Bihar Board class10 geography part2 chapter2 अध्याय 2: प्राकृतिक आपदा एवं प्रबंधन: बाढ़ और सूखाड़ - सम्पूर्ण नोट्स

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अध्याय 2: प्राकृतिक आपदा एवं प्रबंधन: बाढ़ और सूखाड़ - सम्पूर्ण नोट्स

प्राकृतिक आपदा एवं प्रबंधन: बाढ़ और सूखाड़

आज हम Class 10 Geography Chapter 2 के महत्वपूर्ण विषय प्राकृतिक आपदा एवं प्रबंधन: बाढ़ और सूखाड़ का गहन अध्ययन करेंगे। यह लेख आपको आपदा प्रबंधन की अवधारणाओं को समझने में मदद करेगा, जिसमें बाढ़ के कारण और सूखाड़ के उपाय शामिल हैं। हम कोसी नदी, जिसे 'बिहार का शोक' कहा जाता है, की विनाशलीला और वर्षा जल संचयन जैसे स्थायी समाधानों पर भी विस्तार से चर्चा करेंगे ताकि आप Flood and Drought Management विषय पर अपनी पकड़ मजबूत कर सकें।

I. परिचय (Introduction)

नमस्ते प्यारे विद्यार्थियों!

आज हम आपकी भूगोल की पाठ्यपुस्तक के अध्याय "प्राकृतिक आपदा एवं प्रबंधन: बाढ़ और सूखाड़" का गहन अध्ययन करेंगे। यह नोट्स आपको इस अध्याय को आसानी से समझने, सभी महत्वपूर्ण अवधारणाओं को आत्मसात करने और अपनी बोर्ड परीक्षा की तैयारी करने में मदद करेंगे। इन नोट्स को इस तरह से तैयार किया गया है कि आप इन्हें स्वयं पढ़कर आत्मनिर्भर तरीके से विषय को अच्छे से समझ सकें।

तो चलिए, शुरू करते हैं!

प्रिय छात्रों, अक्सर हमें समाचारों या टेलीविज़न पर बाढ़ और सूखाड़ के बारे में सुनने को मिलता है। ये दोनों ही प्राकृतिक आपदाएँ हैं, जिनका सीधा संबंध वर्षा की मात्रा से होता है। जहाँ अत्यधिक वर्षा से नदियों का जलस्तर बढ़ जाता है और बाढ़ आ जाती है, वहीं वर्षा की कमी से सूखे की स्थिति उत्पन्न होती है, जिससे खेतों में काम नहीं हो पाता और पीने के पानी की भी किल्लत हो जाती है। इस अध्याय में हम इन दोनों आपदाओं के कारण, प्रभाव और इनके प्रबंधन के तरीकों को विस्तार से जानेंगे।

II. महत्वपूर्ण विषय और व्याख्या

A. बाढ़ (Flood)

1. बाढ़ क्या है? (What is Flood?)

  • जब मानसूनी वर्षा बहुत ज़्यादा होती है, तो नदियों का जलस्तर इतना बढ़ जाता है कि पानी किनारों से बाहर निकलकर आस-पास के क्षेत्रों में फैल जाता है, जिससे बाढ़ आ जाती है। यह एक प्राकृतिक आपदा है।
  • पुराने समय से ही बाढ़ आती रही है। भारतीय धर्म ग्रंथों के अनुसार, वर्षा के देवता इंद्र के क्रोधित होने से ही भारी वर्षा और बाढ़ जैसी आपदाएँ आती हैं।

2. बाढ़ के प्रमुख कारण (Main Causes of Flood)

  • अत्यधिक वर्षा: यह नदियों में बाढ़ आने का सबसे प्रमुख कारण है। मानसून की अनिश्चितता के कारण भारत में हर साल किसी न किसी हिस्से में बाढ़ आती है।
  • नदी की तली में अवसाद का जमाव: नदियों की तली में मिट्टी और गाद जमा होने से उनकी जल-धारण क्षमता कम हो जाती है, जिससे कम वर्षा में भी बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है।
  • मानवीय कारण: हाल के वर्षों में बाढ़ की स्थिति मानवीय कारणों से भी बढ़ने लगी है।
  • नदियों के मार्ग में परिवर्तन: कभी-कभी नदियाँ अपना रास्ता बदल लेती हैं, जिससे नए क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, 2008 में भारत-नेपाल सीमा पर कुसहा के पास तटबंध के टूटने से कोसी नदी ने अपना मार्ग बदल लिया था।

3. बाढ़ से होने वाली हानियाँ (Damages caused by Flood)

  • बाढ़ के कारण आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।
  • महामारी फैलना
  • मकानों का गिरना और फसलों की बर्बादी
  • जान-माल का भारी नुकसान होता है।
  • हालांकि, बांग्लादेश जैसे देशों में बाढ़ का पानी अपने साथ उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी और खनिज ह्यूमस लाता है, जिससे बाढ़ प्रभावित क्षेत्र विश्व के सर्वाधिक उपजाऊ मैदानों में से एक बन जाते हैं। पानी उतरने के बाद भूमि फसलों से लहलहा उठती है।

4. भारत के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र/नदियाँ (Flood-prone Regions/Rivers of India)

  • बिहार में कोसी नदी अपनी विनाशकारी बाढ़ के लिए बदनाम है, जिसे 'बिहार का शोक' भी कहा जाता है। यह मुख्य रूप से उत्तरी बिहार को प्रभावित करती है।
  • पश्चिम बंगाल में दामोदर और तीस्ता नदी।
  • असम में ब्रह्मपुत्र।
  • उड़ीसा में महानदी।
  • आंध्र प्रदेश में कृष्णा।
  • गुजरात में नर्मदा का जल समय-समय पर कहर बरपा चुका है।

B. सूखाड़ (Drought)

1. सूखाड़ क्या है? (What is Drought?)

  • जब वर्षा की कमी होती है और आसमान में बादल गायब हो जाते हैं, तो तेज धूप निकल आती है। किसान खेती का काम नहीं कर पाते और पीने के पानी की भी किल्लत हो जाती है। इस स्थिति को सूखाड़ कहते हैं।
  • सूखाड़ की स्थिति वर्षों की भारी कमी के कारण उत्पन्न होती है। यह भी एक प्राकृतिक आपदा है, जो धीरे-धीरे आती है।

2. सूखाड़ के लिए जिम्मेवार कारक (Responsible Factors for Drought)

  • वर्षा की कमी: सूखाड़ का सबसे महत्वपूर्ण और सीधा कारण वर्षा की भारी कमी है।
  • भूजल का अत्यधिक दोहन: बोरिंग और ट्यूबवेल के माध्यम से भूजल का अत्यधिक दोहन भूजल स्तर में गिरावट का एक प्रमुख कारण है, जिससे सूखाड़ की समस्या बढ़ती है।
  • पारिस्थितिक असंतुलन: वर्षा की कमी और भूजल के अत्यधिक दोहन से पारिस्थितिक असंतुलन पैदा होता है, जो सूखाड़ को बढ़ावा देता है।

3. सूखाड़ से होने वाली हानियाँ (Damages caused by Drought)

  • खाद्यान्न की कमी: फसलें न लगने के कारण खाद्यान्न की कमी हो जाती है।
  • पेयजल की कमी
  • मवेशियों के लिए चारे की कमी
  • कालाबाजारी और लूटपाट: खाद्यान्नों की कमी से कालाबाजारी और लूटपाट जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
  • भुखमरी से मरने वालों की संख्या में वृद्धि

4. भारत में सूखाड़ के क्षेत्र और ऐतिहासिक मामले (Drought-prone Regions and Historical Cases in India)

  • भारत सरकार ने देश में लगभग 77 जिलों की पहचान की है जहाँ प्रतिवर्ष सूखे की संभावना रहती है। ये जिले मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में स्थित हैं।
  • 19वीं शताब्दी में 1877 और 1899 के वर्ष सूखे के महत्वपूर्ण वर्ष थे।
  • 20वीं शताब्दी में 1918, 1966 और 1987 ई० में भी भयंकर सूखा पड़ा था।
  • देश के लगभग 16% भूभाग पर सूखाड़ की स्थिति उत्पन्न होती है।

III. आपदा प्रबंधन (Disaster Management)

आपदा प्रबंधन का अर्थ है आपदाओं के प्रभावों को कम करने और उनसे निपटने की तैयारी करना।

C.1. बाढ़ प्रबंधन (Flood Management)

पारंपरिक तरीके और आधुनिक प्रयास:

