परम्परा का मूल्यांकन (रामविलास शर्मा)
कक्षा 10 हिंदी के अध्याय 7, 'परम्परा का मूल्यांकन', जो प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा लिखित है, के विस्तृत स्वयं-अध्ययन नोट्स में आपका स्वागत है। यह ब्लॉग पोस्ट आपको इस महत्वपूर्ण निबंध को गहराई से समझने में मदद करेगा, जिसमें साहित्य की परम्परा, प्रगतिशील आलोचना, जातीय अस्मिता, और समाजवादी व्यवस्था जैसे गूढ़ विषयों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। यहाँ आपको अध्याय का संपूर्ण सारांश, सभी अभ्यास प्रश्नों के विस्तृत हल, और बोर्ड परीक्षा की तैयारी के लिए 20 अतिरिक्त प्रश्नोत्तर मिलेंगे, जो आपके लिए Parampara ka Mulyankan notes का एक संपूर्ण स्रोत है।
अध्याय परिचय
प्रस्तुत अध्याय "परम्परा का मूल्यांकन" प्रसिद्ध साहित्यकार, आलोचक और विचारक डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा लिखित एक महत्वपूर्ण निबंध है। यह निबंध उनकी एक पुस्तक "परम्परा का मूल्यांकन" से लिया गया है। इस निबंध में लेखक ने साहित्य की परम्परा, उसके मूल्यांकन के महत्व, समाज और साहित्य के अंतर्संबंधों, जातीय अस्मिता, राष्ट्रीय अस्मिता तथा समाजवादी व्यवस्था जैसे गूढ़ विषयों पर गहराई से विचार किया है। यह पाठ छात्रों को साहित्य को एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने, समाज के विकास में उसकी भूमिका को पहचानने और प्रगतिशील आलोचना के महत्व को जानने में सहायक होगा।
1. सभी महत्वपूर्ण विषयों की सरल एवं स्पष्ट हिंदी में व्याख्या
(क) रामविलास शर्मा: एक संक्षिप्त परिचय
डॉ. रामविलास शर्मा हिंदी आलोचना के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं। उनका जन्म 10 अक्टूबर, 1912 को उत्तर प्रदेश के छोटे से गाँव ऊँचगाँव सानी में हुआ था। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. और पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वे 1938 से 1943 तक लखनऊ विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करते रहे। बाद में आगरा के बलवंत राजपूत कॉलेज और केंद्रीय हिंदी संस्थान में भी अध्यापन का कार्य किया। शर्मा जी ने 1949 से भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री के रूप में भी अपनी सेवाएँ दीं। उनका निधन 30 मई, 2000 को दिल्ली में हुआ।
रामविलास शर्मा का हिंदी गद्य में योगदान ऐतिहासिक माना जाता है। उनकी लेखन शैली तर्क और तथ्यों से परिपूर्ण, पारदर्शी और वैज्ञानिक दृष्टि से विषयों का विश्लेषण करने वाली है। उन्होंने वैज्ञानिक भौतिकवादी दृष्टि से भारतीय परम्परा और मार्क्सवादी चिंतन के आधार पर हिंदी आलोचना को एक नई दिशा दी। उनकी प्रमुख कृतियों में 'निराला की साहित्य साधना' (जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला), 'आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना', 'भारतेंदु हरिश्चंद्र', 'प्रेमचंद और उनका युग', 'भाषा और समाज', 'महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण', 'भारत की भाषा समस्या', 'नई कविता और अस्तित्ववाद', 'भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद', 'भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी', 'विराम चिह्न', 'बड़े भाई' आदि शामिल हैं।
