Bihar Board class10 Hindi Chapter1: श्रम विभाजन और जाति प्रथा: सम्पूर्ण नोट्स और प्रश्न उत्तर (Class 10 Hindi) | Revision notes

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श्रम विभाजन और जाति प्रथा: सम्पूर्ण नोट्स और प्रश्न उत्तर (Class 10 Hindi)

श्रम विभाजन और जाति प्रथा: सम्पूर्ण आत्म-अध्ययन नोट्स

इस विस्तृत ब्लॉग पोस्ट में, हम कक्षा 12 हिंदी (आरोह) के महत्वपूर्ण अध्याय श्रम विभाजन और जाति प्रथा का गहन अध्ययन करेंगे। डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा रचित यह पाठ भारतीय समाज की एक प्रमुख बुराई, जाति प्रथा, की आलोचना करता है। हम इस अध्याय के सभी महत्वपूर्ण विषयों, जैसे जाति प्रथा के दोष, बेरोजगारी का कारण, आदर्श समाज की कल्पना, और लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ, को सरल भाषा में समझेंगे और सभी अभ्यास प्रश्नों के हल भी पाएंगे।

अध्याय परिचय

यह अध्याय भारतीय समाज की एक प्रमुख बुराई, जाति प्रथा पर केंद्रित है। लेखक डॉ. भीमराव अंबेडकर ने श्रम विभाजन के दृष्टिकोण से जाति प्रथा की आलोचना की है। वे बताते हैं कि कैसे जाति प्रथा ने भारतीय समाज में असमानता, अकुशलता और बेरोजगारी को बढ़ावा दिया है। लेखक एक आदर्श समाज की कल्पना भी प्रस्तुत करते हैं जो स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व पर आधारित हो।

डॉ. भीमराव अंबेडकर

लेखक: डॉ. भीमराव अंबेडकर

1. सभी महत्वपूर्ण विषयों की सरल एवं स्पष्ट हिंदी में व्याख्या:

1.1 विडंबना और जातिवाद के पोषक:

लेखक इस बात पर विडंबना (उपहास) व्यक्त करते हैं कि आज के आधुनिक युग में भी जातिवाद के समर्थकों (पोषकों) की कमी नहीं है। ये समर्थक जाति प्रथा को श्रम विभाजन का एक स्वाभाविक रूप मानते हैं और तर्क देते हैं कि यह कार्य-कुशलता के लिए आवश्यक है। लेखक इस तर्क का जोरदार खंडन करते हुए कहते हैं कि यह मनुष्य की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत रुचि के खिलाफ है।

1.2 जाति प्रथा: श्रम विभाजन का अस्वाभाविक रूप:

जाति प्रथा द्वारा किया गया श्रम विभाजन स्वाभाविक नहीं है। इसके मुख्य कारण हैं:

  • यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है।
  • यह व्यक्तियों को उनकी जन्मजात क्षमताओं के आधार पर नहीं, बल्कि उन्हें वंशानुगत पेशे में बांध देता है, जिसे वे बदल नहीं सकते।
  • यह समाज में ऊँच-नीच का भेदभाव पैदा करता है, जो किसी भी सभ्य समाज के लिए हानिकारक है।

1.3 जाति प्रथा के दोष/हानिकारक पहलू:

  • रुचि पर आधारित न होना: यह श्रम विभाजन को व्यक्ति की रुचि के बजाय उसके जन्म से ही निर्धारित कर देती है।
  • क्षमता का विकास बाधित: यह व्यक्ति को अपनी जन्मजात क्षमताओं को विकसित करने का अवसर नहीं देती, जिससे वे कुशल श्रमिक नहीं बन पाते।
  • पेशा बदलने की स्वतंत्रता का अभाव: व्यक्ति को जीवन भर एक ही पेशे में बंधे रहना पड़ता है, भले ही आधुनिक युग में तकनीकी विकास के कारण पेशा बदलने की आवश्यकता क्यों न हो।
  • अकर्मण्यता और अकुशलता: जब व्यक्ति को जबरदस्ती वह काम करना पड़ता है जिसमें उसकी रुचि न हो, तो वह अकर्मण्य (निष्क्रिय) और अकुशल (अयोग्य) बन जाता है, जिससे उसकी कार्यक्षमता कम हो जाती है।
  • बेरोजगारी का कारण: लेखक के अनुसार, जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण है। यदि किसी को अपना पैतृक पेशा छोड़ना पड़े, तो उसे दूसरा पेशा चुनने की अनुमति नहीं मिलती।
  • व्यक्तिगत भावना और रुचि का दमन: यह मनुष्य की व्यक्तिगत भावना और रुचि को दबाकर उसे एक निष्क्रिय और विवश प्राणी बना देती है।