  • बाढ़ की विनाशलीला को रोकने के लिए अंग्रेजों के समय से ही बाँध और तटबंध बनाने का कार्य हो रहा है।
  • स्वतंत्रता के बाद बाढ़ जैसी आपदा हेतु बाँध तथा तटबंधों के निर्माण का प्रयास जारी रहा।
  • हालाँकि, कुसहा में तटबंध टूटने के बाद तथा कई नदियों के बाँध में दरार आने के बाद इस प्रबंधन पर प्रश्नचिह्न लग गया है।
  • भारत ही नहीं, बल्कि चीन, मिस्र, पाकिस्तान और नाइजीरिया जैसे देशों ने भी नदियों पर बाँध बनाकर कृत्रिम जलाशयों का निर्माण किया है।

बाढ़ प्रबंधन की चुनौतियाँ और वैकल्पिक टिकाऊ प्रबंधन:

तटबंध टिकाऊ प्रबंध नहीं हैं, इनके टूटने से और भी भयावह स्थिति उत्पन्न होती है। इसलिए, इस अवधारणा को बल मिला है कि पारिस्थितिकी के अनुरूप टिकाऊ प्रबंधन को प्राथमिकता दी जाए। इसके लिए निम्नलिखित प्रयास आवश्यक हैं:

  1. बाढ़-प्रतिरोधी निर्माण: ऐसी इमारतों/भवनों का निर्माण जो कम लागत की हों और जिनमें रसायन मिश्रित कच्चे मालों का प्रयोग हो, जिससे बाढ़ के बावजूद मकान बर्बाद न हों।
  2. मकान निर्माण हेतु जागरूकता: आम लोगों को मकान बनाने से पहले यह जानकारी देनी चाहिए कि मकानों का निर्माण पूर्णतः नदी के किनारे तथा नदी की सकरी दालों पर नहीं करना चाहिए। ऐसे जगहों पर मकान की दूरी कम से कम 250 मी० की दूरी पर होनी चाहिए। मकानों की नींव तथा दीवार सीमेंट और कंक्रीट की होनी चाहिए। मकान स्तंभ (pillar) आधारित होने चाहिए और स्तंभ की गहराई काफी होनी चाहिए।
  3. तत्काल जल निकासी: बाढ़ के बाद जल निकालने की तात्कालिक व्यवस्था होनी चाहिए। इस कार्य में ग्राम पंचायतों की अहम भूमिका हो सकती है।
  4. पूर्व सूचना का प्रबंधन: बाढ़ पूर्वानुमान के लिए दूर संवेदन सूचनाएँ निश्चित रूप से एकत्रित की जानी चाहिए। इससे बाढ़ आने से पूर्व ही संभावित क्षेत्रों में सूचना तंत्र के माध्यम से सूचना दी जा सकती है।
  5. आपातकालीन व्यवस्था: समय पर सूचना मिलने से विद्यालय बंद कर दिए जा सकते हैं। स्थानीय अस्पताल में डॉक्टर और दवाई की व्यवस्था की जा सकती है। प्रशासन चुस्त हो सकता है और खाद्य आपूर्ति, पेयजल और दवाइयों हेतु आकस्मिक राशि उपलब्ध करायी जा सकती है।
  6. लोगों को प्रशिक्षण: बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के लोगों को तैरने का प्रशिक्षण देना चाहिए। विद्यालयों और पंचायतों में स्विमिंग जैकेट की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे अधिक लोग तैरकर बाहर निकल सकें।
  7. महामारी नियंत्रण: बाढ़ के जल के निकलने के बाद सबसे बड़ी समस्या महामारी फैलने की होती है, अतः डी० डी० टी० का छिड़काव, ब्लीचिंग पाउडर का छिड़काव और मृत जानवरों को शीघ्र हटाने की व्यवस्था होनी चाहिए।
  8. सामुदायिक सहयोग: बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से इस बात का प्रशिक्षण देना आवश्यक है कि किस प्रकार एक-दूसरे का सहयोग कर सकते हैं। जैसे- आपसी भेद-भाव भूलाकर गाँव के ऊँचे भवनों पर एकत्रित होना; महामारी फैलने की स्थिति में गर्म जल, चीनी और नमक का घोल पिलाना तथा भोजन और कपड़े की व्यवस्था करने की भावना को सामूहिक दायित्व के रूप में विकसित करना चाहिए।

C.2. सूखाड़ प्रबंधन (Drought Management)

सूखाड़ जैसी आपदा के प्रबंधन हेतु दो प्रकार की योजनाएँ आवश्यक हैं:

  1. दीर्घकालीन योजनाएँ: इनमें नदी-नहर, तालाब, कुआँ, पाइन, आहार के विकास की ज़रूरत होती है। नहरें, पाइन और आहार मानव निर्मित जल-प्रवाह के मार्ग हैं, और इनकी मदद से भूमिगत जल का उपयोग मुख्यतः कृषि कार्य एवं पेयजल के लिए होता है।
  2. लघुकालीन योजनाएँ: ये तात्कालिक राहत प्रदान करती हैं।

नदी जोड़ो परियोजना (River Linking Project):

  • भारत सरकार द्वारा सभी नदियों को जोड़ने की योजना के द्वारा बाढ़ग्रसित क्षेत्र के नदियों के अतिरिक्त जल को ऐसे क्षेत्रों में पहुँचाने की योजना है जो सामान्यतः सूखाग्रसित होते हैं।
  • लेकिन कई कारणों से अभी तक इस योजना का कार्यरूप नहीं दिया जा सका है। पर्यावरण विशेषज्ञों ने भी इस प्रकार की योजना का विरोध किया है।

जल संरक्षण के तरीके (Water Conservation Methods):

  • सूखाड़ की समस्या का स्थायी समाधान सिंचाई आयोग के अनुसार वर्षा जल संग्रह और भूजल का उचित उपयोग है।
  • तालाबों का निर्माण: तालाब बनाने का मूल उद्देश्य वर्षा जल का संग्रह करना है। पुनः यदि नहर अतिरिक्त जल देती है, तो उसे तालाब में रखा जा सकता है।
  • कुएँ और बोरिंग का उपयोग: कुएँ के निर्माण से भूमिगत जल का उपयोग पेयजल की समस्या का समाधान हो जाता है। हालांकि, वर्तमान में बोरिंग और ट्यूबवेल के माध्यम से भूजल जल का दोहन बढ़ गया है, जिससे पारिस्थितिक संकट उत्पन्न हुआ है और भूजल स्तर में भारी गिरावट चिंता का विषय है।
  • वर्षा जल संचयन (Rainwater Harvesting): यह सूखे की स्थिति में वरदान साबित हो रहा है।
    • मकान के छत पर एक बड़ी पानी की टंकी द्वारा वर्षा के जल को संग्रहित किया जाता है और फिर नल द्वारा इस पानी को पीने हेतु उपयोग करते हैं।
    • इससे भूजल स्तर में वृद्धि होती है और मवेशियों और पौधों को भी जल मिलता है। हल्की वर्षा होने पर भी यह लोगों के लिए जीवनदायिनी का काम कर सकता है।
    • भारत के कई राज्यों में इसका संग्रह कुंड या तालाब बनाकर किया जाता है।
    • राजस्थान जैसे राज्य में छोटे स्तर पर जल संग्रहण हेतु 50 हेक्टेयर तक के वाटर शेड क्षेत्रों की पहचान की गई है।
  • कुशल सिंचाई तकनीकें (Efficient Irrigation Techniques):
    • ड्रिप और छिड़काव सिंचाई (Drip and Sprinkler Irrigation): सूखे और कम वर्षा के क्षेत्र में इन तकनीकों से न सिर्फ जल का सही उपयोग होता है बल्कि कम जल के उपयोग से उत्पन्न होने वाले फसलों को भी सूखाड़ के दिनों में लगाया जा सकता है।
    • ये ऐसी फसलें हैं जिनमें फल-फूल और सब्जी तथा दलहन, की कृषि विशेषज्ञ रूप से की जा सकती है।
    • भारत में 75 सेमी से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में ग्रामीण विकास योजनाओं के अंतर्गत इस प्रकार की सिंचाई योजना को पर्याप्त महत्व दिया गया है।
    • कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में ड्रिप और छिड़काव सिंचाई योजना को ग्रामीण विकास योजना का अंग बनाया गया है।
    • किसानों को विशेष आर्थिक मदद दी जाती है और स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से इन सिंचाई योजनाओं से परिचित कराया जाता है।

IV. प्रमुख परिभाषाएँ और संकल्पनाएँ

1. बाढ़ (Flood):

अत्यधिक वर्षा के कारण नदियों के जलस्तर का किनारों से बाहर निकलकर आसपास के क्षेत्रों में फैल जाना।

2. सूखाड़ (Drought):

वर्षा की भारी कमी के कारण पीने के पानी और कृषि कार्य के लिए जल की किल्लत की स्थिति।