(ख) 'परम्परा का मूल्यांकन' निबंध का केंद्रीय विचार
यह निबंध लेखक की 'परम्परा का मूल्यांकन' नामक पुस्तक की एक प्रस्तावना है। इसमें लेखक साहित्य, समाज और परम्परा के पारस्परिक संबंधों की सैद्धांतिक और व्यावहारिक मीमांसा करते हैं। वे परम्परा के ज्ञान, समझ और मूल्यांकन के विवेकपूर्ण ढंग को सामाजिक विकास में क्रांतिकारी भूमिका के लिए स्पष्ट करते हैं। उनका मानना है कि यह निबंध परम्परा और आधुनिकता के द्वंद्वपूर्ण संबंध को समझने में सहायक है।
(ग) परम्परा का महत्व और आवश्यकता
लेखक के अनुसार, जो लोग साहित्य में युग-परिवर्तन करना चाहते हैं और रूढ़ियों के फ़कीर नहीं हैं, उनके लिए क्रांतिकारी साहित्य की परम्परा का ज्ञान सबसे आवश्यक है। परम्परा से जुड़कर ही शोषकविहीन समाजवादी समाज का निर्माण हो सकता है। प्रगतिशील आलोचना का आधार भी साहित्य की परम्परा का ज्ञान है। परम्परा का मूल्यांकन करते समय हमें उस साहित्य के मूल्य निर्धारित करने होते हैं जो शोषक वर्गों के विरुद्ध शोषित जनता के हितों को प्रतिबिंबित करता है।
(घ) साहित्य और परम्परा का संबंध
साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन करते समय, हमें यह देखना चाहिए कि कोई रचना किन वर्गों के हितों को प्रतिबिंबित करती है। लेखक स्पष्ट करते हैं कि साहित्य में विकास प्रक्रिया समाज के विकास से भिन्न होती है। समाज में जहाँ उत्पादन संबंधों में बदलाव होता है, वहीं साहित्य में ऐसा ज़रूरी नहीं है। उदाहरण के लिए, रोमन साम्राज्य के दास प्रथा वाले समाज में वर्जिल जैसा कवि भी पैदा हुआ। आधुनिक यूरोप में दास प्रथा न होते हुए भी वर्जिल जैसा कवि नहीं हुआ। यह दर्शाता है कि कला का विकास समाज की तरह सीधी रेखा में नहीं होता।
(ङ) प्रगतिशील आलोचना
प्रगतिशील आलोचना वह आलोचना है जो सामाजिक विकास को महत्व देती है। यह साहित्य की परम्परा से ही विकसित होती है। प्रगतिशील आलोचना वर्तमान समाज में उपयोगी साहित्य के निर्माण में सहायता करती है और पुराने साहित्य का मूल्यांकन भी करती है। यह नई प्रगतिशील साहित्य के निर्माण में मदद करती है।
(च) भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद
लेखक भौतिकवाद को महत्व देते हैं, जो यह मानता है कि विश्व-ब्रह्मांड की मूल सत्ता पदार्थ है। वे ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांतों का प्रयोग करते हुए परम्परा का विश्लेषण करते हैं। इसका अर्थ है कि किसी समाज के इतिहास और साहित्य को समझने के लिए उसके उत्पादन संबंधों और वर्गीय संघर्ष को समझना ज़रूरी है।
(छ) कला और मानव चेतना की स्वाधीनता
लेखक मानते हैं कि मानव चेतना आर्थिक संबंधों से प्रभावित होती है, लेकिन पूरी तरह से गुलाम नहीं होती; वह अपनी सापेक्ष स्वाधीनता बनाए रखती है। उन्होंने वाल्मीकि और कालिदास जैसे कवियों का उदाहरण दिया जो उस समय के शोषक समाज में रहते हुए भी महान रचनाएँ कर सके। साहित्य का मूल्य उसके राजनीतिक मूल्यों से अधिक स्थायी होता है।
(ज) जातीय अस्मिता और बहुजातीय राष्ट्र
