवियों की खास बोली 'संत भाषा' में हैं।

- कुछ रचनाएं जिन्हें उलटबांसी (उलटी कही उक्तियां) के नाम से जाना जाता है, इस प्रकार से लिखी गई हैं कि उनके रोज़मर्रा के अर्थ को उलट दिया गया। इन उलटबांसी रचनाओं का तात्पर्य परम सत्य के स्वरूप को समझने की मुश्किल दर्शाता है।

- 'केवल ज फूल्या फूल बिन' और 'समंदर लागि आगि' जैसी अभिव्यंजनाएं कबीर की रहस्यवादी अनुभूतियों को दर्शाती हैं।

- ईश्वर की अवधारणा और शब्दावली: कबीर ने परम सत्य को वर्णित करने के लिए अनेक परिपाटियों का सहारा लिया।

  • इस्लामी दर्शन की तरह वे इस सत्य को अल्लाह, खुदा, हजरत और पीर कहते हैं।
  • वेदांत दर्शन से प्रभावित होकर वे सत्य को अलख (अदृश्य), निराकार, ब्रह्मन् और आत्मन् कहकर भी संबोधित करते हैं।
  • कबीर कुछ और शब्द-पदों का इस्तेमाल करते हैं जैसे शब्द और शून्य, यह अभिव्यंजनाएं योगियों परंपरा से ली गई हैं।

- एक ईश्वर का संदेश (उदाहरण): स्रोत 9 कबीर द्वारा रचित एक पद है जो एकेश्वरवाद का संदेश देता है। वे पूछते हैं कि संसार के दो स्वामी कैसे हो सकते हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर को अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि तथा हज़रत जैसे अनेक नामों से पुकारा जाता है। विभिन्नताएं तो केवल शब्दों में हैं जिनका आविष्कार हम स्वयं करते हैं। कबीर कहते हैं कि दोनों (हिंदू और मुसलमान) भुलावे में हैं, इनमें से कोई एक राम को प्राप्त नहीं कर सकता। एक बकरे को मारता है और दूसरा गाय को, वे पूरा जीवन विवादों में ही गंवा देते हैं।

11. बाबा गुरु नानक और पवित्र शब्द

- बाबा गुरु नानक (1469-1539) का जन्म एक हिंदू व्यापारी परिवार में हुआ। उनका जन्मस्थान मुख्यतया इस्लाम धर्मावलंबी पंजाब का ननकाना गांव था जो रावी नदी के पास था।

- उन्होंने फारसी पढ़ी और लेखाकार के कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया। उनका विवाह छोटी आयु में हो गया था किंतु वह अपना अधिक समय सूफी और भक्त संतों के बीच गुजारते थे। उन्होंने दूर-दराज की यात्राएं भी कीं।

- संदेश: बाबा गुरु नानक का संदेश उनके भजनों और उपदेशों में निहित है। इनसे पता लगता है कि उन्होंने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया।

- उन्होंने धर्म के सभी बाहरी आडंबरों को अस्वीकार किया जैसे यज्ञ, आनुष्ठानिक स्नान, मूर्ति पूजा व कठोर तप।

- हिंदू और मुसलमानों के धर्मग्रंथों को भी उन्होंने नकारा।

- बाबा गुरु नानक के लिए परम पूर्ण रब का कोई लिंग या आकार नहीं था। उन्होंने इस रब की उपासना के लिए एक सरल मार्ग बताया।

- ऐसा प्रतीत होता है कि बाबा गुरु नानक किसी नवीन धर्म की संस्थापना नहीं करना चाहते थे। किंतु उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों ने अपने आचार-व्यवहार को सुगठित कर अपने को हिंदू और मुसलमान दोनों से पृथक चिह्नित किया।

- पवित्र ग्रंथ का संकलन: पांचवें गुरु अर्जन देव जी ने बाबा गुरु नानक तथा उनके चार उत्तराधिकारियों, बाबा फरीद, रविदास और कबीर की वाणी को आदि ग्रंथ साहिब में संकलित किया। इन रचनाओं को 'गुरबानी' कहा जाता है और ये अनेक भाषाओं में रची गईं।

- सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी ने नवें गुरु, तेग बहादुर की रचनाओं को भी इसमें शामिल किया और इस ग्रंथ को गुरु ग्रंथ साहिब कहा गया।

- गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ (पवित्रों की सेना) की नींव डाली और उनके पांच प्रतीकों का वर्णन किया: बिना कटे केश, कृपाण, कच्छ, कंघा और लोहे का कड़ा।

- गुरु गोबिंद सिंह के नेतृत्व में समुदाय एक सामाजिक, धार्मिक और सैन्य बल के रूप में संगठित होकर सामने आया।