1.4 आदर्श समाज की कल्पना:

लेखक एक आदर्श समाज की कल्पना करते हैं जो तीन स्तंभों पर आधारित हो: स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व (भाईचारा)

  • गतिशीलता और सामाजिक संपर्क: आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए कि कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक आसानी से संचारित हो सके। सभी को सामाजिक संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध होने चाहिए, ठीक दूध-पानी के मिश्रण की तरह।
  • लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ: लेखक लोकतंत्र को केवल शासन की एक पद्धति नहीं, बल्कि सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति मानते हैं। यह सामाजिक संबंधों और सामूहिक अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है, जिसमें सभी के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव हो।

2. प्रमुख परिभाषाएँ, संकल्पनाएँ और शब्दों की स्पष्ट व्याख्या:

श्रम विभाजन (Division of Labor): किसी समाज में कार्य को विभिन्न व्यक्तियों या समूहों के बीच बांटने की प्रक्रिया ताकि कार्य अधिक कुशलता से हो सके।
जाति प्रथा (Caste System): भारतीय समाज में एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था जहाँ व्यक्ति का पेशा जन्म से निर्धारित होता है और उसे बदलने की अनुमति नहीं होती, साथ ही समाज में ऊँच-नीच का भेदभाव भी होता है।
विडंबना (Irony): एक ऐसी स्थिति या बात जो अपेक्षित के विपरीत हो, जिसमें उपहास का भाव छिपा हो।
पोषक (Supporter): किसी विचार या प्रथा का समर्थन करने वाला व्यक्ति।
अकुशलता (Inefficiency): किसी कार्य को सही ढंग से या कम समय में पूरा करने की क्षमता का अभाव।
अकर्मण्यता (Inactivity): किसी काम को करने की इच्छा या प्रेरणा का अभाव, निष्क्रियता।
बेरोजगारी (Unemployment): व्यक्ति का काम करने का इच्छुक होते हुए भी काम न मिलना।
स्वतंत्रता (Freedom): अपनी इच्छा अनुसार कार्य करने की छूट, बिना किसी बंधन के।
समता (Equality): सभी लोगों के साथ समान व्यवहार, किसी के साथ भेदभाव न करना।
भ्रातृत्व (Fraternity): भाईचारे की भावना, सभी लोगों के बीच सौहार्द और बंधुत्व।
लोकतंत्र (Democracy): एक ऐसी शासन प्रणाली जिसमें लोगों का शासन होता है, लेकिन लेखक इसे केवल शासन पद्धति नहीं बल्कि सामूहिक जीवनचर्या और सामाजिक संबंधों का आदान-प्रदान मानते हैं।

3. पुस्तक में दिए गए उदाहरणों की समझ:

इस अध्याय में कोई संख्यात्मक या गणितीय उदाहरण नहीं हैं। यह एक सामाजिक अवधारणा पर आधारित पाठ है। लेखक ने तर्कों के माध्यम से अपनी बात रखी है। उदाहरण के तौर पर, उन्होंने दूध और पानी के मिश्रण का उदाहरण देकर आदर्श समाज में सामाजिक संपर्क और भाईचारे की आवश्यकता को समझाया है। यह एक संकल्पनात्मक उदाहरण है जो दिखाता है कि समाज के सदस्य एक-दूसरे में इस तरह घुल-मिल जाएं कि उन्हें अलग न किया जा सके।

4. अध्याय के अभ्यास प्रश्नों के विस्तृत उत्तर:

प्रश्न 1. लेखक किस विडंबना की बात करते हैं? विडंबना का स्वरूप क्या है?

