जनतंत्र का जन्म: सम्पूर्ण आत्म-अध्ययन नोट्स
नमस्ते छात्र! आपने 'जनतंत्र का जन्म' अध्याय के लिए बहुत ही विस्तृत और उपयोगी आत्म-अध्ययन नोट्स (Self-Learning Notes) बनाने का कार्य दिया है। यह कविता राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा रचित है और कक्षा 10 हिंदी 'गो धूलि' का एक प्रेरणादायक अध्याय है। यह नोट्स आपको अध्याय को गहराई से समझने और बोर्ड परीक्षा की तैयारी करने में पूरी सहायता करेंगे, जहाँ हम 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' जैसे उद्घोष के पीछे के भाव को समझेंगे और जानेंगे कि 'देवता मिलेंगे खेतों में' क्यों कहा गया है। ये नोट्स सरल, रोचक और छात्र-मित्रवत भाषा में तैयार किए गए हैं।
कवि और कविता का परिचय
कवि: रामधारी सिंह 'दिनकर' (यह जानकारी दिए गए स्रोतों में प्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध नहीं है और इसे बाहरी ज्ञान के रूप में माना जाना चाहिए)।
अध्याय का परिचय: 'जनतंत्र का जन्म' एक प्रेरणादायक और विचारोत्तेजक कविता है, जो स्वतंत्रता के बाद भारत में लोकतंत्र की स्थापना और आम जनता की शक्ति का उद्घोष करती है। यह कविता दिखाती है कि कैसे सदियों से शोषित और उपेक्षित जनता जागृत होकर अपनी नियति का निर्माण स्वयं करने के लिए तैयार है। कवि ने जनता को वास्तविक 'देवता' के रूप में चित्रित किया है और सत्ताधारियों को चेताया है कि अब सिंहासन जनता के लिए खाली करने का समय आ गया है।
1. कविता की विस्तृत व्याख्या
पहला पद्य
"सदियों की ठंढी-सूखी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।"
व्याख्या: कवि कहता है कि भारत में सदियों से जो जनता शोषण और गुलामी की राख के नीचे दबी हुई थी, वह अब जागृत हो गई है। 'मिट्टी' यहाँ आम, साधारण जनता का प्रतीक है, जो अब गर्व से अपने अधिकार का ताज पहनकर इठला रही है। कवि एक युग परिवर्तन की घोषणा करते हुए कहता है कि समय के रथ की गड़गड़ाहट सुनाई दे रही है। इसलिए, शासकों को चेतावनी दी जा रही है कि वे अपना सिंहासन खाली कर दें, क्योंकि अब जनता आ रही है।
दूसरा पद्य
"जनता? हाँ, लंबी-बड़ी जोध की वह कसम, जनता, सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है!
'सो तोक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?' 'यह प्रश्न गूढ़; जनता इस पर क्या कहती है?'"
व्याख्या: कवि यहाँ व्यंग्य करते हुए उन शासकों का चित्रण करता है जो जनता को तुच्छ समझते थे। वे सोचते थे कि जनता तो केवल एक दिखावा है, जो कष्ट सहती रहती है। शासक आपस में सोचते थे कि जनता की राय का क्या महत्व है? और फिर वे ही इस प्रश्न को 'गूढ़' (रहस्यपूर्ण) कहकर टाल देते थे।
तीसरा पद्य
"मानो, जनता हो फूल जिसे एहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दुर्मुहीं जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।"
व्याख्या: शासक जनता को एक 'फूल' जैसा समझते थे, जिसमें कोई भावना नहीं होती, जिसे जब चाहा अपने स्वार्थ के लिए तोड़ लिया। या फिर जनता को एक 'दुर्मुहीं' (जिद्दी बच्चे) जैसा मानते थे, जिसे बहलाने के लिए उनके पास केवल 'चार खिलौनों' (थोड़े से प्रलोभन) के 'जन्तर-मन्तर' ही सीमित थे।
चौथा पद्य
"लेकिन, होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।"
व्याख्या: कवि चेतावनी देता है कि जब जनता 'कोपाकुल' (क्रोध से बेचैन) होकर अपनी 'भृकुटि' (भौंहें) चढ़ाती है, तो 'भूडोल' (भूकंप) आ जाते हैं और 'बवंडर' (तूफान) उठने लगते हैं। यह जनता के प्रचंड क्रोध का प्रतीक है। कवि फिर से दोहराता है कि सिंहासन खाली कर दो, क्योंकि अब जनता आ रही है।
पाँचवाँ पद्य
"हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है;
जनता की रोक समय में ताव कहाँ? वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।"