लेखक जातीय अस्मिता (national identity) को किसी भी देश के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं। वे भारत को एक बहुजातीय राष्ट्र के रूप में देखते हैं, जहाँ कई जातियाँ, संस्कृतियाँ और भाषाएँ सह-अस्तित्व में हैं। राष्ट्रीय अस्मिता तब बनती है जब एक समाज की सांस्कृतिक परम्परा और इतिहास के आधार पर लोग एकजुट होते हैं। लेखक विभिन्न भाषाई जातियों को एकजुट करने में भारतीय भाषाओं और संस्कृत के साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते हैं।
(झ) समाजवाद और राष्ट्रीय आवश्यकता
लेखक मानते हैं कि समाजवादी व्यवस्था भारत की राष्ट्रीय आवश्यकता है। समाजवादी समाज में ही देश के सभी लोगों के लिए समानता, शिक्षा और सांस्कृतिक विकास संभव है। यह देश को मजबूत करेगा और विभिन्न जातीय समूहों को एक साथ लाएगा। भारत की प्राचीन संस्कृति समाजवादी व्यवस्था में ही विकसित हो सकती है, जहाँ सभी को समान अवसर मिलेंगे।
2. प्रमुख परिभाषाएँ, संकल्पनाएँ और शब्दों की स्पष्ट व्याख्या
प्रगतिशील आलोचना: वह आलोचना जो सामाजिक विकास को गति देती हो। यह साहित्य को समाज के विकास के संदर्भ में देखती है।
भौतिकवाद: वह विचारधारा जो चेतना या भाव का मूल पदार्थ को मानती हो।
अमूर्त: जो मूर्त न हो, जो दिखाई न पड़े, भावमय।
प्रतिबिम्बित: झलकता हुआ, जिसकी छाया दिखाई पड़े।
अस्मिता: अस्तित्व, पहचान। स्वयं की पहचान या वजूद।
अविच्छिन्न: लगातार, निरंतर, अटूट।
न्यूनाधिक: कमोबेश। थोड़ा-बहुत, लगभग।
आत्मसात्: अपना हिस्सा बनाना, अपने में समाहित कर लेना।
3. पुस्तक में दिए गए उदाहरणों की समझ
यह अध्याय एक निबंध है और इसमें गणितीय उदाहरण नहीं हैं। लेखक ने अपने विचारों को समझाने के लिए ऐतिहासिक और साहित्यिक दृष्टांतों का प्रयोग किया है।
- वर्जिल और रोमन साम्राज्य: यह उदाहरण दर्शाता है कि साहित्य का विकास समाज के विकास के समान नहीं होता। दास प्रथा वाले समाज में भी महान कवि हो सकते हैं।
- वाल्मीकि और कालिदास: ये महान कवि शोषक समाज में पैदा हुए, लेकिन उनकी रचनाएँ कालजयी हैं, जो कला की सापेक्ष स्वाधीनता को प्रमाणित करता है।
- भारतीय बहुजातीयता: लेखक भारत की अद्वितीय बहुजातीय संस्कृति को देश की ताकत के रूप में देखते हैं, जो विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के मेल से बनी है।
4. अध्याय के अभ्यास प्रश्नों के विस्तृत उत्तर
प्रश्न 1: परम्परा का ज्ञान किसके लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है और क्यों?
उत्तर: परम्परा का ज्ञान उन लोगों के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है जो साहित्य में युग-परिवर्तन करना चाहते हैं, जो रूढ़ियों के फ़कीर नहीं हैं। लेखक का मानना है कि साहित्य की परम्परा का ज्ञान उन साहित्यकारों के लिए आवश्यक है जो पुरानी रूढ़ियों को तोड़कर नए और प्रगतिशील साहित्य का निर्माण करना चाहते हैं। यह ज्ञान उन्हें शोषकविहीन, शोषणमुक्त समाजवादी समाज की स्थापना के लिए क्रांतिकारी साहित्य रचने में मदद करता है। परम्परा का ज्ञान इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रगतिशील आलोचना का आधार भी यही है।
प्रश्न 2: परम्परा के मूल्यांकन में साहित्य के वर्गीय आधार का लेखक क्यों महत्वपूर्ण मानता है?