उत्तर: लेखक इस बात पर विडंबना (उपहास) करते हैं कि आज भी भारतीय समाज में जातिवाद के पोषकों (समर्थकों) की कमी नहीं है, जबकि जाति प्रथा समाज के लिए अत्यंत हानिकारक है।

विडंबना का स्वरूप: यह है कि जो लोग कार्य-कुशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानते हैं, वे ही जाति प्रथा का समर्थन करते हैं, जबकि जाति प्रथा का श्रम विभाजन अस्वाभाविक है और मनुष्य की कार्य-कुशलता को बाधित करता है। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ लोग एक हानिकारक प्रथा को तर्कसंगत और लाभकारी बताकर उसका बचाव कर रहे हैं।

प्रश्न 2. जातिवाद के पोषकों के पक्ष में क्या तर्क दिए जाते हैं?

उत्तर: जातिवाद के पोषकों (समर्थकों) के पक्ष में मुख्य तर्क यह दिया जाता है कि जाति प्रथा कार्य-कुशलता के लिए श्रम विभाजन का एक आवश्यक तरीका है। उनका मानना है कि यह श्रमिकों को विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक रूप से विभाजित करके समाज में व्यवस्था बनाए रखती है और लोगों को उनके वंशानुगत पेशे में बांधकर दक्षता सुनिश्चित करती है।

प्रश्न 3. जातिवाद के संबंध में लेखक की प्रमुख आपत्तियाँ क्या हैं?

उत्तर: जातिवाद के संबंध में लेखक की प्रमुख आपत्तियाँ निम्नलिखित हैं:

  • जाति प्रथा द्वारा किया गया श्रम विभाजन अस्वाभाविक है क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है।
  • यह व्यक्ति को जीवन भर एक ही पेशे में बांध देती है, भले ही पेशा अनुपयुक्त हो या व्यक्ति को भूखों मरना पड़े।
  • यह व्यक्ति की स्वयं की क्षमता और दिलचस्पी को अनदेखा करके पैतृक पेशे को थोपती है।
  • यह अकर्मण्यता और अकुशलता को बढ़ावा देती है।
  • यह भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण है।
  • यह मनुष्य की व्यक्तिगत भावना और रुचि को दबा देती है।
प्रश्न 4. भारतीय समाज में श्रम विभाजन को स्वाभाविक रूप क्यों नहीं कहा जा सकता?

उत्तर: भारतीय समाज में श्रम विभाजन को स्वाभाविक रूप नहीं कहा जा सकता क्योंकि:

  • यह मनुष्य की व्यक्तिगत रुचि या इच्छा पर आधारित नहीं है। स्वाभाविक श्रम विभाजन व्यक्ति की योग्यता और रुचि के अनुसार होता है।
  • जाति प्रथा में व्यक्ति का पेशा जन्म से ही निर्धारित कर दिया जाता है, उसके माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, न कि उसकी अपनी योग्यता या क्षमता के अनुसार।
  • यह व्यक्तियों को एक ही पेशे में बांध देती है और उन्हें अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता नहीं देती, जबकि आधुनिक युग में यह आवश्यक हो सकता है।
प्रश्न 5. जातिप्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण कैसे बनी हुई है?

उत्तर: जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है क्योंकि:

  • यह व्यक्ति को उसके पैतृक पेशे में बांध देती है और उसे अपना पेशा बदलने की अनुमति नहीं देती।
  • यदि उद्योगों में परिवर्तन या आर्थिक परिस्थितियों के कारण व्यक्ति का पैतृक पेशा अनुपयुक्त हो जाए या वह उसमें काम करने में सक्षम न हो, तो भी उसे दूसरा पेशा चुनने की स्वतंत्रता नहीं मिलती।
  • ऐसी स्थिति में, उसे या तो भूखों मरना पड़ता है या ऐसा काम करना पड़ता है जिसमें उसकी रुचि न हो, जिससे उसकी उत्पादकता और कार्यकुशलता कम हो जाती है, और अंततः यह बेरोजगारी का रूप ले लेता है।
प्रश्न 6. लेखक आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या किसे मानते हैं और क्यों?