3. प्राकृतिक आपदा (Natural Disaster):

प्रकृति के कारणों से उत्पन्न होने वाली आपदाएँ, जैसे बाढ़ और सूखाड़।

4. मानव जनित आपदा (Man-made Disaster):

मानव गतिविधियों के कारण उत्पन्न होने वाली आपदाएँ (इस अध्याय में सीधे परिभाषित नहीं, लेकिन मानवीय हस्तक्षेप से आपदा की स्थिति बिगड़ने का उल्लेख है)।

5. जल संचयन (Water Harvesting):

वर्षा के जल को इकट्ठा करना और उसका संरक्षण करना, ताकि बाद में उपयोग किया जा सके।

6. कृत्रिम जलाशय (Artificial Reservoir):

नदियों पर बाँध बनाकर बनाए गए मानव निर्मित बड़े जल संग्रह क्षेत्र।

7. तटबंध (Embankment):

नदियों के किनारों पर बनाए गए मिट्टी या अन्य सामग्री के ऊँचे बाँध, जो पानी को फैलने से रोकते हैं।

8. सिंचाई (Irrigation):

फसलों को कृत्रिम रूप से पानी उपलब्ध कराने की प्रक्रिया।

9. भूजल (Groundwater):

भूमि की सतह के नीचे चट्टानों और मिट्टी के कणों के बीच जमा हुआ पानी।

10. नदी जोड़ो परियोजना (River Linking Project):

नदियों के अतिरिक्त जल को सूखाग्रस्त क्षेत्रों तक पहुँचाने के लिए नदियों को आपस में जोड़ने की एक महत्वाकांक्षी योजना।

V. पुस्तक में दिए गए उदाहरणों का स्पष्टीकरण

पुस्तक में प्रत्यक्ष रूप से कोई संख्यात्मक उदाहरण या अभ्यास हल करने के लिए नहीं दिया गया है। हालाँकि, कुछ महत्वपूर्ण सूचियाँ और तथ्य दिए गए हैं जो उदाहरण के रूप में महत्वपूर्ण हैं। हम उन्हें यहाँ समझा रहे हैं:

1. भारत के प्रमुख बाँध और उनके कृत्रिम जलाशय

  • भाखड़ा नांगल बाँध: यह सतलज नदी पर बना है, और इसका कृत्रिम जलाशय गोविंद सागर है। यह एक विशाल बाँध है जो बिजली उत्पादन और सिंचाई में मदद करता है।
  • नर्मदा परियोजना: यह नर्मदा नदी पर आधारित है, और इसका प्रमुख जलाशय सरदार सरोवर है। यह परियोजना गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों को लाभ पहुँचाती है।
  • नागार्जुनसागर परियोजना: यह कृष्णा नदी पर स्थित है, और इसका जलाशय भी नागार्जुन सागर कहलाता है। यह दक्षिण भारत की महत्वपूर्ण सिंचाई परियोजनाओं में से एक है।
  • कावेरी परियोजना: यह कावेरी नदी पर निर्मित है, और इसका जलाशय कृष्णा सागर है। कावेरी नदी पर कई बाँध हैं, जो कृषि के लिए महत्वपूर्ण हैं।
  • रिहंद बाँध: यह रिहंद नदी पर बना है, और इसका जलाशय पंत सागर है। यह उत्तर प्रदेश में स्थित एक महत्वपूर्ण बाँध है।
  • महत्व: ये सभी बाँध भारत में बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई प्रबंधन के लिए महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इनके निर्माण से कृत्रिम जलाशय बनते हैं, जो कभी-कभी अपने आप में बड़ी जल राशि होने के कारण प्रबंधन की चुनौती भी पेश करते हैं।

2. विश्व का सबसे ऊँचा बाँध

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि दुनिया का सबसे ऊँचा बाँध नील नदी पर आसवान नामक जगह पर बनाया गया है। यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है जो बाँधों के वैश्विक महत्व को दर्शाता है।

3. भारत में सूखाग्रस्त 77 जिले

भारत सरकार ने देश में 77 ऐसे जिलों की पहचान की है जहाँ हर साल सूखे की संभावना रहती है। ये जिले मुख्य रूप से राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में हैं। यह जानकारी हमें बताती है कि सूखाड़ की समस्या भारत के बड़े हिस्से में मौजूद है और इसके लिए विशेष प्रबंधन की आवश्यकता है।

4. भारत में सूखे के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वर्ष

  • 19वीं शताब्दी: 1877 और 1899।
  • 20वीं शताब्दी: 1918, 1966 और 1987।

ये वर्ष हमें दिखाते हैं कि सूखाड़ भारत में एक आवर्ती समस्या रही है, जिसके गंभीर परिणाम हुए हैं।

VI. अध्याय के अभ्यास प्रश्नों के विस्तृत उत्तर

A. वस्तुनिष्ठ प्रश्न (Objective Questions)

1. नदियों में बाढ़ आने का प्रमुख कारण क्या है?

(क) जल की अधिकता (ख) नदी की तली में अवसाद का जमाव (ग) वर्षा का अधिकता (घ) इनमें से कोई नहीं

सही उत्तर: (ग) वर्षा का अधिकता

व्याख्या: स्रोत स्पष्ट रूप से बताता है कि "जब मानसूनी वर्षा अत्यधिक होती है तो नदियों के जलस्तर में उफान आ जाता है और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है।" नदी की तली में अवसाद का जमाव भी एक कारण है, लेकिन "वर्षा का अधिकता" प्राथमिक और सबसे सीधा कारण है।

2. बिहार का कौन-सा क्षेत्र बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र है?

(क) पूर्वी बिहार (ख) दक्षिणी बिहार (ग) उत्तरी बिहार (घ) पश्चिमी बिहार

सही उत्तर: (ग) उत्तरी बिहार

व्याख्या: स्रोत में कोसी नदी का विशेष रूप से उल्लेख है, जो बिहार में अपनी विभीषिका के लिए बदनाम है। कोसी नदी मुख्य रूप से उत्तरी बिहार में बाढ़ लाती है।

3. निम्नलिखित में से किस नदी को 'बिहार का शोक' कहा जाता है?

(क) गंगा (ख) गंडक (ग) कोसी (घ) पुनपुन

सही उत्तर: (ग) कोसी

व्याख्या: स्रोत सीधे तौर पर कहता है कि "बिहार में कोसी नदी... की विभीषिका के लिए बदनाम हो चुकी है।"

4. बाढ़ क्या है?

(क) प्राकृतिक आपदा (ख) मानव जनित आपदा (ग) सामान्य आपदा (घ) इनमें से कोई नहीं

सही उत्तर: (क) प्राकृतिक आपदा

व्याख्या: स्रोत की शुरुआत में ही कहा गया है कि "बाढ़ और सूखाड़ वे प्राकृतिक आपदाएँ हैं"।

5. सूखा किस प्रकार की आपदा है?

(क) प्राकृतिक आपदा (ख) मानवीय आपदा (ग) सामान्य आपदा (घ) इनमें से कोई नहीं

सही उत्तर: (क) प्राकृतिक आपदा

व्याख्या: स्रोत में स्पष्ट है कि बाढ़ और सूखाड़ दोनों प्राकृतिक आपदाएँ हैं।

6. सूखे की स्थिति किस प्रकार आती है?

(क) अचानक (ख) पूर्व सूचना के अनुसार (ग) धीरे-धीरे (घ) इनमें से कोई नहीं

सही उत्तर: (ग) धीरे-धीरे

व्याख्या: सूखाड़ वर्षा की कमी के कारण होता है, जो धीरे-धीरे विकसित होता है, जिससे पानी की किल्लत और खेती न कर पाने की स्थिति बनती है। यह एक क्रमिक प्रक्रिया है, अचानक नहीं होती।

7. सूखे के लिए जिम्मेवार कारक हैं:

(क) वर्षा की कमी (ख) भूकंप (ग) बाढ़ (घ) ज्वालामुखी क्रिया

सही उत्तर: (क) वर्षा की कमी

व्याख्या: स्रोत बताता है कि "वर्षों की भारी कमी के कारण सूखाड़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।"

8. सूखे से बचाव का एक मुख्य तरीका है -

(क) नदियों को आपस में जोड़ देना (ख) वर्षा जल संग्रह करना (ग) बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करना (घ) इनमें से कोई नहीं

सही उत्तर: (ख) वर्षा जल संग्रह करना

व्याख्या: स्रोत और में वर्षा जल संचयन को सूखाड़ से बचाव का एक प्रभावी तरीका बताया गया है, जो भूजल स्तर को बढ़ाने में मदद करता है। नदी जोड़ो परियोजना भी एक तरीका है, लेकिन वर्षा जल संग्रह अधिक प्रत्यक्ष और व्यक्तिगत स्तर पर लागू होने वाला तरीका है।