उत्तर: लेखक परम्परा के मूल्यांकन में साहित्य के वर्गीय आधार को इसलिए महत्वपूर्ण मानता है क्योंकि साहित्य किसी न किसी वर्ग के हितों को प्रतिबिंबित करता है। जब हम किसी साहित्य कृति का मूल्यांकन करते हैं, तो हमें यह देखना होता है कि वह किस वर्ग की जनता के लिए है और उसका उपयोग कैसे किया जा सकता है। इसलिए, परम्परा का सही मूल्यांकन तभी हो सकता है जब हम साहित्य के वर्गीय चरित्र को पहचानें और समझें कि वह किस वर्ग के शोषण के विरुद्ध है और किस वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करता है।
प्रश्न 3: साहित्य का कौन-सा पथ अपेक्षित है? इस संबंध में लेखक की राय स्पष्ट करें।
उत्तर: लेखक के अनुसार, साहित्य का प्रगतिशील पथ अपेक्षित है। उनका मत है कि साहित्य को युग-परिवर्तन का साधन बनना चाहिए और उसे शोषकविहीन समाजवादी समाज के निर्माण में सहायक होना चाहिए। वह चाहता है कि साहित्य सिर्फ मनोरंजन का साधन न बने, बल्कि जनता की भलाई के लिए उपयोग हो और समाज को आगे बढ़ाने में मदद करे।
प्रश्न 4: 'साहित्य में विकास प्रक्रिया उसी तरह सम्पन्न नहीं होती, जैसे समाज में।' लेखक का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: इस कथन से लेखक का आशय यह है कि समाज का विकास आर्थिक उत्पादन संबंधों पर आधारित होता है, इसके विपरीत, साहित्य या कला के विकास में यह सीधी रेखा नहीं होती। लेखक उदाहरण देते हैं कि रोमन साम्राज्य में दास प्रथा होते हुए भी वर्जिल जैसा महान कवि पैदा हुआ। यह दर्शाता है कि साहित्य के विकास में व्यक्ति की प्रतिभा और कलाकार की सापेक्ष स्वाधीनता की विशेष भूमिका होती है।
प्रश्न 5: लेखक मानव चेतना की आर्थिक संबंधों से प्रभावित मानते हुए भी उसकी सापेक्ष स्वाधीनता किन दृष्टांतों द्वारा प्रमाणित करता है?
उत्तर: लेखक मानव चेतना को आर्थिक संबंधों से प्रभावित मानते हुए भी उसकी सापेक्ष स्वाधीनता को विभिन्न दृष्टांतों द्वारा प्रमाणित करता है। वे कहते हैं कि वाल्मीकि और कालिदास जैसे महान कवि ऐसे समाजों में पैदा हुए थे जहाँ दास प्रथा थी, फिर भी उनकी रचनाएँ इतनी श्रेष्ठ हैं कि उनका महत्व आज भी है। यह सिद्ध करता है कि मनुष्य केवल आर्थिक परिस्थितियों की देन नहीं है, बल्कि उसकी चेतना में कुछ हद तक स्वाधीनता होती है।
प्रश्न 6: साहित्य के निर्माण में प्रतिभा की भूमिका स्वीकार करते हुए लेखक किन खतरों से आगाह करता है?
उत्तर: साहित्य के निर्माण में प्रतिभा की भूमिका को स्वीकार करते हुए लेखक इस खतरे से आगाह करता है कि व्यक्तिगत पूजा साहित्य को नुकसान पहुँचा सकती है। यदि हम किसी की व्यक्तिगत पूजा करने लगें और उसे हर आलोचना से ऊपर समझने लगें, तो यह साहित्यिक विकास के लिए हानिकारक हो सकता है।
प्रश्न 7: राजनीतिक मूल्यों से साहित्य के मूल्य अधिक स्थायी कैसे होते हैं?
उत्तर: लेखक के अनुसार, राजनीतिक मूल्यों से साहित्य के मूल्य अधिक स्थायी होते हैं क्योंकि साहित्य मनुष्य की संवेदनाओं और विचारों को गहराई से प्रभावित करता है, जो समय के साथ नहीं बदलते। राजनीतिक मूल्य बदलते रहते हैं, लेकिन महान साहित्य की कालजयी कृतियाँ युगों-युगों तक प्रासंगिक रहती हैं। उदाहरण के लिए, शेक्सपियर, मिल्टन और शेलै का साहित्य आज भी प्रासंगिक है।
प्रश्न 8: जातीय अस्मिता का लेखक किस प्रसंग में उल्लेख करता है और उसका क्या महत्व बताता है?