12. मीराबाई

- मीराबाई ने अंतर्मन की भावप्रवणता को व्यक्त करने वाले अनेक गीतों की रचना की।

- कुछ परंपराओं के अनुसार मीरा के गुरु रैदास थे जो एक चर्मकार थे। इससे पता चलता है कि मीरा ने जातिवादी समाज की रूढ़ियों का उल्लंघन किया।

- ऐसा माना जाता है कि अपने पति के राजमहल के ऐश्वर्य को त्याग कर उन्होंने विधवा के सफेद वस्त्र अथवा संन्यासिनि के जोगिया वस्त्र धारण किए।

- हालांकि मीराबाई के आसपास अनुयायियों का जमावड़ा नहीं लगा और उन्होंने किसी निजी मंडली की नींव नहीं डाली किंतु फिर भी वह सदियों से प्रेरणा का स्रोत रही हैं।

- उनके रचित पद आज भी स्त्रियों और पुरुषों द्वारा गाए जाते हैं। खासतौर से गुजरात व राजस्थान के गरीब लोगों द्वारा जिन्हें 'नीच जाति' का समझा जाता है।

- कृष्ण के प्रति प्रेम (उदाहरण): स्रोत 11 मीराबाई द्वारा रचित एक गीत का अंश है। एक पद में वे कृष्ण के प्रति अपने अटूट प्रेम को व्यक्त करती हैं और राणा (अपने पति) के प्रति अपनी निर्भीकता दिखाती हैं। वे कहती हैं कि राणा जी मेवाड़ के मेरे साथ क्या करेंगे, मैं तो गोविंद के गुण गाती हूँ। अगर राणा जी मुझसे रूठेंगे तो हरि (ईश्वर) मुझे प्रसन्न करेंगे।

13. धार्मिक परंपराओं के इतिहासों का पुनर्निर्माण

- इतिहासकार धार्मिक परंपरा के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए अनेक स्रोतों का उपयोग करते हैं - जैसे मूर्तिकला, स्थापत्य, साहित्य।

- सूफी परंपरा के इतिहास पुनर्निर्माण के स्रोत:

  • सूफी विचारों और आचारों पर प्रबंध पुस्तिकाएं, जैसे कश्फ-उल-महजूब। यह पुस्तक अली बिन उस्मान हुजविरी (मृत्यु 1071) द्वारा लिखी गई। यह साहित्य इतिहासकारों को यह जानने में मदद करता है कि उपमहाद्वीप के बाहर की परंपराओं ने भारत में सूफी चिंतन को किस तरह प्रभावित किया।
  • सूफी खानकाहों के आसपास रचित अन्य ग्रंथ।

- इतिहासकार परंपरा में आए परिवर्तनों की रूपरेखा भी तैयार कर सकते हैं।

- किंतु चूंकि ये परंपराएं आज भी लोगों के जीवन का हिस्सा हैं, लोगों के लिए यह मानना आसान नहीं होता कि समय के साथ संभवतः इन परिपाटियों में बदलाव आया होगा। इतिहासकारों के लिए चुनौती यह है कि वे इस तथ्य की ओर जागरूक हों कि धार्मिक परंपराएं भी अन्य परंपराओं की तरह परिवर्तनशील हैं।

उदाहरणों को समझना (Step-by-Step)

पाठ्यपुस्तक में सीधे चरण-दर-चरण हल करने योग्य उदाहरण नहीं दिए गए हैं, बल्कि विभिन्न संप्रदायों के आचरणों और ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन किया गया है। उन्हें समझने के लिए हमें पाठ को ध्यान से पढ़ना होगा।

अलवार/नयनार द्वारा पवित्र स्थलों की पहचान:

  1. संत (अलवार या नयनार) एक स्थान से दूसरे स्थान यात्रा कर रहे हैं।
  2. वे अपनी यात्रा के दौरान किसी विशेष स्थान पर आते हैं।
  3. उन्हें वह स्थान अपने इष्ट (विष्णु या शिव) के निवास के लिए विशेष रूप से पवित्र लगता है।
  4. वे उस स्थान को अपने भजनों में गाकर या घोषित करके पवित्र स्थल के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।
  5. बाद में, इस स्थल पर बड़े मंदिर बनाए जाते हैं और वह तीर्थस्थल बन जाता है।

समझ: यह दर्शाता है कि कैसे संतों की भक्ति और घोषणाओं ने क्षेत्रीय धार्मिक भूगोल को प्रभावित किया और तीर्थ केंद्रों का निर्माण किया।

बासवन्ना का अनुष्ठान पर प्रहार:

  1. लोग पत्थर के साँप की मूर्ति को पूज रहे हैं और उस पर दूध चढ़ा रहे हैं (एक अनुष्ठान)।
  2. असली साँप आ जाता है।
  3. लोग असली साँप को मारने की कोशिश करते हैं, उसे पूजते नहीं।
  4. एक सेवक खाना खाने को तैयार है।
  5. लोग सेवक को जाने को कहते हैं।
  6. ईश्वर की मूर्ति खाना नहीं खा सकती।
  7. लोग उस मूर्ति को तरह-तरह के व्यंजन परोसते हैं।

समझ: बासवन्ना इन विरोधाभासी व्यवहारों को दिखाकर यह तर्क दे रहे हैं कि लोग वास्तविक चीज़ों (जीवित प्राणी) की उपेक्षा करते हैं और निर्जीव मूर्तियों पर ऊर्जा व संसाधन व्यर्थ करते हैं। उनका उद्देश्य अनुष्ठानों की व्यर्थता और सच्ची भक्ति की ओर ध्यान आकर्षित करना है।

जहाँआरा की अजमेर यात्रा की श्रद्धा:

  1. जहाँआरा अपने पिता के साथ अजमेर जा रही हैं।
  2. यह यात्रा शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की ज़ियारत के लिए है, जिसे वे 'पाक और बेजोड़' मानती हैं।
  3. यात्रा के दौरान वे धार्मिक नियमों का पालन करती हैं, जैसे दो बार की नमाज़ पढ़ना।
  4. वे दरगाह के प्रति अत्यंत श्रद्धा का व्यवहार करती हैं: चमड़े पर नहीं सोतीं, पवित्र दरगाह की ओर पैर नहीं फैलातीं, पीठ नहीं करतीं।
  5. दरगाह पहुंचने पर वे नंगे पांव ज़मीन चूमती हुई अंदर जाती हैं।
  6. वे मज़ार के चारों ओर सात फेरे लेती हैं।
  7. वे मज़ार पर सबसे उम्दा इत्र छिड़कती हैं।
  8. वे अपने सिर का दुपट्टा मज़ार पर रखती हैं।

समझ: यह जहाँआरा की व्यक्तिगत भक्ति और चिश्ती संतों के प्रति मुगल शाही परिवार के सम्मान को दर्शाता है। यह ज़ियारत के दौरान किए जाने वाले श्रद्धापूर्ण कार्यों का उदाहरण भी है।

शेख निज़ामुद्दीन औलिया द्वारा शाही भेंट अस्वीकार:

  1. एक स्थानीय शासक शेख निज़ामुद्दीन औलिया को दो बगीचे और बहुत सारी जमीन भेंट करता है।
  2. शेख इस भेंट को अस्वीकार कर देते हैं।
  3. वे इसका कारण यह बताते हैं कि उनके किसी आध्यात्मिक गुरु ने ऐसा काम नहीं किया।
  4. वे शेख फरीदुद्दीन और सुल्तान गियासुद्दीन की कहानी सुनाते हैं जहाँ शेख फरीद ने भी जमीन लेने से मना कर दिया था।

समझ: यह दर्शाता है कि कुछ सूफी संत शासकों से दूरी बनाए रखना पसंद करते थे और भौतिक संपत्ति में रुचि नहीं रखते थे। यह उनकी आध्यात्मिक स्वतंत्रता और नैतिक अधिकार को बनाए रखने का एक तरीका था। यह सूफी संतों और राज्य के बीच संबंधों की जटिलता को उजागर करता है।

कबीर का ईश्वर की एकता पर तर्क:

  1. कबीर पूछते हैं कि संसार का एक नहीं, दो स्वामी कैसे हो सकते हैं?
  2. वे विभिन्न धर्मों द्वारा ईश्वर के लिए उपयोग किए जाने वाले अनेक नामों (अल्लाह, राम, करीम, केशव, हरि, हज़रत) का उल्लेख करते हैं।
  3. वे कहते हैं कि ये नाम केवल हमारे द्वारा गढ़े गए शब्द हैं, मूल सत्य एक ही है।
  4. वे हिंदू और मुसलमानों के बीच धार्मिक विवादों (एक बकरे को मारता है, दूसरा गाय को) की आलोचना करते हैं।
  5. वे कहते हैं कि जो इन विवादों में फंसे हैं, वे ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते।

समझ: कबीर यहाँ एक निराकार और सार्वभौमिक ईश्वर की अवधारणा प्रस्तुत कर रहे हैं जो विभिन्न धार्मिक पहचानों से परे है। वे धर्मों के बीच बाहरी भेदों और अनुष्ठानों पर आधारित विवादों की आलोचना करते हैं और सच्चे मार्ग से भटका हुआ मानते हैं।