B. लघु उत्तरीय प्रश्न (Short Answer Questions)

1. बाढ़ कैसे आती है? स्पष्ट करें।

बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा है जो मानसूनी वर्षा की अनिश्चितता के कारण आती है। जब किसी क्षेत्र में अत्यधिक मानसूनी वर्षा होती है, तो नदियों का जलस्तर सामान्य से काफी ऊपर उठ जाता है। यह बढ़ा हुआ जल नदियों के किनारों को तोड़कर आस-पास के निचले मैदानी इलाकों, गाँवों और शहरों में फैल जाता है, जिससे बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। हाल के वर्षों में, मानवीय गतिविधियों, जैसे कि नदियों में गाद का जमाव और अतिक्रमण, ने भी बाढ़ की स्थिति को और गंभीर बना दिया है।

2. बाढ़ से होनेवाली हानियों की चर्चा करें।

बाढ़ से जनजीवन पर भारी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और यह व्यापक हानियों का कारण बनती है। इसकी प्रमुख हानियाँ निम्नलिखित हैं:

  • जान-माल का नुकसान: बाढ़ के पानी में डूबने से लोगों और मवेशियों की जानें जाती हैं, और घरों, फसलों व अन्य संपत्ति को भारी नुकसान होता है।
  • महामारी का प्रकोप: बाढ़ के बाद जल-जमाव और दूषित पानी के कारण हैजा, पेचिश और अन्य जलजनित बीमारियों और महामारियों के फैलने का खतरा बढ़ जाता है।
  • फसलों की बर्बादी: कृषि भूमि जलमग्न हो जाती है, जिससे खड़ी फसलें नष्ट हो जाती हैं और खाद्य संकट उत्पन्न हो सकता है।
  • आधारभूत संरचना का विनाश: सड़कें, पुल, बिजली के खंभे और संचार व्यवस्थाएँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, जिससे परिवहन और संचार बाधित हो जाता है।
  • रोज़गार का नुकसान: खेती और अन्य स्थानीय व्यवसाय ठप पड़ जाते हैं, जिससे लोगों की आजीविका पर बुरा असर पड़ता है।

3. बाढ़ से सुरक्षा हेतु अपनाई जानेवाली सावधानियों को लिखें।

बाढ़ से सुरक्षा के लिए निम्नलिखित सावधानियाँ अपनानी चाहिए:

  • पूर्व सूचना का उपयोग: बाढ़ पूर्वानुमान के लिए दूर संवेदन (remote sensing) से मिली सूचनाओं को एकत्रित कर संभावित क्षेत्रों में समय पर जानकारी पहुँचाई जाए, ताकि लोग सुरक्षित स्थानों पर जा सकें।
  • मकानों का सुरक्षित निर्माण: मकानों का निर्माण नदी से कम से कम 250 मीटर दूर और ऊँचे स्थानों पर करना चाहिए। उनकी नींव और दीवारें सीमेंट-कंक्रीट की हों, और मकान स्तंभों (pillars) पर आधारित हों जिनकी गहराई पर्याप्त हो।
  • तत्काल जल निकासी की व्यवस्था: बाढ़ का पानी उतरने के बाद गाँवों में तत्काल जल निकासी की व्यवस्था की जाए, जिसमें ग्राम पंचायतों की अहम भूमिका हो।
  • महामारी नियंत्रण के उपाय: बाढ़ के बाद बीमारियों के फैलाव को रोकने के लिए डी.डी.टी. और ब्लीचिंग पाउडर का छिड़काव, तथा मृत जानवरों को शीघ्र हटाना आवश्यक है।
  • सामुदायिक सहयोग और प्रशिक्षण: बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लोगों को तैरने का प्रशिक्षण दिया जाए और स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद से उन्हें एक-दूसरे का सहयोग करने की भावना सिखाई जाए। स्कूलों और पंचायतों में स्विमिंग जैकेट की व्यवस्था हो।
  • आपातकालीन चिकित्सा और आपूर्ति: स्थानीय अस्पतालों में डॉक्टरों, दवाइयों और खाद्य आपूर्ति की व्यवस्था होनी चाहिए।

4. बाढ़ नियंत्रण के लिए उपाय बताएँ।

बाढ़ नियंत्रण के लिए दीर्घकालीन और लघुकालीन दोनों तरह के उपाय आवश्यक हैं:

  • बाँधों और तटबंधों का निर्माण: नदियों पर बाँध बनाकर और तटबंधों का निर्माण करके पानी के फैलाव को नियंत्रित किया जा सकता है। हालाँकि, तटबंधों के टूटने का जोखिम भी होता है।
  • नदी तल की गाद निकालना: नदियों की तली में जमा गाद (अवसाद) को निकालकर उनकी जल-धारण क्षमता बढ़ाई जा सकती है।
  • वैकल्पिक टिकाऊ प्रबंधन: बाढ़-प्रतिरोधी भवनों का निर्माण करना, जो कम लागत में बने हों और बाढ़ के बावजूद बर्बाद न हों।
  • वनारोपण: नदी तटों पर और जलग्रहण क्षेत्रों में वृक्षारोपण करने से मिट्टी का कटाव कम होता है और पानी का बहाव नियंत्रित होता है (स्रोत में सीधा उल्लेख नहीं, लेकिन सामान्य ज्ञान)।
  • पूर्व चेतावनी प्रणाली: दूर संवेदन (remote sensing) जैसी आधुनिक तकनीकों का उपयोग करके बाढ़ की पूर्व सूचना देना ताकि लोगों को सुरक्षित निकाला जा सके और संपत्ति को बचाया जा सके।
  • समुदायिक भागीदारी: स्थानीय लोगों और स्वयंसेवी संस्थाओं को आपदा प्रबंधन में शामिल करना और उन्हें आवश्यक प्रशिक्षण देना।

5. सूखे की स्थिति को परिभाषित करें।

सूखे की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब किसी क्षेत्र में वर्षा की भारी कमी होती है। इसका परिणाम यह होता है कि आसमान में बादल गायब हो जाते हैं और तेज धूप निकल आती है। इस वजह से किसानों को खेती का काम करने में बहुत कठिनाई होती है या वे कर ही नहीं पाते, और पेयजल की भी भीषण किल्लत हो जाती है। सूखे की स्थिति का तात्पर्य फसलों के लिए पर्याप्त पानी की अनुपलब्धता, पेयजल की कमी और मवेशियों के लिए चारे की कमी से है, जिससे खाद्यान्न संकट और अन्य सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

6. सूखाड़ के लिए जिम्मेवार कारकों का वर्णन करें।

सूखाड़ के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित कारक जिम्मेदार हैं:

  • वर्षा की कमी: यह सूखाड़ का सबसे महत्वपूर्ण और प्रत्यक्ष कारण है। मानसूनी वर्षा का कम होना या अनियमित होना सूखे की स्थिति को जन्म देता है।
  • भूजल का अत्यधिक दोहन: वर्तमान समय में बोरिंग और ट्यूबवेल के माध्यम से भूमिगत जल का अत्यधिक उपयोग हो रहा है, खासकर कृषि और पीने के लिए। इससे भूजल स्तर में तेजी से गिरावट आ रही है, जिससे पानी की उपलब्धता कम हो रही है।
  • पारिस्थितिक असंतुलन: वनों की कटाई, अत्यधिक चराई और पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण जैसे कारक वर्षा चक्र को प्रभावित करते हैं, जिससे सूखे की संभावना बढ़ती है। भूजल के अत्यधिक दोहन से उत्पन्न पारिस्थितिक संकट भी इसमें योगदान देता है।
  • जल संरक्षण के उपायों की कमी: वर्षा जल संचयन और अन्य जल संरक्षण विधियों को ठीक से न अपनाने से उपलब्ध वर्षा जल का उचित उपयोग नहीं हो पाता, जिससे सूखाड़ की स्थिति और बिगड़ जाती है।

7. सूखाड़ से बचाव के तरीकों को उल्लेख करें।

सूखाड़ से बचाव के लिए दीर्घकालीन और लघुकालीन दोनों प्रकार की योजनाएँ बनाई जाती हैं। प्रमुख तरीके इस प्रकार हैं:

  • नदी जोड़ो परियोजना: नदियों के अतिरिक्त जल को सूखाग्रस्त क्षेत्रों तक पहुँचाने के लिए नदियों को आपस में जोड़ने की योजना प्रस्तावित है, हालांकि इसमें कुछ चुनौतियाँ और विरोध भी हैं।
  • जल संरक्षण:
    • तालाब और कुएँ का निर्माण: वर्षा जल को संग्रह करने और भूजल स्तर को बढ़ाने के लिए तालाबों और कुओं का निर्माण करना चाहिए।
    • वर्षा जल संचयन (Rainwater Harvesting): घरों की छतों पर और अन्य स्थानों पर वर्षा जल को इकट्ठा करके उसे भूमिगत टैंकों या भूजल पुनर्भरण के लिए उपयोग करना चाहिए। यह भूजल स्तर को बढ़ाने में सहायक है।
  • कुशल सिंचाई तकनीकें:
    • ड्रिप और छिड़काव सिंचाई (Drip and Sprinkler Irrigation): इन तकनीकों से पानी की बचत होती है और कम पानी में भी फसलों को उगाया जा सकता है, खासकर 75 सेमी से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में। सरकार इन योजनाओं को प्रोत्साहित कर रही है और किसानों को मदद भी दे रही है।
  • सूखा-प्रतिरोधी फसलों का चुनाव: ऐसे क्षेत्रों में कम पानी में उगने वाली फसलों (जैसे फल-फूल, सब्जियाँ, दलहन) को प्राथमिकता देनी चाहिए, जिनके लिए कम पानी की आवश्यकता होती है।
  • भूजल प्रबंधन: भूजल के अत्यधिक दोहन को नियंत्रित करना और उसके पुनर्भरण (recharge) के उपायों को बढ़ावा देना।
  • वनारोपण: वृक्षारोपण से वर्षा को आकर्षित करने और मिट्टी में नमी बनाए रखने में मदद मिलती है (स्रोत में सीधा उल्लेख नहीं, लेकिन सामान्य ज्ञान)।

C. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न (Long Answer Questions)

1. बिहार में बाढ़ की स्थिति का वर्णन करें।

बिहार भारत के उन राज्यों में से एक है जो प्रतिवर्ष मानसून की अनिश्चितता के कारण बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित होता है। विशेष रूप से उत्तरी बिहार का क्षेत्र बाढ़ के लिए अत्यंत संवेदनशील है। बिहार में कोसी नदी को 'बिहार का शोक' कहा जाता है। यह नदी अपने बार-बार मार्ग बदलने और विनाशकारी बाढ़ लाने के लिए कुख्यात है।

कारण: बिहार में बाढ़ का प्रमुख कारण हिमालय से आने वाली नदियों में मानसून के दौरान अत्यधिक जल और गाद का बहाव है। नदियों की तली में गाद जमा होने से उनकी जल वहन क्षमता कम हो जाती है, जिससे पानी किनारों से बाहर फैल जाता है। 2008 में कुसहा में तटबंध टूटने से कोसी नदी ने अपना मार्ग बदल लिया था, जिससे बड़े पैमाने पर तबाही हुई थी।

प्रभाव: बिहार में बाढ़ हर साल बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान करती है। घर, फसलें, मवेशी और आधारभूत संरचना जैसे सड़क और पुल बह जाते हैं। बाढ़ के बाद दूषित पानी और जल-जमाव से महामारियाँ फैलती हैं, जिससे जनजीवन और अस्त-व्यस्त हो जाता है। कृषि प्रधान राज्य होने के कारण फसलों की बर्बादी से किसानों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है, जिससे खाद्य संकट भी उत्पन्न होता है। बाढ़ के कारण लोग विस्थापित होते हैं और उन्हें आश्रय शिविरों में रहना पड़ता है, जिससे सामान्य जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है।

2. बाढ़ के कारणों एवं इसकी सुरक्षा संबंधी उपायों का विस्तृत वर्णन करें।

बाढ़ के कारण:

  • अत्यधिक मानसूनी वर्षा: भारत में मानसून की अनिश्चितता के कारण किसी एक क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा होने से नदियों का जलस्तर तेजी से बढ़ता है और वे उफान पर आ जाती हैं।
  • नदी तल में गाद जमाव: नदियों के तल में मिट्टी और गाद (अवसाद) के जमा होने से उनकी जल-धारण क्षमता कम हो जाती है, जिससे थोड़ी सी वर्षा में भी पानी बाहर फैलने लगता है।
  • नदियों के मार्ग में परिवर्तन: कई बार नदियाँ अपना प्राकृतिक मार्ग बदल लेती हैं, जिससे नए क्षेत्रों में अचानक बाढ़ आ जाती है। 2008 में कोसी नदी द्वारा मार्ग बदलना इसका एक प्रमुख उदाहरण है।
  • बाँधों और तटबंधों का टूटना/कमजोर होना: बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाए गए बाँध या तटबंध जब कमजोर होकर टूट जाते हैं, तो अचानक भारी मात्रा में पानी निचले इलाकों में फैल जाता है, जिससे विनाशकारी बाढ़ आती है।
  • मानवीय अतिक्रमण: नदी किनारों पर या बाढ़ के मैदानों में अवैध निर्माण और अतिक्रमण भी जल निकासी को बाधित करता है, जिससे बाढ़ का पानी जमा होता है।

बाढ़ से सुरक्षा संबंधी उपाय:

  • पूर्व चेतावनी प्रणाली: बाढ़ आने से पहले ही दूर संवेदन जैसी तकनीकों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर संभावित क्षेत्रों में लोगों को सूचित करना चाहिए। इससे लोगों को सुरक्षित स्थानों पर जाने और तैयारी करने का समय मिल जाता है।
  • सुरक्षित निर्माण मानक: भवनों का निर्माण ऊँचे स्थानों पर, नदी से पर्याप्त दूरी पर (कम से कम 250 मीटर) और बाढ़ प्रतिरोधी सामग्री (सीमेंट-कंक्रीट) का उपयोग करके किया जाना चाहिए। मकान स्तंभ आधारित होने चाहिए।
  • नदी प्रबंधन: नदियों के तल से गाद निकालने, आवश्यकतानुसार बाँध और तटबंधों का निर्माण और उनकी नियमित मरम्मत करना आवश्यक है।
  • तत्काल जल निकासी: बाढ़ का पानी उतरने के बाद प्रभावित क्षेत्रों से पानी को निकालने की तुरंत व्यवस्था की जानी चाहिए, ताकि बीमारियाँ न फैलें। इसमें ग्राम पंचायतों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
  • स्वच्छता और स्वास्थ्य प्रबंधन: बाढ़ के बाद महामारियों जैसे हैजा, पेचिश आदि के फैलाव को रोकने के लिए डी.डी.टी., ब्लीचिंग पाउडर का छिड़काव और मृत जानवरों को तुरंत हटाना चाहिए। स्थानीय अस्पतालों में डॉक्टरों और दवाइयों की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए।
  • जन जागरूकता और प्रशिक्षण: बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लोगों को तैरने, आपदा के समय सुरक्षित रहने और एक-दूसरे की मदद करने का प्रशिक्षण देना चाहिए। स्कूलों और पंचायतों में स्विमिंग जैकेट जैसी आपातकालीन सुविधाओं की व्यवस्था करनी चाहिए।
  • सामुदायिक भागीदारी: स्वयंसेवी संस्थाओं और स्थानीय समुदायों को आपदा प्रबंधन के प्रयासों में सक्रिय रूप से शामिल करना, जिससे बचाव और राहत कार्य अधिक प्रभावी हो सकें।

3. सूखाड़ के कारणों एवं इनके बचाव के तरीकों का विस्तृत वर्णन करें।

सूखाड़ के कारण:

  • वर्षा की कमी और अनियमितता: सूखाड़ का सबसे प्राथमिक कारण वर्षा की भारी कमी या उसका अनियमित वितरण है। मानसूनी वर्षा पर अत्यधिक निर्भरता वाले क्षेत्रों में, मानसून की विफलता सीधे सूखे की ओर ले जाती है।
  • भूजल का अत्यधिक दोहन: कृषि और पेयजल की बढ़ती ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बोरिंग और ट्यूबवेल के माध्यम से भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। इससे भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है, जिससे कुएँ और हैंडपंप सूख रहे हैं।
  • पारिस्थितिक असंतुलन: वनों की कटाई, भूमि का अनुचित उपयोग, और पर्यावरण प्रदूषण जैसे मानवीय कारक वर्षा चक्र को प्रभावित कर सकते हैं और मिट्टी की नमी को कम कर सकते हैं, जिससे सूखाड़ का खतरा बढ़ जाता है।
  • पारंपरिक जल स्रोतों की उपेक्षा: तालाबों, झीलों और अन्य पारंपरिक जल संचयन प्रणालियों की उपेक्षा और अतिक्रमण ने जल भंडारण की क्षमता को कम कर दिया है।

सूखाड़ से बचाव के तरीके (प्रबंधन):