व्याख्या: कवि कहता है कि जनता की सामूहिक 'हुंकारों' (गर्जना) से बड़े-बड़े राजाओं के महलों की नींव तक उखड़ जाती है। उनकी सामूहिक 'साँसों' (इच्छाशक्ति) के बल से राजाओं के 'ताज' हवा में उड़ जाते हैं। समय में भी इतनी शक्ति नहीं कि वह जनता को रोक सके; जनता जिधर चाहती है, समय भी उधर ही मुड़ जाता है।
छठा पद्य
"बीता; गवास अम्बर के दहके जाते हैं; यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते आते हैं।"
व्याख्या: कवि कहता है कि पुराना, अंधकारमय युग अब बीत गया है। अब आकाश में प्रकाश की चमक दिखाई दे रही है, जो एक नए सवेरे का संकेत है। यह चमक 'जनता के अजय' (अजेय) 'स्वप्न' हैं, जो अंधकार ('तिमिर') के सीने को चीरते हुए, उमड़ते हुए बाहर आ रहे हैं।
सातवाँ पद्य
"सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुँचा, तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो;
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है, तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरे।"
व्याख्या: कवि गर्व से घोषणा करता है कि विश्व का 'सबसे विराट जनतंत्र' भारत में आ पहुँचा है। वह आह्वान करता है कि अब 'तैंतीस कोटि' जनता के कल्याण के लिए सिंहासन तैयार किया जाए। अब 'अभिषेक' किसी राजा का नहीं, बल्कि 'प्रजा' का है, और यह 33 करोड़ जनता ही अपने सिर पर शासन का मुकुट धारण करेगी।
आठवाँ पद्य
"आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख, मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे, देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।"
व्याख्या: कवि 'मूरख' व्यक्ति से कहता है कि तुम आरती की थाली लिए किसे मंदिरों या राजमहलों में ढूंढ रहे हो? सच्चे 'देवता' तो वे मेहनतकश लोग हैं जो 'सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे' हैं (मज़दूर) और जो खेतों और खलिहानों में काम कर रहे हैं (किसान)।
नौवाँ पद्य
"फावड़े और हल, राजदंड बनने को हैं, धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।"
व्याख्या: कवि कहता है कि अब 'फावड़े और हल' (श्रम के प्रतीक) ही 'राजदंड' (सत्ता के प्रतीक) बनने वाले हैं। 'धूसरता' (आम जनता का प्रतीक) अब 'सोने से श्रृंगार सजाती है', जिसका अर्थ है कि सामान्य लोग अब गरिमा और सम्मान प्राप्त करेंगे। अंत में, कवि फिर से सिंहासन खाली करने का आह्वान करता है।
2. प्रमुख परिभाषाएँ, संकल्पनाएँ और शब्दों की स्पष्ट व्याख्या
- जनतंत्र: जनता का शासन
- सिंहासन खाली करो: सत्ता छोड़ने का आह्वान
- घर्घर-नाद: रथ की गड़गड़ाहट, परिवर्तन की ध्वनि
- जोध की कसम: दिखावा, अतिशयोक्तिपूर्ण शपथ
- गूढ़: रहस्यपूर्ण, कठिन
- दुर्मुहीं: जिद्दी बच्चा
- भूडोल: भूकंप
- बवंडर: तूफान
- कोपाकुल: क्रोध से बेचैन
- भृकुटि चढ़ाती है: क्रोध प्रकट करना
- हुंकार: गर्जना
- अजय: जिसे जीता न जा सके
- तिमिर: अंधकार
- गवास: बड़ी खिड़की
- तैंतीस कोटि: 33 करोड़
- अभिषेक: राज्याभिषेक
- राजप्रासाद: राजमहल
- तहखानों: भूमिगत कमरे
- फावड़े और हल, राजदंड: श्रम की सत्ता का प्रतीक
- धूसरता: मैलापन, आम जनता का प्रतीक
- श्रृंगार: सजावट
4. अध्याय के अभ्यास प्रश्नों के विस्तृत उत्तर
बोध और अभ्यास
1. कविता की दृष्टि में समय के रथ का घर्घर-नाद क्या है? स्पष्ट करें।
उत्तर: कविता की दृष्टि में समय के रथ का घर्घर-नाद ऐतिहासिक परिवर्तन और युगान्तर की ध्वनि है। यह इस बात का संकेत है कि पुराना, दमनकारी सत्तावादी तंत्र अब समाप्त होने वाला है और जनता के शासन, यानी लोकतंत्र का आगमन हो रहा है। यह एक अनिवार्य बदलाव है जिसे रोका नहीं जा सकता।
2. कविता के आरंभ में कवि भारतीय जनता का वर्णन किस रूप में करता है और क्यों?