उत्तर: लेखक जातीय अस्मिता (national identity) का उल्लेख भारत की राष्ट्रीय पहचान और उसके विकास के प्रसंग में करता है। जातीय अस्मिता का महत्व यह है कि यह देश को एकजुट रखती है और उसे बाहरी आक्रमणों या विभाजन से बचाती है। भारत की जातीय अस्मिता उसकी बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक परम्परा से विकसित हुई है, और यही इसकी शक्ति है।
प्रश्न 9: जातीय और राष्ट्रीय अस्मिताओं के स्वरूप का अंतर करते हुए लेखक दोनों में क्या समानता बताता है?
उत्तर: अंतर: जातीय अस्मिता एक विशिष्ट भाषाई या सांस्कृतिक समूह की पहचान होती है, जबकि राष्ट्रीय अस्मिता कई जातीय समूहों को मिलाकर एक बड़े राष्ट्र की पहचान होती है। समानता: दोनों ही मनुष्य की साझा परम्परा, संस्कृति और इतिहास से विकसित होती हैं। भारत जैसे बहुजातीय राष्ट्र में, विभिन्न जातीय अस्मिताएँ मिलकर एक मजबूत राष्ट्रीय अस्मिता का निर्माण करती हैं।
प्रश्न 10: बहुजातीय राष्ट्र को हैसियत से कोई भी देश भारत का मुकाबला क्यों नहीं कर सकता?
उत्तर: लेखक का मानना है कि बहुजातीय राष्ट्र होने की हैसियत से कोई भी देश भारत का मुकाबला नहीं कर सकता। इसका मुख्य कारण यह है कि भारत की राष्ट्रीय अस्मिता का निर्माण किसी एक भाषा या संस्कृति से नहीं, बल्कि अनेक भाषाओं, संस्कृतियों और ऐतिहासिक परम्पराओं के मेल से हुआ है। यह अद्वितीय सांस्कृतिक एकता भारत को अत्यधिक मजबूत बनाती है।
प्रश्न 11: भारत की बहुजातीयता मुख्यतः संस्कृति और इतिहास की देन है। कैसे?
उत्तर: लेखक का मत है कि भारत की बहुजातीयता मुख्यतः संस्कृति और इतिहास की देन है। संस्कृति: भारत की भाषाओं, साहित्य, कला में विविधता है, लेकिन वे सभी एक साझी भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं। इतिहास: भारत का इतिहास यह दर्शाता है कि कैसे विभिन्न आक्रमणकारी और प्रवासी समूह यहाँ आए और यहाँ की आबादी में घुलमिल गए, जिससे एक मिश्रित संस्कृति का विकास हुआ।
प्रश्न 12: किस तरह समाजवाद हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है? इस प्रसंग में लेखक के विचारों पर प्रकाश डालें।
उत्तर: लेखक स्पष्ट रूप से कहता है कि समाजवाद हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है। वे इस बात पर जोर देते हैं कि भारत जैसे बहुजातीय राष्ट्र को एकजुट रखने और उसका समग्र विकास करने के लिए समाजवादी व्यवस्था आवश्यक है। समाजवाद में सभी वर्गों और जातियों को समान अवसर मिलते हैं, जिससे राष्ट्रीय अस्मिता मजबूत होती है और संस्कृति का विकास होता है।
प्रश्न 13: निबंध का समापन करते हुए लेखक कैसा स्वप्न देखता है? उसे साकार करने में परम्परा की क्या भूमिका हो सकती है?
उत्तर: निबंध का समापन करते हुए लेखक एक ऐसे भारत का स्वप्न देखता है जहाँ समाजवादी व्यवस्था स्थापित हो। वह चाहता है कि भारत में समाजवाद आए, जहाँ सभी जातियों, भाषाओं और संस्कृतियों को समान महत्व मिले। इस स्वप्न को साकार करने में परम्परा की महत्वपूर्ण भूमिका है, क्योंकि परम्परा का ज्ञान हमें अपने इतिहास और संस्कृति की जड़ों से जोड़ता है।
प्रश्न 14: साहित्य सापेक्ष रूप में स्वाधीन होता है। इस मत को प्रमाणित करने के लिए लेखक ने कौन-से तर्क और प्रमाण उपस्थित किए हैं?