  • दीर्घकालीन और लघुकालीन योजनाएँ: सूखाड़ प्रबंधन के लिए दोहरी रणनीति अपनाई जाती है: दीर्घकालीन योजनाएँ जो बुनियादी ढाँचे के विकास पर ध्यान केंद्रित करती हैं (जैसे नहरें, तालाब), और लघुकालीन योजनाएँ जो तत्काल राहत प्रदान करती हैं।
  • नदी जोड़ो परियोजना: भारत सरकार ने बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों से अतिरिक्त जल को सूखाग्रस्त क्षेत्रों तक पहुँचाने के लिए नदियों को आपस में जोड़ने की एक महत्वाकांक्षी योजना बनाई है। हालांकि, इसके पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों पर बहस जारी है।
  • जल संरक्षण और संचयन (Water Conservation and Harvesting):
    • वर्षा जल संचयन: घरों की छतों पर और अन्य संरचनाओं में वर्षा जल को इकट्ठा करना और उसे भूजल पुनर्भरण के लिए या सीधे उपयोग के लिए संग्रहित करना। यह भूजल स्तर को बढ़ाने और जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने का एक प्रभावी तरीका है।
    • तालाबों और कुओं का निर्माण/पुनरुद्धार: वर्षा जल को संग्रहित करने और भूजल को रिचार्ज करने के लिए पारंपरिक जल स्रोतों का निर्माण और रखरखाव आवश्यक है।
  • कुशल सिंचाई तकनीकें:
    • ड्रिप और छिड़काव सिंचाई (Drip and Sprinkler Irrigation): ये आधुनिक सिंचाई तकनीकें पानी का बहुत कुशल उपयोग करती हैं, जिससे कम पानी में भी फसलें उगाई जा सकती हैं। ये सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से फायदेमंद हैं। भारत सरकार इन तकनीकों को बढ़ावा दे रही है और किसानों को आर्थिक मदद भी प्रदान कर रही है।
    • सूखा-प्रतिरोधी फसलों का उत्पादन: ऐसे क्षेत्रों में कम पानी में उगने वाली फसलों जैसे दलहन, मोटे अनाज, फल और सब्जियों को उगाना प्रोत्साहित करना चाहिए।
  • सामुदायिक भागीदारी और जन जागरूकता: लोगों को जल संरक्षण के महत्व और विभिन्न जल-बचत तकनीकों के बारे में शिक्षित करना। स्थानीय पंचायतों और स्वयंसेवी संस्थाओं को इसमें सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।
  • भूजल का विनियमित उपयोग: भूजल के अत्यधिक दोहन को रोकने के लिए कड़े नियम बनाना और उसके पुनर्भरण के लिए वैज्ञानिक तरीकों को अपनाना।

VII. अध्याय पर आधारित 20 नये अभ्यास प्रश्न

1. प्राकृतिक आपदाएँ क्या होती हैं? बाढ़ और सूखाड़ को प्राकृतिक आपदा क्यों कहा जाता है?

प्राकृतिक आपदाएँ वे घटनाएँ होती हैं जो प्राकृतिक प्रक्रियाओं के कारण घटित होती हैं और मानव जीवन, संपत्ति व पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँचाती हैं। बाढ़ और सूखाड़ को प्राकृतिक आपदा कहा जाता है क्योंकि ये दोनों ही वर्षा की मात्रा में अत्यधिक परिवर्तन (बाढ़ के लिए अत्यधिक वर्षा और सूखाड़ के लिए वर्षा की कमी) जैसी प्राकृतिक घटनाओं के सीधे परिणाम हैं। इनका सीधा नियंत्रण मनुष्य के हाथ में नहीं होता, यद्यपि मानवीय गतिविधियाँ इनकी गंभीरता को बढ़ा सकती हैं।

2. कोसी नदी को 'बिहार का शोक' क्यों कहते हैं?

कोसी नदी को 'बिहार का शोक' इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह हर साल बिहार में विनाशकारी बाढ़ लाती है। यह नदी अपने बार-बार मार्ग बदलने और अप्रत्याशित बाढ़ लाने के लिए कुख्यात है, जिससे उत्तरी बिहार के बड़े क्षेत्र में भारी जान-माल का नुकसान, फसलों की बर्बादी और विस्थापन होता है।

3. बांग्लादेश में बाढ़ का क्या प्रभाव पड़ता है? यह दुनिया के सबसे घने बसे देशों में से एक कैसे है?

बांग्लादेश में प्रतिवर्ष बाढ़ आती है और करोड़ों लोग इससे प्रभावित होते हैं। महामारी फैलती है, मकान गिरते हैं और फसलों की बर्बादी होती है। हालाँकि, बाढ़ का पानी अपने साथ उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी और खनिज ह्यूमस लाता है, जो इस देश को दुनिया के सर्वाधिक उपजाऊ मैदानों में से एक बनाता है। इसी उपजाऊपन के कारण यह राज्य (बांग्लादेश) इतना धनिक और दुनिया के सर्वाधिक घने बसे देशों में से एक है।

4. बाँध और तटबंधों का निर्माण बाढ़ नियंत्रण में किस प्रकार सहायक है? उनकी क्या सीमाएँ हैं?

बाँध और तटबंध बाढ़ नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं क्योंकि वे नदियों के पानी को नियंत्रित करके उसे फैलने से रोकते हैं। बाँध पानी को कृत्रिम जलाशयों में रोकते हैं, जिससे बाढ़ की स्थिति में पानी की मात्रा को नियंत्रित किया जा सके। तटबंध नदियों के किनारों पर दीवार की तरह काम करते हैं, जिससे पानी आबादी वाले क्षेत्रों में प्रवेश न कर सके।

सीमाएँ: इनकी मुख्य सीमा यह है कि ये हमेशा टिकाऊ नहीं होते। ये भारी दबाव या कमजोर रखरखाव के कारण टूट सकते हैं, जिससे अचानक और भी भयावह बाढ़ आ सकती है। कुसहा में तटबंध का टूटना इसका एक उदाहरण है।

5. बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में मकानों के निर्माण के लिए कौन-सी सावधानियाँ बताई गई हैं?

बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में मकानों के निर्माण के लिए निम्नलिखित सावधानियाँ बताई गई हैं:

  • मकान नदी के किनारे या नदी की सकरी दालों पर न बनाए जाएँ, बल्कि नदी से कम से कम 250 मीटर की दूरी पर हों।
  • मकानों की नींव और दीवारें सीमेंट और कंक्रीट की बनी हों।
  • मकान स्तंभों (pillars) पर आधारित हों और स्तंभों की गहराई काफी हो, ताकि पानी के बहाव से वे स्थिर रह सकें।
  • कम लागत वाली और बाढ़-प्रतिरोधी सामग्री का उपयोग किया जाए ताकि बाढ़ से मकानों को कम नुकसान हो।

6. बाढ़ पूर्व सूचना प्रबंधन का क्या महत्व है? इसमें कौन-कौन से उपाय शामिल हैं?

बाढ़ पूर्व सूचना प्रबंधन का अत्यधिक महत्व है क्योंकि यह जान-माल के नुकसान को कम करने में सहायक होता है। समय पर सूचना मिलने से लोग सुरक्षित स्थानों पर जा सकते हैं, अपनी संपत्ति को बचा सकते हैं और आवश्यक तैयारियाँ कर सकते हैं।

शामिल उपाय:

  • दूर संवेदन (remote sensing) जैसी तकनीकों का उपयोग करके निश्चित रूप से सूचनाएँ एकत्रित करना।
  • सूचना तंत्रों (जैसे टेलीविजन, रेडियो, मोबाइल संदेश) के माध्यम से संभावित क्षेत्रों में समय पर सूचना प्रसारित करना।
  • विद्यालयों को बंद करने, स्थानीय अस्पतालों में डॉक्टरों और दवाइयों की व्यवस्था करने, तथा खाद्य और पेयजल की आकस्मिक राशि उपलब्ध कराने की व्यवस्था करना।

7. आपदा के समय सामूहिक जिम्मेदारी की भावना विकसित करना क्यों आवश्यक है?

आपदा के समय सामूहिक जिम्मेदारी की भावना विकसित करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि इससे लोग एक-दूसरे का सहयोग करते हुए चुनौतियों का बेहतर तरीके से सामना कर सकते हैं। जब लोग व्यक्तिगत लाभ से ऊपर उठकर सामुदायिक भलाई के लिए सोचते हैं, तो राहत और बचाव कार्य अधिक प्रभावी होते हैं। यह भावना लोगों को सुरक्षित स्थानों पर इकट्ठा होने, भोजन और कपड़ों की व्यवस्था करने, और महामारियों जैसी स्थितियों में एक-दूसरे का ख्याल रखने में मदद करती है। यह आपदा से उबरने और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को भी गति देती है।

8. सूखाड़ की स्थिति से निपटने के लिए भारत सरकार की 'नदी जोड़ो परियोजना' का क्या उद्देश्य है? इस पर पर्यावरण विशेषज्ञों की क्या राय है?