उत्तर: लेखक आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या लोगों को निर्धारित काम को अरुचि के साथ और विवशतापूर्वक करने को मानते हैं।

क्यों: वे तर्क देते हैं कि जब व्यक्ति को काम करने के लिए मजबूर किया जाता है और उसकी उसमें रुचि नहीं होती, तो वह कम काम करता है और उसमें दक्षता भी नहीं आती। ऐसी स्थिति में, मनुष्य का आर्थिक शोषण होता है और उसकी व्यक्तिगत भावना एवं रुचि का दमन होता है। यह स्थिति गरीबी और उत्पीड़न से भी अधिक गंभीर है क्योंकि यह व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनने और अपनी क्षमताओं का विकास करने से रोकती है।

प्रश्न 7. लेखक ने पाठ में किन प्रमुख पहलुओं से जाति प्रथा को एक हानिकारक रूप में दिखाया है?

उत्तर: लेखक ने पाठ में निम्नलिखित प्रमुख पहलुओं से जाति प्रथा को एक हानिकारक रूप में दिखाया है:

  • श्रम विभाजन का अस्वाभाविक रूप: यह व्यक्ति की रुचि और क्षमता के बजाय जन्म के आधार पर पेशे का निर्धारण करती है।
  • आर्थिक शोषण और बेरोजगारी: यह व्यक्ति को पैतृक पेशे में बांधकर, पेशा बदलने की स्वतंत्रता न देकर बेरोजगारी और आर्थिक शोषण का कारण बनती है।
  • मानसिक और आत्मिक हानि: यह मनुष्य की व्यक्तिगत भावना, रुचि और आत्म-शक्ति को दबाती है, उसे निष्क्रिय बनाती है।
  • अकुशलता और अकर्मण्यता: पेशे बदलने की स्वतंत्रता न होने से व्यक्ति अकुशल और अकर्मण्य बन जाता है।
  • सामाजिक गतिहीनता: यह समाज में आवश्यक गतिशीलता और खुले सामाजिक संपर्क को बाधित करती है।
प्रश्न 8. सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए लेखक ने किन विशेषताओं को आवश्यक माना है?

उत्तर: सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए लेखक ने निम्नलिखित विशेषताओं को आवश्यक माना है:

  • स्वतंत्रता (Freedom): सभी व्यक्तियों को अपने विकास और जीवन-यापन के लिए पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए।
  • समता (Equality): समाज में सभी लोगों को समान अवसर और सम्मान मिलना चाहिए, किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए।
  • भ्रातृत्व (Fraternity): समाज के सभी सदस्यों के बीच भाईचारे, आपसी सम्मान और सौहार्द की भावना होनी चाहिए, जैसे दूध और पानी का मिश्रण।
  • सामाजिक गतिशीलता: समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए कि वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक बिना किसी बाधा के संचारित हो सकें।
  • खुले सामाजिक संपर्क: सभी को सामाजिक संपर्क के अनेक साधन और अवसर उपलब्ध होने चाहिए।
  • सामूहिक जीवनचर्या और अनुभवों का आदान-प्रदान: लोकतंत्र केवल शासन की पद्धति नहीं, बल्कि सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति और सामाजिक संबंधों के आदान-प्रदान का नाम है।

5. अध्याय की अवधारणाओं पर आधारित 20 नये अभ्यास प्रश्न (हल सहित)

लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Questions):

1. लेखक ने 'विडंबना' शब्द का प्रयोग किस संदर्भ में किया है?

उत्तर: लेखक ने 'विडंबना' शब्द का प्रयोग इस संदर्भ में किया है कि आज भी जातिवाद के समर्थक मौजूद हैं, जो इसे श्रम विभाजन के लिए आवश्यक बताते हैं, जबकि यह प्रथा समाज के लिए अत्यंत हानिकारक है और मनुष्य की स्वतंत्रता व कार्य-कुशलता को बाधित करती है।

2. जाति प्रथा को श्रम विभाजन का अस्वाभाविक रूप क्यों कहा गया है?