उत्तर: कविता के आरंभ में कवि भारतीय जनता का वर्णन एक ऐसी 'लंबी-बड़ी जोध की कसम' के रूप में करता है जिसने 'बड़ी वेदना' सही है, और उसे एक 'फूल' या 'दुर्मुहीं' बच्चे की तरह माना गया है। कवि ऐसा इसलिए वर्णन करता है क्योंकि सदियों से शासकों ने जनता को निष्क्रिय, भावनाहीन और आसानी से बहकाया जा सकने वाला समझा था।
3. कवि के अनुसार किन लोगों की दृष्टि में जनता फूल या दुर्मुंही बच्चे की तरह है और क्यों? कवि यह कहकर उनका प्रतिवाद कैसे करता है?
उत्तर: निरंकुश शासकों और सत्ताधीशों की दृष्टि में जनता फूल या दुर्मुंही बच्चे की तरह है। कवि यह कहकर उनका प्रतिवाद करता है कि जब जनता 'कोपाकुल' होती है तो 'भूडोल' और 'बवंडर' उठते हैं। जनता की 'हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती' है, जो दिखाता है कि जनता निष्क्रिय नहीं, बल्कि शक्तिशाली है।
4. कवि जनता के स्वप्न का किस तरह चित्र खींचता है?
उत्तर: कवि जनता के स्वप्न को 'अजय' (अजेय) बताता है, जो 'तिमिर का वक्ष चीरते' (अंधेरे के सीने को चीरते हुए) 'उमड़ते आते हैं'। यह चित्र दर्शाता है कि जनता के सपने अब किसी भी बाधा से रुकने वाले नहीं हैं और वे एक नए, लोकतांत्रिक भारत के निर्माण की सामूहिक, अटूट आकांक्षाएँ हैं।
5. विराट जनतंत्र का स्वरूप कवि क्या कहता है? कवि किनके सिर पर मुकुट धरने की बात करता है और क्यों?
उत्तर: कवि 'विराट जनतंत्र' को 'जगत का आ पहुँचा' बताता है। वह 'तैंतीस कोटि जनता' के सिर पर मुकुट धरने की बात करता है, क्योंकि अब अभिषेक राजा का नहीं, प्रजा का है। इसका अर्थ है कि अब जनता स्वयं ही शासक है।
6. कवि की दृष्टि में आज के देवता कौन हैं और वे कहाँ मिलेंगे?
उत्तर: कवि की दृष्टि में आज के देवता मंदिरों या राजमहलों में नहीं मिलेंगे। बल्कि, सच्चे देवता वे आम मेहनतकश लोग हैं जो खेतों में हल चलाते हैं, और सड़कों पर गिट्टी तोड़कर देश का निर्माण करते हैं।
7. कविता का मूल भाव क्या है? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: कविता का मूल भाव जनता की अदम्य शक्ति और भारत में लोकतंत्र की स्थापना है। कवि यह बताता है कि सदियों से उपेक्षित जनता अब जागृत हो चुकी है और अपनी शक्ति को पहचान चुकी है। यह कविता लोकतंत्र की विजय और आम आदमी की गरिमा का उद्घोष है।
8. व्याख्या करें: (क) सदियों की ठंढी-सूखी राख... (ख) हुंकारों से महलों की नींव...