उत्तर: लेखक यह स्थापित करने के लिए कि साहित्य सापेक्ष रूप में स्वाधीन होता है, कई तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करता है: (1) आर्थिक संबंधों से परे: साहित्य केवल उत्पादन संबंधों की देन नहीं होता। (2) महान कवियों के उदाहरण: वाल्मीकि और कालिदास जैसे महान कवि दास प्रथा वाले समाज में रहते थे, फिर भी उनकी रचनाएँ कालजयी हैं। (3) कलाकार की प्रतिभा: साहित्य के निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्य की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
प्रश्न 15 (व्याख्या करें): विभाजित बंगाल से विभाजित पंजाब की तुलना कीजिए...
उत्तर: इस कथन में लेखक साहित्य की परम्परा के ज्ञान के महत्व को उजागर करता है। विभाजित बंगाल: बंगाल जब विभाजित हुआ, तो भी उनकी बंगाली जातीय संस्कृति अविच्छिन्न रही क्योंकि उनके पास अपनी समृद्ध साहित्यिक परम्परा थी। विभाजित पंजाब: इसके विपरीत, जब पंजाब विभाजित हुआ, तो वहां साहित्य की परम्परा का ज्ञान उतना मजबूत नहीं था, जिससे सांस्कृतिक जुड़ाव कमजोर हो गया। यह तुलना दर्शाती है कि साहित्य की परम्परा का गहरा ज्ञान राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
5. अतिरिक्त अभ्यास प्रश्न (विस्तृत समाधान के साथ)
प्रश्न 1: रामविलास शर्मा के अनुसार, साहित्य का संबंध समाज और परम्परा से किस प्रकार जुड़ा हुआ है?
उत्तर: रामविलास शर्मा के अनुसार, साहित्य समाज और परम्परा से अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। साहित्य समाज का प्रतिबिंब होता है और उसकी चेतना को आकार देता है। परम्परा, साहित्य के विकास का आधार होती है, जिससे नई रचनाएँ प्रेरणा लेती हैं और समाज को आगे बढ़ाती हैं।
प्रश्न 2: 'रूढ़ियों के फ़कीर' कौन नहीं होते और उनके लिए परम्परा का ज्ञान क्यों आवश्यक है?
उत्तर: 'रूढ़ियों के फ़कीर' वे नहीं होते जो पुरानी, बासी और अनुपयोगी परंपराओं से बंधे नहीं रहते, बल्कि जो समय के साथ परिवर्तन और प्रगति में विश्वास रखते हैं। उनके लिए परम्परा का ज्ञान इसलिए आवश्यक है ताकि वे क्रांतिकारी साहित्य का निर्माण कर सकें और उपयोगी तत्वों को अपनाकर अनुपयोगी को छोड़ सकें।
प्रश्न 3: प्रगतिशील आलोचना की क्या विशेषताएँ हैं और इसका साहित्य के विकास में क्या योगदान है?
उत्तर: प्रगतिशील आलोचना की मुख्य विशेषताएँ हैं कि यह सामाजिक विकास को गति देती है और साहित्य को सामाजिक परिवर्तन के साधन के रूप में देखती है। इसका योगदान यह है कि यह नई प्रगतिशील साहित्य के निर्माण में मदद करती है और पुराने साहित्य का मूल्यांकन करके उसमें से समाज के लिए उपयोगी तत्वों को पहचानती है।
प्रश्न 4: लेखक ने साहित्य के मूल्य निर्धारण के लिए किस आधार पर बल दिया है?
उत्तर: लेखक ने साहित्य के मूल्य निर्धारण के लिए उसके वर्गीय आधार पर बल दिया है। उनका मानना है कि किसी भी साहित्य कृति का मूल्यांकन करते समय यह देखना चाहिए कि वह किस वर्ग की जनता के हितों को प्रतिबिंबित करती है।
प्रश्न 5: मानव चेतना और आर्थिक संबंधों के बीच रामविलास शर्मा क्या संबंध स्थापित करते हैं?