उत्तर: जाति प्रथा को श्रम विभाजन का अस्वाभाविक रूप इसलिए कहा गया है क्योंकि यह व्यक्ति की रुचि या क्षमता पर आधारित नहीं होती, बल्कि उसके जन्म से ही उसका पेशा निर्धारित कर देती है, जिससे वह अपनी इच्छा के विरुद्ध काम करने को बाध्य होता है।

3. आधुनिक युग में जाति प्रथा पेशा बदलने में बाधक कैसे बनती है?

उत्तर: आधुनिक युग में औद्योगिक प्रक्रियाओं और तकनीक में निरंतर विकास होता है, जिससे अक्सर पेशे बदलने की आवश्यकता पड़ती है। जाति प्रथा व्यक्ति को पैतृक पेशे में बांधे रखती है और उसे दूसरा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती, जिससे वह आधुनिक परिस्थितियों के अनुकूल नहीं ढल पाता और पेशा बदलने में बाधा आती है।

4. लेखक के अनुसार, एक कुशल समाज के निर्माण के लिए क्या आवश्यक है?

उत्तर: लेखक के अनुसार, एक कुशल समाज के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता को इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वे अपना पेशा अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार स्वतंत्र रूप से चुन सकें।

5. जाति प्रथा को 'आर्थिक पहलू से भी हानिकारक' क्यों कहा गया है?

उत्तर: जाति प्रथा को आर्थिक पहलू से हानिकारक इसलिए कहा गया है क्योंकि यह व्यक्ति को अस्वाभाविक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है, जिससे उसकी प्राकृतिक प्रेरणा और आत्म-रुचि दब जाती है। इससे व्यक्ति कम काम करता है, उसकी कार्यक्षमता घट जाती है, और अंततः यह बेरोजगारी का कारण बनती है।

6. लेखक के लिए 'सच्चे लोकतंत्र' का क्या अर्थ है?

उत्तर: लेखक के लिए 'सच्चे लोकतंत्र' का अर्थ केवल शासन की पद्धति नहीं है, बल्कि एक सामूहिक जीवनचर्या है। यह सामाजिक संबंधों और सामूहिक अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है, जिसमें स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व की भावना निहित हो।

7. 'भाईचारा' (भ्रातृत्व) से लेखक का क्या अभिप्राय है?

उत्तर: 'भाईचारा' (भ्रातृत्व) से लेखक का अभिप्राय एक ऐसे समाज से है जहाँ सभी सदस्य एक-दूसरे के प्रति सम्मान और सौहार्द की भावना रखें, जैसे दूध-पानी का मिश्रण। इसमें इतनी गतिशीलता हो कि कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँच सके, और सभी मिलकर सबकी सुरक्षा और प्रगति में योगदान दें।

8. जाति प्रथा व्यक्ति की व्यक्तिगत भावना और रुचि को कैसे दबाती है?

उत्तर: जाति प्रथा व्यक्ति को उसके पैतृक पेशे में बांधकर उसकी रुचि और क्षमता को विकसित होने से रोकती है। जब व्यक्ति को अपनी रुचि के विरुद्ध काम करना पड़ता है, तो उसकी व्यक्तिगत भावनाएँ और रचनात्मकता दब जाती हैं, जिससे वह निष्क्रिय और अकुशल बन जाता है।

9. लेखक ने 'भाग्य' और 'नियति' के बजाय किस पर जोर दिया है?

उत्तर: लेखक ने आज की गरीबी और उत्पीड़न जैसी बड़ी समस्याओं के समाधान के लिए 'भाग्य' और 'नियति' के बजाय 'विचार' और 'ज्ञान' पर जोर दिया है। वे मानते हैं कि इन समस्याओं का समाधान सोच-समझकर और ज्ञान के आधार पर ही संभव है।

10. 'प्रतिकूल परिस्थितियों' में भी जाति प्रथा व्यक्ति को क्या करने पर मजबूर करती है?