(क) 'सदियों की ठंढी-सूखी राख...': इन पंक्तियों में कवि ने जनता की सुप्त शक्ति के जागृत होने और उसके सत्ता में आने के गौरवपूर्ण क्षण का वर्णन किया है। 'राख' जनता की निष्क्रियता का प्रतीक है, जो अब 'सुगबुगा' उठी है। 'मिट्टी' आम जनता का प्रतीक है जो अब 'सोने का ताज' पहनकर सत्ता संभालेगी।
(ख) 'हुंकारों से महलों की नींव...': इन पंक्तियों में कवि ने जनता की असीम और अजेय शक्ति का वर्णन किया है। 'हुंकारों' से बड़े-बड़े महलों (सत्ता) की नींव उखड़ जाती है और 'साँसों के बल' (इच्छाशक्ति) से राजाओं के ताज उड़ जाते हैं, जिससे यह सिद्ध होता है कि जनता की शक्ति के सामने कोई सत्ता टिक नहीं सकती।
भाषा की बात
1. निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची लिखिए:
उत्तर: सदियों: युगों, वर्षों; राख: भस्म, क्षार; सिंहासन: राजगद्दी, तख्त; कसम: शपथ, सौगंध; दर्द: पीड़ा, वेदना; जनमत: लोकमत, जनराय; फूल: पुष्प, सुमन; भूडोल: भूकंप, भूचाल; कोपकुल: क्रोधित, क्रुद्ध; तिमिर: अंधकार, अंधेरा; नाद: ध्वनि, स्वर; राजप्रासाद: राजमहल, महल; मंदिर: देवालय, देवस्थान।
2. निम्नलिखित के लिंग-निर्णय करें:
उत्तर: दर्द: पुल्लिंग; वेदना: स्त्रीलिंग; कसम: स्त्रीलिंग; बवंडर: पुल्लिंग; गवास: पुल्लिंग; जनता: स्त्रीलिंग; अभिषेक: पुल्लिंग; श्रृंगार: पुल्लिंग; प्रजा: स्त्रीलिंग; ताज: पुल्लिंग।
20 नए अभ्यास प्रश्न (विस्तृत समाधान सहित)
1. कविता में कवि किस प्रकार के शासन का विरोध कर रहा है?
उत्तर: कवि निरंकुश राजशाही या तानाशाही शासन का विरोध कर रहा है, जहाँ जनता को उपेक्षित समझा जाता था।
2. 'मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है' - यहाँ 'मिट्टी' और 'सोने का ताज' किसका प्रतीक हैं?
उत्तर: 'मिट्टी' आम मेहनतकश जनता का प्रतीक है और 'सोने का ताज' सत्ता और अधिकार का प्रतीक है।
3. कवि जनता के 'हुंकारों' और 'साँसों' में कौन सी शक्ति देखता है?
उत्तर: 'हुंकारों' में विनाशकारी शक्ति और 'साँसों' में सामूहिक इच्छाशक्ति की शक्ति देखता है, जो सत्ता को पलट सकती है।
4. 'अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है' - इस पंक्ति का लोकतांत्रिक महत्व क्या है?
उत्तर: इसका महत्व यह है कि यह सत्ता के हस्तांतरण को दर्शाता है, जहाँ अब संप्रभुता राजा में नहीं, बल्कि जनता में निहित है।
5. कवि ने 'फावड़े और हल' को 'राजदंड' बनाने की बात क्यों कही है?
उत्तर: क्योंकि वह श्रम की प्रतिष्ठा और मेहनतकश वर्ग के महत्व को स्थापित करना चाहता है, जो देश के असली निर्माता हैं।
6. 'अजय स्वप्न' और 'तिमिर का वक्ष चीरते' का क्या अर्थ है?