अध्याय के अभ्यास प्रश्नों के विस्तृत उत्तर

प्रश्न 6. सूफी मत के मुख्य धार्मिक विश्वासों और आचारों की व्याख्या कीजिए।

सूफी मत इस्लाम के भीतर रहस्यवाद और वैराग्य की ओर झुकाव रखने वाले आध्यात्मिक लोगों का एक पंथ था। सूफी मत के मुख्य धार्मिक विश्वास और आचार निम्नलिखित हैं:

  • रहस्यवाद और वैराग्य पर बल: सूफी उन रूढ़िवादी परिभाषाओं और बौद्धिक व्याख्याओं की आलोचना करते थे जो धर्माचार्यों द्वारा कुरान और सुन्ना (पैगंबर के व्यवहार) की दी जाती थी। इसके बजाय, उन्होंने ईश्वर की भक्ति और उनके आदेशों के पालन पर बल दिया, जिसे वे मुक्ति का मार्ग मानते थे।
  • निजी अनुभव पर आधारित कुरान की व्याख्या: सूफी कुरान की व्याख्या अपने निजी अनुभवों के आधार पर करते थे, न कि केवल धर्माचार्यों की बौद्धिक व्याख्याओं पर निर्भर रहते थे।
  • पीर (गुरु) का महत्व: सूफी परंपरा में पीर या शेख का केंद्रीय महत्व था। पीर ईश्वर और अनुयायी (मुरीद) के बीच एक कड़ी माने जाते थे।
  • खानकाह: सूफी अक्सर खानकाह में रहते थे, जो सामाजिक जीवन का केंद्र था। यह शिष्यों, सहवासियों और अतिथियों के रहने, उपासना करने और सीखने का स्थान था। यहां एक सामुदायिक रसोई (लंगर) चलती थी जो दान (फुतूह) पर आधारित थी।
  • ज़ियारत और उर्स: पीर की मृत्यु के बाद उनकी दरगाह (मजार) भक्ति का स्थल बन जाती थी। दरगाह की यात्रा (ज़ियारत) एक महत्वपूर्ण आचरण था, खासकर पीर की बरसी (उर्स) के अवसर पर। माना जाता था कि मृत्यु के बाद पीर ईश्वर से एकीभूत हो जाते हैं और अधिक करीब हो जाते हैं, इसलिए लोग आशीर्वाद (बरकत) मांगने आते थे।
  • स्थानीय परंपराओं का आत्मसात: चिश्ती जैसे प्रभावशाली सूफी समुदायों ने स्थानीय परिवेश में खुद को ढाला और भारतीय भक्ति परंपरा की कई विशेषताओं को अपनाया। खानकाह में कुछ आचरण, जैसे शेख के सामने झुकना, दीक्षितों का मुंडन आदि, स्थानीय परंपराओं को आत्मसात करने के प्रयास के द्योतक थे।
  • भौतिक संपत्ति से दूरी: चिश्ती सूफी दान स्वीकार करते थे लेकिन उसे जमा करने के बजाय खाने, कपड़े, आवास और समा (संगीत सभा) जैसे अनुष्ठानों पर खर्च कर देते थे। इससे उनका नैतिक अधिकार पुष्ट होता था।
  • लोकप्रियता के कारण: सूफी संतों की लोकप्रियता का कारण उनकी धर्मनिष्ठा, विद्वत्ता और लोगों का उनकी चमत्कारी शक्ति में विश्वास था।

प्रश्न 7. क्यों और किस तरह शासकों ने नयनार और सूफी संतों से अपने संबंध बनाने का प्रयास किया?

शासकों ने नयनार और सूफी संतों से अपने संबंध बनाने का प्रयास कई कारणों से किया और इसके लिए विभिन्न तरीके अपनाए:

  • वैधता और समर्थन प्राप्त करना: संत और सूफी लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय थे और उनकी चमत्कारी शक्तियों में विश्वास किया जाता था। शासक इन संतों के समर्थन से अपनी प्रजा के बीच वैधता और स्वीकृति प्राप्त करना चाहते थे।
  • राजकीय अनुदान के लिए प्रतिस्पर्धा (नयनार संदर्भ): तमिल क्षेत्र में नयनार संतों की रचनाएं बौद्ध और जैन धर्म का विरोध करती थीं। इतिहासकार इसे राजकीय अनुदान प्राप्त करने के लिए विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच प्रतिस्पर्धा के रूप में देखते हैं। शासक, जैसे शक्तिशाली चोल सम्राटों ने ब्राह्मणीय और भक्ति परंपरा (जिसमें नयनार शामिल थे) को समर्थन दिया और मंदिरों के निर्माण के लिए भूमि अनुदान दिए।
  • आध्यात्मिक सत्ता से संबंध (सूफी संदर्भ): तुर्कों द्वारा दिल्ली सल्तनत की स्थापना के समय, शासकों ने उलेमा की शरिया लागू करने की मांग को ठुकरा दिया क्योंकि अधिकांश प्रजा गैर-मुस्लिम थी। ऐसे में, सुल्तानों ने सूफी संतों का सहारा लिया जो अपनी आध्यात्मिक सत्ता को सीधे अल्लाह से उद्भूत मानते थे और उलेमा की व्याख्या पर निर्भर नहीं थे। संतों से संबंध बनाकर शासक भी इस आध्यात्मिक सत्ता का लाभ उठाना चाहते थे।
  • व्यक्तिगत श्रद्धा: कई शासकों की संतों के प्रति व्यक्तिगत श्रद्धा भी थी। उदाहरण के लिए, अकबर ख्वाजा मुइनुद्दीन की अजमेर दरगाह पर चौदह बार गया। वह नई जीत, मन्नतें पूरी होने या पुत्रों के जन्म पर आशीर्वाद लेने जाता था। मुगल शहजादी जहाँआरा ने भी ख्वाजा मुइनुद्दीन की दरगाह की भक्तिपूर्ण ज़ियारत की।

संबंध बनाने के तरीके:

  • भूमि अनुदान और दान: शासकों ने मंदिरों और सूफी खानकाहों के लिए भूमि अनुदान और दान दिए।
  • मंदिरों और दरगाहों का निर्माण/समर्थन: शासकों ने विष्णु, शिव के मंदिरों और सूफी दरगाहों के निर्माण का समर्थन किया। फतेहपुर सीकरी में शेख सलीम चिश्ती की दरगाह मुगल राज्य और चिश्तियों के घनिष्ठ संबंधों का प्रतीक थी।
  • दरगाहों की यात्रा: शासक स्वयं संतों की दरगाहों की यात्रा करते थे।
  • संतों के प्रति सम्मान: शासकों ने गैर-मुसलमान धार्मिक नेताओं के प्रति श्रद्धाभाव व्यक्त किया और सूफी संतों से संपर्क बनाए रखा।

प्रश्न 8. उदाहरण सहित विश्लेषण कीजिए कि क्यों भक्ति और सूफी चिंतकों ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया?

भक्ति और सूफी चिंतकों ने अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न भाषाओं का प्रयोग किया। इसके कई कारण थे और यह उनके संदेश और लक्ष्य से जुड़ा था:

  • स्थानीय लोगों तक पहुंचना: भक्ति और सूफी आंदोलन प्रायः जन-आधारित थे और उनका लक्ष्य आम लोगों तक अपने संदेश को पहुंचाना था। संस्कृत या अरबी जैसी शास्त्रीय भाषाएं आम लोगों की समझ से बाहर थीं। इसलिए, संतों और सूफियों ने स्थानीय और क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग किया ताकि लोग उनके विचारों को सीधे समझ सकें। उदाहरण: तमिलनाडु में अलवार और नयनार संतों ने अपने भक्ति गीत तमिल में रचे और गाए। कबीर की रचनाएं अनेक भाषाओं और बोलियों में मिलती हैं, जिनमें 'संत भाषा' शामिल है। बाबा गुरु नानक और अन्य संतों की वाणी (गुरबानी) अनेक भाषाओं में रची गई। मीराबाई ने अपने पद मुख्य रूप से राजस्थानी और गुजराती भाषाओं में रचे।
  • आत्मीयता और भावना की अभिव्यक्ति: भक्ति और सूफी मत में व्यक्तिगत अनुभव और भावना की अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण थी। क्षेत्रीय भाषाएं लोगों की दैनिक जीवन और भावनाओं से जुड़ी होती हैं, इसलिए वे भक्ति और रहस्यवादी अनुभवों को अधिक आत्मीयता और गहराई से व्यक्त करने का माध्यम बनीं।
  • शास्त्रीय परंपराओं से दूरी बनाना: कुछ संत और सूफी, विशेषकर निर्गुण भक्ति परंपरा के, रूढ़िवादी धार्मिक विद्वानों और उनकी शास्त्रीय भाषा (जैसे संस्कृत) पर आधारित व्याख्याओं से दूरी बनाना चाहते थे। स्थानीय भाषाओं का प्रयोग शास्त्रीय ज्ञान और सामाजिक पदानुक्रम पर आधारित धार्मिक सत्ता को चुनौती देने का एक तरीका था। उदाहरण: बाबा गुरु नानक ने धर्म के बाहरी आडंबरों और हिंदू और मुसलमानों के धर्मग्रंथों को नकारा। उनकी वाणी अनेक भाषाओं में थी, जो किसी एक धार्मिक भाषा या ग्रंथ पर निर्भरता को कम करता था। कबीर ने भी परम सत्य का वर्णन करने के लिए विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं से शब्दावली ली, लेकिन उसे 'संत भाषा' जैसी आम बोलचाल की शैली में अभिव्यक्त किया।
  • संदेश का प्रसार: स्थानीय भाषाओं में रचे गए गीत और पद एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से फैल सकते थे। घूमने वाले संत और संगीतकार इन रचनाओं को गाते थे, जिससे संदेश दूर-दूर तक पहुंचता था।