उत्तर: 'प्रतिकूल परिस्थितियों' में भी जाति प्रथा व्यक्ति को उसके पैतृक पेशे में ही बने रहने पर मजबूर करती है। यदि उसका पैतृक पेशा अलाभकारी हो जाए या उससे उसका जीवन यापन न हो सके, तो भी उसे दूसरा पेशा चुनने की अनुमति नहीं मिलती, जिससे उसे भूखों मरने तक की नौबत आ सकती है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions):

11. जाति प्रथा किस प्रकार भारतीय समाज के लिए एक गंभीर चुनौती है? विस्तार से समझाइए।

उत्तर: जाति प्रथा भारतीय समाज के लिए एक गंभीर चुनौती है क्योंकि यह श्रम विभाजन के दृष्टिकोण से अस्वाभाविक और हानिकारक है। यह व्यक्ति की स्वतंत्रता, रुचि और क्षमताओं को दबाती है, जिससे समाज में अकुशलता, अकर्मण्यता और बेरोजगारी बढ़ती है। यह व्यक्ति को एक ही पेशे में बांध देती है, भले ही उसे प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उसे बदलने की अनुमति न मिले। इससे आर्थिक प्रगति बाधित होती है और समाज में भेदभाव तथा ऊँच-नीच की भावना बनी रहती है, जो एक लोकतांत्रिक और समतावादी समाज के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है।

12. लेखक द्वारा वर्णित 'आदर्श समाज' की विशेषताओं का विस्तृत वर्णन कीजिए।

उत्तर: लेखक एक ऐसे आदर्श समाज की कल्पना करते हैं जो स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व (भाईचारा) पर आधारित हो।

  • स्वतंत्रता: इसमें सभी सदस्यों को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने, अपनी क्षमताओं को विकसित करने और अपना पेशा चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता हो।
  • समता: सभी व्यक्तियों को समान अवसर मिलें और किसी के साथ जाति, लिंग या धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न हो।
  • भ्रातृत्व: समाज के सभी सदस्यों के बीच गहरा आपसी संबंध और सद्भाव हो, जैसे दूध और पानी का मिश्रण। इसमें इतनी सामाजिक गतिशीलता हो कि समाज के किसी भी कोने में होने वाला वांछित परिवर्तन सभी तक पहुँच सके और सभी मिलकर सामूहिक हित के लिए काम करें। यह लोकतंत्र का वास्तविक सार है, जहाँ सामूहिक जीवनचर्या और अनुभवों का स्वतंत्र आदान-प्रदान होता है।
13. जाति प्रथा को 'बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण' सिद्ध करने के लिए लेखक ने क्या तर्क दिए हैं?

उत्तर: लेखक ने जाति प्रथा को बेरोजगारी का प्रमुख कारण सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तर्क दिए हैं:

  • जाति प्रथा व्यक्ति को उसके पैतृक पेशे में जीवन भर के लिए बांध देती है, भले ही उसमें उसकी रुचि न हो या वह उसके लिए उपयुक्त न हो।
  • आधुनिक युग में उद्योग और तकनीक के निरंतर विकास के कारण अक्सर पेशे बदलने की आवश्यकता पड़ती है।
  • जाति प्रथा व्यक्ति को प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना पेशा बदलने की अनुमति नहीं देती। यदि पैतृक पेशा अनुपयोगी हो जाए या उसमें काम न हो, तो व्यक्ति के पास भूखों मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता।
  • जब व्यक्ति को अरुचि से काम करना पड़ता है, तो वह कम कुशल होता है और कम उत्पादन करता है, जिससे उसकी आर्थिक स्थिति कमजोर होती है और वह अंततः बेरोजगार हो जाता है। इस प्रकार, जाति प्रथा व्यक्ति की क्षमताओं का दमन कर उसे बेरोजगार बनाती है।
14. लेखक के अनुसार, मनुष्य की व्यक्तिगत भावना और रुचि को दबाना क्यों हानिकारक है?

उत्तर: लेखक के अनुसार, मनुष्य की व्यक्तिगत भावना और रुचि को दबाना अत्यंत हानिकारक है क्योंकि यह व्यक्ति को अकर्मण्य और अकुशल बना देता है। जब व्यक्ति अपनी रुचि या इच्छा के विरुद्ध काम करता है, तो उसमें उत्साह और प्रेरणा नहीं होती, जिससे उसकी कार्यक्षमता घट जाती है। यह न केवल व्यक्ति के आर्थिक शोषण की ओर ले जाता है बल्कि उसकी आत्म-शक्ति और रचनात्मकता को भी नष्ट कर देता है। एक ऐसे समाज में जहाँ व्यक्तियों की रुचि और क्षमता को दबाया जाता है, वास्तविक प्रगति और विकास संभव नहीं है।

15. लोकतंत्र को लेखक ने केवल शासन की पद्धति न मानकर 'सामूहिक जीवनचर्या' क्यों कहा है?