उत्तर: शर्मा जी मानते हैं कि मानव चेतना आर्थिक संबंधों से प्रभावित होती है, लेकिन वह पूरी तरह से उन पर निर्भर नहीं होती। चेतना की अपनी सापेक्ष स्वाधीनता होती है। कलाकार की अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा और सृजनशीलता भी महत्वपूर्ण होती है।
प्रश्न 6: पूंजीवादी समाज और समाजवादी समाज में साहित्य की भूमिका में क्या अंतर होता है?
उत्तर: पूंजीवादी समाज में साहित्य प्रायः वर्ग विशेष के हितों की पूर्ति करता है। समाजवादी समाज में साहित्य संपूर्ण जनता के हितों के लिए होता है और राष्ट्रीय अस्मिता को मजबूत करता है।
प्रश्न 7: लेखक के अनुसार, राष्ट्रीय अस्मिता कब बनती है और भारत के संदर्भ में इसका क्या महत्व है?
उत्तर: राष्ट्रीय अस्मिता तब बनती है जब अनेक जातीय समूह सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परम्पराओं के आधार पर एकजुट होते हैं। भारत के संदर्भ में इसका महत्व यह है कि यह देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने में सहायक है।
प्रश्न 8: रामविलास शर्मा भारतीय संस्कृति के विकास के लिए समाजवादी व्यवस्था को क्यों आवश्यक मानते हैं?
उत्तर: वे समाजवादी व्यवस्था को आवश्यक मानते हैं क्योंकि समाजवाद में ही संस्कृति अपनी पूरी व्यापकता के साथ विकसित हो सकती है। यह वर्ग-भेद को समाप्त करती है और सभी को शिक्षा और सांस्कृतिक गतिविधियों में समान अवसर देती है।
प्रश्न 9: निबंध में 'जातीय अस्मिता' का उल्लेख किन-किन संदर्भों में किया गया है?
उत्तर: इसका उल्लेख राष्ट्रीय पहचान के निर्माण, सांस्कृतिक एकता और विभिन्नता में एकता के संदर्भों में किया गया है। यह दर्शाता है कि विभिन्न जातीय अस्मिताएँ मिलकर एक बड़ी भारतीय अस्मिता का निर्माण करती हैं।
प्रश्न 10: 'परम्परा का मूल्यांकन' शीर्षक की सार्थकता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: यह शीर्षक पूरी तरह से सार्थक है क्योंकि यह निबंध का केंद्रीय विषय है। लेखक ने परम्परा के वैज्ञानिक विश्लेषण और उपयोगिता पर विस्तार से चर्चा की है, जिसमें परम्परा को आँख मूंदकर स्वीकार करने के बजाय उसका मूल्यांकन करने पर जोर दिया गया है।
प्रश्न 11: रामविलास शर्मा के अनुसार, साहित्य और कला में 'विकास' की अवधारणा समाज के 'विकास' से भिन्न क्यों है?
उत्तर: यह भिन्न है क्योंकि समाज का विकास मुख्य रूप से उत्पादन संबंधों में परिवर्तन से होता है, जबकि कला का विकास व्यक्ति की प्रतिभा और चेतना की सापेक्ष स्वाधीनता पर अधिक निर्भर करता है।
प्रश्न 12: 'निराला की साहित्य साधना' के लिए रामविलास शर्मा को साहित्य अकादमी पुरस्कार क्यों मिला?
उत्तर: यह पुरस्कार इसलिए मिला क्योंकि यह कृति सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के जीवन और साहित्य पर एक गहन, वैज्ञानिक और प्रगतिशील आलोचनात्मक अध्ययन है। इस कृति ने हिंदी आलोचना को एक नई दिशा दी।
प्रश्न 13: लेखक 'बहुजातीय राष्ट्र' की अवधारणा को भारत के संदर्भ में कैसे परिभाषित करता है?
उत्तर: वे भारत को एक ऐसा देश मानते हैं जहाँ अनेक भाषाएँ बोलने वाली जातियाँ और संस्कृतियाँ सह-अस्तित्व में हैं, और ये सभी मिलकर एक साझा राष्ट्रीय अस्मिता का निर्माण करती हैं, जो भारत की सबसे बड़ी ताकत है।
प्रश्न 14: रामविलास शर्मा की आलोचना पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर: उनकी आलोचना की विशेषताएँ हैं: (1) वैज्ञानिक और भौतिकवादी दृष्टिकोण, (2) मार्क्सवादी चिंतन का आधार, (3) प्रगतिशील आलोचना, (4) भारतीय परम्परा का महत्व, और (5) सामाजिक और ऐतिहासिक संदर्भ।
प्रश्न 15: लेखक ने किस प्रकार यह सिद्ध किया है कि भारत की राष्ट्रीय अस्मिता पूंजीवादी व्यवस्था में विकसित नहीं हो सकती?