संक्षेप में, विभिन्न भाषाओं का प्रयोग भक्ति और सूफी चिंतकों के लोकव्यापीकरण के दृष्टिकोण, व्यक्तिगत अनुभव की अभिव्यक्ति की आवश्यकता और स्थापित धार्मिक संरचनाओं को चुनौती देने की इच्छा को दर्शाता है।

प्रश्न 9. इस अध्याय में प्रयुक्त किन्हीं पांच स्रोतों का अध्ययन कीजिए और उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों पर चर्चा कीजिए।

आइए, अध्याय में प्रयुक्त कुछ महत्वपूर्ण स्रोतों और उनमें निहित सामाजिक व धार्मिक विचारों पर चर्चा करें:

  1. स्रोत 7: एक राक्षसी? (कराइक्काल अम्मइयार की कविता का अंश)
    • धार्मिक विचार: यह स्रोत शिव के प्रति गहरी भक्ति को दर्शाता है। कराइक्काल अम्मइयार स्वयं को शिव के वन (अलंकटु) में विचरण करते हुए चित्रित करती हैं, जो शिव से उनके जुड़ाव को दिखाता है। यह शैव भक्ति परंपरा का हिस्सा है।
    • सामाजिक विचार: सबसे उल्लेखनीय सामाजिक विचार स्त्री सौंदर्य की पारंपरिक अवधारणा को चुनौती देना है। अम्मइयार स्वयं का वर्णन 'राक्षसी' के रूप में करती हैं, जिसमें फूली हुई नाड़ियाँ, निकली हुई आंखें, सफेद दांत आदि शामिल हैं। यह पारंपरिक स्त्री रूप से बिल्कुल विपरीत है। यह दर्शाता है कि भक्ति मार्ग में सामाजिक अपेक्षाओं (जैसे स्त्री रूप) को त्यागकर भी ईश्वर से जुड़ा जा सकता है और सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ा जा सकता है।
  2. स्रोत 8: अनुष्ठान और यथार्थ संसार (बासवन्ना का वचन)
    • धार्मिक विचार: यह स्रोत मूर्ति पूजा और बाहरी अनुष्ठानों (जैसे पत्थर के साँप पर दूध चढ़ाना या मूर्ति को खाना परोसना) की आलोचना करता है। बासवन्ना वास्तविक जीवन और अनुष्ठानों के बीच के विरोधाभास को उजागर करते हैं। यह वीरशैव परंपरा के भीतर प्रचलित बाहरी धार्मिक आचरणों के प्रति एक आलोचनात्मक दृष्टिकोण को दर्शाता है।
    • सामाजिक विचार: यह स्रोत सामाजिक पाखंड पर एक अप्रत्यक्ष टिप्पणी भी है। लोग जीवित प्राणियों की उपेक्षा करते हैं (असली साँप को मारना, सेवक को दूर भगाना) लेकिन निर्जीव मूर्तियों पर संसाधन व्यर्थ करते हैं। यह दिखाता है कि कैसे लोग प्रतीकों और अनुष्ठानों में उलझ जाते हैं जबकि वास्तविक दुनिया में प्रेम और करुणा जैसे मूल्यों की उपेक्षा करते हैं।
  3. स्रोत 9: एक ईश्वर (कबीर की रचना)
    • धार्मिक विचार: यह कबीर के निर्गुण भक्ति के केंद्रीय विचार को व्यक्त करता है कि ईश्वर एक है, भले ही उसे अल्लाह, राम, करीम आदि अनेक नामों से पुकारा जाए। यह स्रोत बाहरी धार्मिक भेदों और पहचानों (जैसे हिंदू और मुसलमान) को अस्वीकार करता है और एक सार्वभौमिक सत्य पर बल देता है।
    • सामाजिक विचार: यह स्रोत हिंदू और मुसलमानों के बीच धार्मिक विभाजन और विवादों (बकरे और गाय को मारने के मुद्दे) की आलोचना करता है। कबीर का संदेश सामाजिक सद्भाव और विभिन्न समुदायों के बीच एकता पर बल देता है, यह तर्क देकर कि धार्मिक विभिन्नताएं केवल शब्दों का खेल हैं और वास्तविक ईश्वर एक है।
  4. स्रोत 7 (दोबारा): मुगल शहजादी जहाँआरा की तीर्थयात्रा 1643
    • धार्मिक विचार: यह स्रोत चिश्ती सूफी संत ख्वाजा मुइनुद्दीन के प्रति गहरी व्यक्तिगत भक्ति और श्रद्धा को दर्शाता है। जहाँआरा की यात्रा और दरगाह पर किए गए कार्य (नमाज़, नंगे पांव चलना, ज़मीन चूमना, मज़ार पर इत्र छिड़कना, दुपट्टा रखना) एक भक्त द्वारा किए जाने वाले भक्तिपूर्ण आचरणों के उदाहरण हैं। यह दर्शाता है कि कैसे शाही परिवार भी सूफी संतों को आदर देता था और उनकी दरगाहों की यात्रा करता था।
    • सामाजिक विचार: यह स्रोत शाही परिवार के सदस्यों के जीवन के एक पहलू को दर्शाता है और कैसे वे भी आम लोगों की तरह धार्मिक स्थलों पर श्रद्धा रखते थे। यह उस समय के समाज में सूफी संतों की व्यापक लोकप्रियता और विभिन्न वर्गों द्वारा उन्हें दिए जाने वाले सम्मान को भी इंगित करता है।
  5. स्रोत 8 (दोबारा): शाही भेंट अस्वीकार (शेख निज़ामुद्दीन औलिया और शासक के बीच घटना)
    • धार्मिक विचार: यह स्रोत सूफी संतों के वैराग्य और भौतिक संपत्ति से दूरी बनाए रखने के आदर्श को दर्शाता है। शेख निज़ामुद्दीन औलिया द्वारा शासक की भेंट अस्वीकार करना उनकी आध्यात्मिक शक्ति और नैतिक अधिकार को बनाए रखने के तरीके को दर्शाता है।
    • सामाजिक विचार: यह स्रोत सूफी संतों और राज्य (शासक वर्ग) के बीच संबंधों की जटिलता को दर्शाता है। यह दिखाता है कि कुछ संत शासकों से भौतिक रूप से दूरी बनाए रखते थे, शायद इसलिए ताकि वे राजनीतिक सत्ता से जुड़े न रहें और आम लोगों के बीच अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता बनाए रख सकें। यह शासकों द्वारा संतों का समर्थन प्राप्त करने के प्रयासों को भी इंगित करता है।