उत्तर: लेखक ने लोकतंत्र को केवल शासन की पद्धति न मानकर 'सामूहिक जीवनचर्या' इसलिए कहा है क्योंकि वे इसे केवल वोट देने या सरकार चुनने तक सीमित नहीं मानते। उनके अनुसार, लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ है कि समाज के सभी सदस्य आपसी सहयोग, स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व की भावना के साथ रहें। यह सामाजिक संबंधों और सामूहिक अनुभवों के निरंतर आदान-प्रदान पर आधारित होना चाहिए, जहाँ सभी एक-दूसरे के हित और प्रगति में समान भागीदार हों। यह एक ऐसा माहौल है जहाँ हर व्यक्ति की आवाज़ सुनी जाए और समाज की गतिशीलता से सभी को लाभ हो।

बहुविकल्पीय प्रश्न (Multiple Choice Questions - MCQ):

16. लेखक किस बात पर विडंबना व्यक्त करते हैं?

(अ) समाज में श्रम विभाजन की कमी पर।
(ब) जातिवाद के पोषकों की कमी न होने पर।
(स) कार्यकुशलता में कमी पर।
(द) आधुनिक युग में परिवर्तन पर।

उत्तर: (ब) जातिवाद के पोषकों की कमी न होने पर।

17. जाति प्रथा द्वारा श्रम विभाजन को अस्वाभाविक क्यों कहा गया है?

(अ) यह आधुनिक समाज के अनुकूल नहीं है।
(ब) यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है।
(स) यह श्रमिकों को उच्च-नीच में बाँट देती है।
(द) उपरोक्त सभी।

उत्तर: (द) उपरोक्त सभी।

18. लेखक के अनुसार, एक आदर्श समाज में क्या अनिवार्य है?

(अ) केवल स्वतंत्रता।
(ब) केवल समता।
(स) स्वतंत्रता, समता, भ्रातृत्व।
(द) वंशानुगत पेशा।

उत्तर: (स) स्वतंत्रता, समता, भ्रातृत्व।

19. जाति प्रथा भारत में किसका प्रमुख कारण बनी हुई है?

(अ) शिक्षा का।
(ब) बेरोजगारी का।
(स) औद्योगिक विकास का।
(द) कार्यकुशलता का।

उत्तर: (ब) बेरोजगारी का।

20. लोकतंत्र के लिए लेखक ने किस मिश्रण को एक आदर्श उदाहरण माना है?

(अ) रेत और पानी का।
(ब) दूध और पानी का।
(स) तेल और पानी का।
(द) मिट्टी और पानी का।

उत्तर: (ब) दूध और पानी का।

6. बोर्ड परीक्षा से पहले पुनरावृत्ति के लिए संक्षिप्त सारांश

यह अध्याय जाति प्रथा को श्रम विभाजन के दृष्टिकोण से एक हानिकारक और अस्वाभाविक सामाजिक व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत करता है। लेखक बताते हैं कि जाति प्रथा व्यक्ति की रुचि, क्षमता और पेशा चुनने की स्वतंत्रता को बाधित करती है, जिससे समाज में अकर्मण्यता, अकुशलता और बेरोजगारी बढ़ती है। वे इसे आधुनिक औद्योगिक समाज के लिए अनुपयुक्त मानते हैं और कहते हैं कि यह मनुष्य की व्यक्तिगत भावना और रुचि का दमन करती है। लेखक एक आदर्श समाज की परिकल्पना करते हैं जो स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व (भाईचारा) के सिद्धांतों पर आधारित हो, जहाँ सामाजिक गतिशीलता हो और सभी मिलकर collective जीवन का हिस्सा बन सकें। उनका मानना है कि सच्चा लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति नहीं, बल्कि सामूहिक जीवनचर्या और सामाजिक अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है।

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