भारत सरकार की 'नदी जोड़ो परियोजना' का उद्देश्य बाढ़ग्रसित क्षेत्रों की नदियों के अतिरिक्त जल को उन क्षेत्रों तक पहुँचाना है जो सामान्यतः सूखाग्रसित होते हैं। इसका लक्ष्य जल की उपलब्धता को बढ़ाकर कृषि, पेयजल और औद्योगिक ज़रूरतों को पूरा करना है।

पर्यावरण विशेषज्ञों की राय: पर्यावरण विशेषज्ञों ने इस परियोजना का विरोध किया है। उनका मानना है कि इस परियोजना से पारिस्थितिक तंत्र को भारी नुकसान पहुँच सकता है, जैसे जैव विविधता का नुकसान, वनों की कटाई, और बड़े पैमाने पर विस्थापन। वे यह भी मानते हैं कि यह परियोजना बहुत महंगी है और इसके दीर्घकालिक पर्यावरणीय प्रभाव अप्रत्याशित हो सकते हैं।

9. भारत में सूखे के कुछ प्रमुख ऐतिहासिक वर्षों का उल्लेख करें।

भारत में सूखे के कुछ प्रमुख ऐतिहासिक वर्ष इस प्रकार हैं:

  • 19वीं शताब्दी में: 1877 और 1899
  • 20वीं शताब्दी में: 1918, 1966, और 1987

ये वर्ष भारत में भीषण सूखे के साक्षी रहे हैं, जिन्होंने बड़े पैमाने पर अकाल और आर्थिक संकट पैदा किया था।

10. दीर्घकालीन और लघुकालीन सूखाड़ प्रबंधन योजनाओं में क्या अंतर है?

दीर्घकालीन योजनाएँ: ये योजनाएँ स्थायी समाधान पर केंद्रित होती हैं और बुनियादी ढाँचे के विकास से संबंधित होती हैं। इनमें नहरों, तालाबों, कुओं और पाइन-आहार जैसी जल संरचनाओं का विकास शामिल है, जो लंबे समय तक जल उपलब्ध करा सकें। इनका उद्देश्य भविष्य की ज़रूरतों को पूरा करना और सूखे के प्रभाव को स्थायी रूप से कम करना है।

लघुकालीन योजनाएँ: ये योजनाएँ तात्कालिक राहत और आपातकालीन उपायों पर केंद्रित होती हैं। इनमें पेयजल की आपूर्ति, पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था, खाद्यान्न वितरण और तात्कालिक रोज़गार सृजन जैसे उपाय शामिल हो सकते हैं। इनका उद्देश्य सूखे से प्रभावित लोगों को तुरंत सहायता प्रदान करना और आपातकालीन स्थिति से निपटना है।

11. जल संरक्षण के क्या लाभ हैं?

जल संरक्षण के कई महत्वपूर्ण लाभ हैं:

  • जल की उपलब्धता में वृद्धि: वर्षा जल को संग्रहित करने से जल संसाधनों में वृद्धि होती है, खासकर सूखे के समय।
  • भूजल स्तर में सुधार: वर्षा जल संचयन से भूमिगत जल का पुनर्भरण होता है, जिससे भूजल स्तर ऊपर उठता है और कुओं व नलकूपों में पानी बना रहता है।
  • सूखे से बचाव: पर्याप्त जल भंडारण और कुशल उपयोग से सूखे की स्थिति से निपटने में मदद मिलती है, जिससे कृषि और पेयजल की समस्या कम होती है।
  • पारिस्थितिक संतुलन: जल संरक्षण से पर्यावरण में नमी बनी रहती है और पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में मदद मिलती है।
  • किसानों को लाभ: कुशल सिंचाई तकनीकों और जल की उपलब्धता से किसान कम वर्षा में भी फसलें उगा सकते हैं, जिससे उनकी आय बढ़ती है।

12. भूजल स्तर के गिरते जाने का क्या कारण है और इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है?

कारण: भूजल स्तर के गिरते जाने का मुख्य कारण बोरिंग और ट्यूबवेल के माध्यम से भूमिगत जल का अत्यधिक और अनियंत्रित दोहन है। कृषि, औद्योगिक और घरेलू ज़रूरतों के लिए लगातार भूजल निकालने से इसका पुनर्भरण (रीचार्ज) प्राकृतिक रूप से नहीं हो पाता, जिससे स्तर तेजी से नीचे चला जाता है।

प्रभाव: भूजल स्तर में गिरावट से पीने के पानी की समस्या गंभीर हो जाती है। कुएँ और हैंडपंप सूख जाते हैं, जिससे लोगों को पानी के लिए दूर-दूर तक जाना पड़ता है। कृषि उत्पादन प्रभावित होता है क्योंकि सिंचाई के लिए पानी नहीं मिल पाता, जिससे फसलों की बर्बादी होती है और खाद्यान्न संकट उत्पन्न होता है। यह पारिस्थितिक संतुलन को भी बिगाड़ता है, जिससे सूखे की स्थिति और गंभीर हो जाती है।

13. वर्षा जल संचयन क्या है? यह सूखे से बचाव में कैसे मदद करता है?

वर्षा जल संचयन (Rainwater Harvesting) वर्षा के जल को इकट्ठा करने और उसे संग्रहित करने की एक विधि है, जिसका उपयोग बाद में किया जा सके। इसमें घरों की छतों से या अन्य सतहों से वर्षा जल को पाइपों के माध्यम से टैंकों या भूमिगत जलाशयों में जमा किया जाता है, या उसे सीधे भूजल पुनर्भरण के लिए भूगर्भ में भेजा जाता है।

सूखे से बचाव में मदद: यह सूखे से बचाव में अत्यंत सहायक है क्योंकि:

  • यह भूजल स्तर को बढ़ाता है, जिससे कुएँ और नलकूपों में पानी बना रहता है।
  • यह पेयजल की समस्या को कम करता है, खासकर गर्मियों में या कम वर्षा वाले समय में।
  • यह सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराता है, जिससे सूखे के दिनों में भी फसलों को बचाया जा सकता है।
  • यह पानी की बर्बादी को रोकता है और एक टिकाऊ जल स्रोत प्रदान करता है।

14. ड्रिप और छिड़काव सिंचाई तकनीकें क्या हैं और ये सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए कैसे फायदेमंद हैं?

ड्रिप सिंचाई (Drip Irrigation): इस तकनीक में पानी को सीधे पौधों की जड़ों तक बूंद-बूंद करके पहुँचाया जाता है, जिससे पानी की बर्बादी न्यूनतम होती है।

छिड़काव सिंचाई (Sprinkler Irrigation): इसमें पानी को छोटे-छोटे फुहारों के रूप में हवा में छिड़का जाता है, जो वर्षा के समान पौधों पर गिरता है।

सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए फायदे: ये दोनों तकनीकें सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए अत्यधिक फायदेमंद हैं क्योंकि:

  • जल दक्षता: ये पारंपरिक सिंचाई विधियों की तुलना में 50-70% तक पानी बचाती हैं।
  • फसल उत्पादन: कम पानी की उपलब्धता में भी फसलों को पर्याप्त नमी मिलती है, जिससे उपज प्रभावित नहीं होती। 75 सेमी से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी खेती संभव हो पाती है।
  • उपयुक्त फसलें: इन तकनीकों से फल-फूल, सब्जियाँ और दलहन जैसी कम पानी चाहने वाली फसलें सफलतापूर्वक उगाई जा सकती हैं।
  • सरकार का समर्थन: भारत में कई राज्यों में इन तकनीकों को बढ़ावा देने के लिए ग्रामीण विकास योजनाओं के तहत किसानों को विशेष आर्थिक मदद दी जा रही है।

15. कृषि विशेषज्ञ 75 सेमी से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में किन फसलों को लगाने की सलाह देते हैं?

कृषि विशेषज्ञ 75 सेमी से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में ऐसी फसलों को लगाने की सलाह देते हैं, जिन्हें कम पानी की आवश्यकता होती है। इन फसलों में मुख्य रूप से फल-फूल, सब्जियाँ और दलहन (जैसे दालें) शामिल हैं। ये फसलें कम नमी में भी अच्छी उपज दे सकती हैं, और ड्रिप व छिड़काव सिंचाई जैसी कुशल तकनीकों के साथ मिलकर सूखाग्रस्त क्षेत्रों में कृषि को संभव बनाती हैं।

16. भारत में किन राज्यों में ड्रिप और छिड़काव सिंचाई योजनाओं को पर्याप्त महत्व दिया गया है?