प्रश्न 10. भारत के एक मानचित्र पर, 3 सूफी स्थल और 3 वे स्थल जो मंदिरों (विष्णु, शिव तथा देवी से जुड़ा एक मंदिर) से संबद्ध हैं, निर्दिष्ट कीजिए।

(यह एक मानचित्र कार्य है जिसे आप स्वयं भारत के मानचित्र पर अभ्यास कर सकते हैं। यहाँ कुछ उदाहरण दिए गए हैं जिन्हें आप चिह्नित कर सकते हैं।)

3 सूफी स्थल (पाठ्यपुस्तक के आधार पर):

  • अजमेर, राजस्थान: ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह।
  • दिल्ली: शेख निज़ामुद्दीन औलिया की खानकाह/दरगाह (गियासपुर क्षेत्र में)।
  • फतेहपुर सीकरी, उत्तर प्रदेश: शेख सलीम चिश्ती की दरगाह। (पाठ में मुल्तान का भी जिक्र है जो अब पाकिस्तान में है: शेख बहाउद्दीन ज़कारिया की दरगाह)।

3 मंदिर से संबद्ध स्थल (पाठ्यपुस्तक के आधार पर):

  • तमिलनाडु (विष्णु मंदिर): अलवार संतों द्वारा पवित्र घोषित किए गए स्थलों में से कोई एक, जैसे श्रीरंगम।
  • तमिलनाडु (शिव मंदिर): नयनार संतों द्वारा पवित्र घोषित किए गए स्थलों में से कोई एक, जैसे चिदंबरम।
  • भारत के किसी भी क्षेत्र में देवी मंदिर: पाठ में देवी उपासना के संदर्भ में कई क्षेत्रों का उल्लेख है। उदाहरण के लिए, आप भारत में किसी प्रसिद्ध देवी मंदिर स्थल को चिह्नित कर सकते हैं जो इस कालखंड (8वीं-18वीं शताब्दी) से संबंधित हो (जैसे, कामाख्या मंदिर, असम या मीनाक्षी मंदिर, मदुरै)।