उत्तर: 'अजय स्वप्न' का अर्थ है जनता के अटूट सपने और 'तिमिर का वक्ष चीरते' का अर्थ है कि ये सपने अंधकार (गुलामी, शोषण) को भेदते हुए साकार हो रहे हैं।
7. 'जनतंत्र का जन्म' कविता में कवि ने भारतीय जनमानस की किस मनोदशा का वर्णन किया है?
उत्तर: कवि ने भारतीय जनमानस की परिवर्तनशील और जागृत मनोदशा का वर्णन किया है, जो निष्क्रियता से निकलकर अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो गई है।
8. कविता में 'देवता' किसे कहा गया है और इस पहचान का क्या महत्व है?
उत्तर: कविता में 'देवता' आम मेहनतकश जनता (किसान, मजदूर) को कहा गया है। इसका महत्व यह है कि यह श्रम की गरिमा को स्थापित करता है और बताता है कि राष्ट्र के असली निर्माता वही हैं।
9. 'जनतंत्र का जन्म' शीर्षक की सार्थकता पर प्रकाश डालें।
उत्तर: यह शीर्षक अत्यंत सार्थक है क्योंकि कविता भारत में राजशाही के अंत और एक नए युग - लोकतंत्र के उदय की घोषणा करती है। पूरी कविता इसी 'जन्म' की प्रक्रिया का वर्णन करती है।
10. कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने इस कविता के माध्यम से क्या संदेश दिया है?
उत्तर: कवि ने जनता की अदम्य शक्ति, लोकतंत्र की सर्वोच्चता और आम आदमी की गरिमा का संदेश दिया है। उन्होंने बताया है कि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है।
11. कविता के अनुसार, सदियों की ठंढी-सूखी राख में क्या 'सुगबुगा उठी' है?
उत्तर: क्रांति की भावना।
12. कविता में 'जनता' को 'फूल' जैसा समझने वाले कौन थे?
उत्तर: शासक वर्ग।
13. 'जनता की रोक समय में ताव कहाँ?' इस पंक्ति में 'ताव' शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर: शक्ति।
14. कवि के अनुसार, आज के देवता कहाँ नहीं मिलेंगे?
उत्तर: मंदिरों और राजप्रासादों में।
15. 'धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है' - यहाँ 'धूसरता' किसका प्रतीक है?
उत्तर: आम मेहनतकश जनता का।
16. रिक्त स्थान भरें: सदियों की ठंढी-सूखी राख ___ उठी।
उत्तर: सुगबुगा।
17. रिक्त स्थान भरें: सिंहासन खाली करो कि ___ आती है।
उत्तर: जनता।
18. रिक्त स्थान भरें: अभिषेक आज ___ का नहीं, ___ का है।
उत्तर: राजा, प्रजा।
19. रिक्त स्थान भरें: देवता मिलेंगे ___ में, ___ में।
उत्तर: खेतों, खलिहानों।
20. रिक्त स्थान भरें: वह जिधर चाहती, ___ उधर ही मुड़ता है।
उत्तर: काल।
संक्षिप्त सारांश (बोर्ड परीक्षा हेतु)
'जनतंत्र का जन्म' रामधारी सिंह 'दिनकर' द्वारा लिखित एक ओजस्वी कविता है जो भारत में लोकतंत्र की स्थापना और आम जनता की शक्ति को दर्शाती है। यह कविता बताती है कि सदियों से उपेक्षित जनता अब जागृत हो गई है। कवि एक नए युग के आगमन की घोषणा करते हुए 'सिंहासन खाली करने' का आह्वान करता है। वह बताता है कि जनता की हुंकारों से बड़े-बड़े महलों की नींव भी उखड़ सकती है। कविता स्पष्ट करती है कि अब तैंतीस करोड़ भारतीय जनता ही वास्तविक शासक है और सच्चे 'देवता' खेतों और सड़कों पर काम करने वाले आम मेहनतकश लोग हैं। यह कविता श्रम की प्रतिष्ठा, आम आदमी की गरिमा और लोकतांत्रिक मूल्यों की सर्वोच्चता का उद्घोष करती है।
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