उत्तर: उन्होंने सिद्ध किया है कि पूंजीवादी व्यवस्था मूलतः शोषण पर आधारित है और वह वर्ग-भेद को बढ़ावा देती है, जो भारत जैसे बहुजातीय राष्ट्र में असमानता और संघर्ष पैदा कर राष्ट्रीय एकता को कमजोर करेगी।
प्रश्न 16: परम्परा के ज्ञान का साहित्यकार के लिए क्या महत्व है?
उत्तर: परम्परा का ज्ञान साहित्यकार को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ता है, जिससे उसकी रचनाओं में गहराई आती है। यह उन्हें प्रगतिशील विचारों को अपनाने और रूढ़ियों को त्यागने में मदद करता है, जिससे वे युग-परिवर्तनकारी साहित्य रच सकें।
प्रश्न 17: निबंध में 'न्यूनाधिक ज्ञान' का सामाजिक परिणाम क्या बताया गया है?
उत्तर: 'न्यूनाधिक ज्ञान' का सामाजिक परिणाम सामाजिक एकता और पहचान पर सीधा प्रभाव डालता है। बंगाल में परम्परा का गहरा ज्ञान होने से विभाजन के बाद भी सांस्कृतिक एकता बनी रही, जबकि पंजाब में कम ज्ञान से अलगाव बढ़ा।
प्रश्न 18: रामविलास शर्मा के अनुसार, किसी भी राष्ट्र के लिए राष्ट्रीय साहित्य का क्या महत्व है?
उत्तर: राष्ट्रीय साहित्य का महत्व यह है कि यह राष्ट्रीय अस्मिता का निर्माण करता है और उसे बनाए रखता है। यह विभिन्न समूहों को एक सूत्र में पिरोता है और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करता है।
प्रश्न 19: लेखक ने 'प्रगति विरोधी आलोचना' की किन बुराइयों का उल्लेख किया है?
उत्तर: 'प्रगति विरोधी आलोचना' रूढ़िवादी विचारों का समर्थन करती है और नए, प्रगतिशील विचारों का विरोध करती है। यह साहित्य को समाज से काटकर देखती है और शोषक वर्गों के हितों को बढ़ावा देती है।
प्रश्न 20: निबंध में किन भारतीय साहित्यकारों और विचारकों का उल्लेख किया गया है और क्यों?
उत्तर: वाल्मीकि और कालिदास का उल्लेख मानव चेतना की स्वाधीनता सिद्ध करने के लिए किया गया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, भारतेंदु, प्रेमचंद आदि का उल्लेख रामविलास शर्मा के आलोचनात्मक कार्यों के संदर्भ में किया गया है।
6. अध्याय का संक्षिप्त सारांश (त्वरित पुनरावृत्ति के लिए)
लेखक परिचय: डॉ. रामविलास शर्मा एक प्रमुख प्रगतिशील आलोचक थे।
केंद्रीय विचार: निबंध साहित्य की परम्परा के वैज्ञानिक मूल्यांकन पर केंद्रित है।
परम्परा का महत्व: परम्परा का ज्ञान युग-परिवर्तनकारी साहित्य रचने और समाजवादी समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है।
साहित्य का विकास: साहित्य का विकास समाज के आर्थिक विकास जैसा सीधा नहीं होता; यह व्यक्ति की प्रतिभा पर भी निर्भर करता है।
जातीय और राष्ट्रीय अस्मिता: भारत एक बहुजातीय राष्ट्र है, और यही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है।
समाजवाद की आवश्यकता: समाजवादी व्यवस्था ही भारत की राष्ट्रीय आवश्यकता है, जो राष्ट्रीय अस्मिता और संस्कृति का विकास करती है।
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