अध्याय की अवधारणाओं पर आधारित नए अभ्यास प्रश्न

  1. रॉबर्ट रेडफील्ड द्वारा प्रस्तुत 'महान' और 'लघु' परंपराओं की अवधारणा को भक्ति और सूफी परंपराओं के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
  2. सूफी मत के उदय के क्या कारण थे? उन्होंने उलेमा द्वारा दी गई कुरान की व्याख्या से किस प्रकार भिन्नता दिखाई?
  3. अलवार और नयनार संतों के भक्ति आंदोलन की मुख्य विशेषताएं क्या थीं? राज्य के साथ उनके संबंधों का विश्लेषण कीजिए।
  4. वीरशैव परंपरा ने स्थापित ब्राह्मणीय व्यवस्था को किन तरीकों से चुनौती दी?
  5. कबीर ने परम सत्य का वर्णन करने के लिए किन विभिन्न परंपराओं और शब्दावलियों का प्रयोग किया? उदाहरण देकर समझाइए।
  6. बाबा गुरु नानक के मुख्य उपदेश क्या थे? उनके अनुयायियों ने किस प्रकार एक पृथक पहचान बनाई?
  7. इतिहासकार धार्मिक परंपराओं के इतिहास का पुनर्निर्माण करने के लिए किन स्रोतों का उपयोग करते हैं? क्या इन परंपराओं के इतिहास का पुनर्निर्माण करते समय कोई विशेष चुनौतियाँ होती हैं?
  8. सूफी खानकाह सामाजिक जीवन के केंद्र कैसे बनते थे? शेख निजामुद्दीन औलिया की खानकाह के उदाहरण से स्पष्ट कीजिए।
  9. जजिया और जिम्मी की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए। क्या मुगल शासकों ने गैर-मुसलमानों के प्रति हमेशा यही नीति अपनाई?
  10. भक्ति और सूफी आंदोलन में महिलाओं की भूमिका पर चर्चा कीजिए। (आप कराइक्काल अम्मइयार और मीराबाई के उदाहरण ले सकते हैं)।

अध्याय का संक्षिप्त सारांश (पुनरावृत्ति के लिए)

  • अध्याय में 8वीं से 18वीं शताब्दी के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में धार्मिक विकास का अध्ययन किया गया।
  • 'महान' और 'लघु' परंपराओं की अवधारणा समाजशास्त्री रेडफील्ड द्वारा दी गई, जो स्थानीय और सार्वभौमिक धार्मिक प्रथाओं के मिश्रण को समझने में सहायक है। धार्मिक विश्वासों में समन्वय ('गंगा-जमुनी बनावट') देखा गया।
  • प्रारंभिक भक्ति आंदोलन तमिलनाडु में अलवार (विष्णु भक्त) और नयनार (शिव भक्त) संतों के नेतृत्व में हुआ। उन्होंने स्थानीय भाषाओं में भजन गाए, तीर्थस्थलों को प्रतिष्ठित किया और मंदिरों में पूजा का आधार बने।
  • कर्नाटक में 12वीं शताब्दी में बासवन्ना के नेतृत्व में वीरशैव आंदोलन शुरू हुआ, जिसने अनुष्ठानों और कुछ सामाजिक रूढ़ियों की आलोचना की।
  • इस्लाम का आगमन व्यापार और विजय के माध्यम से हुआ। शासक वर्ग अक्सर मुस्लिम थे, लेकिन उपमहाद्वीप की बड़ी गैर-मुस्लिम आबादी के कारण उन्हें लचीली नीतियां अपनानी पड़ीं।
  • सूफीवाद इस्लाम के भीतर एक रहस्यवादी आंदोलन था जो ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम पर केंद्रित था। चिश्ती परंपरा भारत में सबसे प्रभावशाली थी।
  • शासकों ने अपनी वैधता और समर्थन के लिए भक्ति संतों और सूफियों से संबंध बनाए।
  • उत्तरी भारत में कबीर, बाबा गुरु नानक और मीराबाई जैसे संत-कवि उभरे जिन्होंने सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर संवाद किया।
  • कबीर ने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया और एकेश्वरवाद पर बल दिया।
  • बाबा गुरु नानक ने भी निर्गुण भक्ति सिखाई और बाहरी धार्मिक आचारों को अस्वीकार किया। उनके अनुयायियों ने सिख पंथ की स्थापना की।
  • मीराबाई कृष्ण की भक्त थीं और उन्होंने जाति व सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती दी।
  • धार्मिक परंपराओं के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए विभिन्न स्रोतों का उपयोग किया जाता है।

यह नोट्स आपको अध्याय की मुख्य बातों को समझने में मदद करेंगे। आप इन नोट्स को पढ़कर, उदाहरणों को दोबारा देखकर और अभ्यास प्रश्नों को हल करके अपनी तैयारी को मजबूत कर सकते हैं। यदि कोई बिंदु स्पष्ट न हो, तो आप अपनी पाठ्यपुस्तक या शिक्षक की सहायता ले सकते हैं। शुभकामनाएं!

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