भारत में कर्नाटक, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में ड्रिप और छिड़काव सिंचाई योजनाओं को पर्याप्त महत्व दिया गया है। इन राज्यों में इन तकनीकों को ग्रामीण विकास योजनाओं का एक अभिन्न अंग बनाया गया है, और किसानों को इन्हें अपनाने के लिए विशेष आर्थिक सहायता भी प्रदान की जाती है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि ये राज्य अक्सर सूखे या कम वर्षा की स्थिति का सामना करते हैं।

17. बाढ़ के कारण आम जन-जीवन कैसे अस्त-व्यस्त हो जाता है?

बाढ़ के कारण आम जन-जीवन पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो जाता है।

  • आवास का नुकसान: लोगों के घर जलमग्न हो जाते हैं या पूरी तरह से ढह जाते हैं, जिससे वे बेघर हो जाते हैं और उन्हें राहत शिविरों में रहना पड़ता है।
  • खेती और आजीविका का नुकसान: खड़ी फसलें बर्बाद हो जाती हैं, जिससे किसानों को भारी नुकसान होता है और खाद्य संकट उत्पन्न होता है। स्थानीय व्यवसाय और रोज़गार ठप पड़ जाते हैं।
  • स्वास्थ्य समस्याएँ: बाढ़ के बाद दूषित पानी और जल-जमाव से महामारियाँ जैसे हैजा, मलेरिया आदि फैलती हैं, जिससे लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ता है।
  • बुनियादी सुविधाओं का अभाव: सड़कें, पुल, बिजली और संचार लाइनें क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, जिससे आवागमन और संपर्क बाधित हो जाता है। पेयजल और खाद्य आपूर्ति भी प्रभावित होती है।
  • मनोवैज्ञानिक प्रभाव: लोग अपनी संपत्ति, परिवारजनों और आजीविका के नुकसान के कारण गहरे सदमे और तनाव में आ जाते हैं।

18. सूखे की स्थिति में लोगों को किन बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है?

सूखे की स्थिति में लोगों को निम्नलिखित बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है:

  • खाद्यान्न की कमी: फसलों के न उगने या कम उत्पादन के कारण खाद्यान्न की भारी कमी हो जाती है।
  • पेयजल की किल्लत: पानी के स्रोतों के सूख जाने से पीने के पानी की गंभीर समस्या उत्पन्न होती है।
  • चारे की कमी: मवेशियों के लिए चारे की कमी हो जाती है, जिससे उन्हें बेचना पड़ता है या वे भूख से मर जाते हैं।
  • भुखमरी और कुपोषण: खाद्यान्न की कमी के कारण भुखमरी और कुपोषण की समस्या बढ़ जाती है, जिससे मरने वालों की संख्या में भी वृद्धि हो सकती है।
  • आर्थिक संकट: किसानों की फसलें बर्बाद होने से उनकी आय खत्म हो जाती है, जिससे गरीबी और ऋणग्रस्तता बढ़ती है।
  • प्रवासन: लोग पानी और भोजन की तलाश में अपने गाँव छोड़कर शहरों या अन्य सुरक्षित स्थानों पर जाने को मजबूर हो जाते हैं।
  • सामाजिक अशांति: खाद्यान्न और पानी की कमी के कारण कालाबाजारी और लूटपाट जैसी घटनाएँ बढ़ सकती हैं।

19. गाँव पंचायतों की भूमिका बाढ़ के बाद जल निकासी में कैसे महत्वपूर्ण है?

बाढ़ के बाद जल निकासी की तात्कालिक व्यवस्था में गाँव पंचायतों की भूमिका अत्यंत अहम है। गाँव पंचायतें स्थानीय स्तर पर सबसे करीब होती हैं और समुदाय के साथ सीधा संपर्क रखती हैं। वे स्थानीय संसाधनों और श्रम को संगठित कर सकती हैं। पंचायतें स्वयंसेवकों को जुटाकर जल निकासी के लिए नालियों को साफ करने, पम्पिंग सेट लगाने या अन्य आवश्यक उपाय करने में मदद कर सकती हैं। इसके अतिरिक्त, वे प्रशासन और प्रभावित लोगों के बीच एक सेतु का काम करती हैं, जिससे राहत सामग्री के वितरण और स्वच्छता बनाए रखने में भी मदद मिलती है।

20. बाढ़ और सूखाड़ दोनों में मानवीय कारणों का क्या योगदान है?

यद्यपि बाढ़ और सूखाड़ दोनों प्राकृतिक आपदाएँ हैं, हाल के वर्षों में मानवीय कारणों का इनकी गंभीरता और आवृत्ति में योगदान बढ़ा है।

बाढ़ में मानवीय योगदान:

  • वनों की कटाई: पहाड़ों और नदी जलग्रहण क्षेत्रों में वनों की अंधाधुंध कटाई से मिट्टी का कटाव बढ़ता है और नदियाँ अधिक गाद लेकर आती हैं, जिससे उनका तल ऊपर उठ जाता है और बाढ़ का खतरा बढ़ता है।
  • नदियों में अतिक्रमण और निर्माण: नदी किनारों और बाढ़ के मैदानों में अवैध निर्माण और अतिक्रमण पानी के प्राकृतिक बहाव को बाधित करता है, जिससे पानी अधिक क्षेत्रों में फैलता है।
  • अनुचित भूमि उपयोग: शहरीकरण और कंक्रीट के जंगल बनने से बारिश का पानी जमीन में रिसने की बजाय तेजी से बहता है, जिससे नदियों में अचानक जलस्तर बढ़ जाता है।

सूखाड़ में मानवीय योगदान:

  • भूजल का अत्यधिक दोहन: कृषि, उद्योग और शहरी ज़रूरतों के लिए अत्यधिक मात्रा में भूजल निकालने से भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है, जिससे सूखे की स्थिति और गंभीर हो रही है।
  • जल स्रोतों की उपेक्षा: पारंपरिक तालाबों, कुओं और अन्य जल संचयन प्रणालियों की अनदेखी और अतिक्रमण से जल भंडारण क्षमता कम हुई है।
  • जलवायु परिवर्तन: जीवाश्म ईंधन के उपयोग और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से होने वाला जलवायु परिवर्तन वर्षा पैटर्न को बदल रहा है, जिससे कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा और अन्य में लंबे समय तक सूखा पड़ रहा है।
  • कुशल सिंचाई तकनीकों का अभाव: पुराने और अक्षम सिंचाई तरीकों का उपयोग पानी की बर्बादी करता है, जिससे सूखे के प्रभाव बढ़ जाते हैं।

VIII. अध्याय का संक्षिप्त सारांश (Revision Summary)

यह अध्याय हमें बाढ़ और सूखाड़ जैसी दो प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं और उनके प्रबंधन के बारे में बताता है।

  • बाढ़ अत्यधिक वर्षा से नदियों के जलस्तर बढ़ने और पानी के फैलने से आती है, जिससे जान-माल, फसलों और बुनियादी ढांचे को भारी नुकसान होता है। कोसी नदी 'बिहार का शोक' कहलाती है। बाढ़ प्रबंधन में बाँध, तटबंध, सुरक्षित निर्माण, पूर्व चेतावनी और सामुदायिक सहयोग महत्वपूर्ण हैं।
  • सूखाड़ वर्षा की भारी कमी से उत्पन्न होता है, जिससे पीने के पानी, कृषि और चारे की किल्लत होती है, जिससे भुखमरी तक हो सकती है। भूजल का अत्यधिक दोहन इसका एक प्रमुख कारण है। सूखाड़ प्रबंधन में दीर्घकालीन (नहरें, तालाब) और लघुकालीन योजनाएँ शामिल हैं। वर्षा जल संचयन और ड्रिप/छिड़काव सिंचाई जैसी कुशल तकनीकें सूखे से बचाव के प्रभावी तरीके हैं।

दोनों ही आपदाओं में मानवीय कारण (जैसे अनुचित निर्माण, भूजल का अत्यधिक दोहन) स्थिति को और गंभीर बनाते हैं। अतः, इन आपदाओं से निपटने के लिए वैज्ञानिक प्रबंधन, सामुदायिक भागीदारी और पर्यावरण के अनुकूल तरीकों को अपनाना अत्यंत आवश्यक है, ताकि हम एक सुरक्षित और समृद्ध भविष्य का निर्माण कर सकें।

मुझे उम्मीद है कि ये नोट्स आपको अध्याय को गहराई से समझने और आपकी बोर्ड परीक्षा की तैयारी में पूरी मदद करेंगे। खूब मन लगाकर पढ़ें और सफल हों!

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