प्रेम-अयनि श्री राधिका - स्वयं अध्ययन नोट्स
यह नोट्स आपको कक्षा 10 की हिंदी पाठ्यपुस्तक 'गोधूलि' के दूसरे पाठ 'प्रेम-अयनि श्री राधिका' को समझने में पूरी सहायता करेंगे। यह पाठ रसखान जी द्वारा रचित दो महत्वपूर्ण सवैयों का संग्रह है, जो उनके कृष्ण और राधा के प्रति अनन्य प्रेम और भक्ति को दर्शाते हैं। इन नोट्स को पढ़कर आप न केवल कविता का अर्थ समझेंगे, बल्कि इसके भाव, भाषा-शैली और परीक्षा के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न-उत्तर भी तैयार कर पाएंगे। यह स्वयं अध्ययन नोट्स आपकी बिहार बोर्ड हिंदी कक्षा 10 की तैयारी को मजबूती देंगे।
1. कवि परिचय एवं कविता का सार
कवि रसखान
रसखान हिंदी साहित्य के भक्तिकाल के कृष्ण भक्त कवि हैं। इनका मूल नाम सैयद इब्राहिम था। ये दिल्ली के आस-पास रहने वाले पठान सरदार थे [वाह्य स्रोत: यह जानकारी स्रोत में नहीं है, कृपया इसे स्वतंत्र रूप से सत्यापित करें]। रसखान का शाब्दिक अर्थ है 'रस की खान' (रस का खजाना), और वे वास्तव में अपनी रचनाओं में प्रेम और भक्ति के रस से परिपूर्ण हैं। इन्होंने ब्रजभाषा में अपनी रचनाएँ कीं, जिनमें 'प्रेमवाटिका', 'सुजान रसखान' प्रमुख हैं [वाह्य स्रोत: यह जानकारी स्रोत में नहीं है, कृपया इसे स्वतंत्र रूप से सत्यापित करें]। इनकी कविताओं में कृष्ण के रूप-सौंदर्य, उनकी लीलाओं और राधा-कृष्ण के प्रेम का अत्यंत मनोहारी चित्रण मिलता है।
कविता का सार
प्रस्तुत पाठ में रसखान के दो सवैये संकलित हैं।
- पहला सवैया राधा-कृष्ण के अनन्य प्रेम और उनके अभिन्न स्वरूप को दर्शाता है। कवि कहते हैं कि राधा प्रेम की साकार मूर्ति हैं और कृष्ण प्रेम के रंग हैं। कृष्ण उनके मन को चुरा लेते हैं और उनके बिना वे बेमन हो जाते हैं।
- दूसरा सवैया कवि की कृष्ण और ब्रजभूमि के प्रति गहरी निष्ठा और समर्पण को व्यक्त करता है। कवि कहते हैं कि वे कृष्ण की लाठी और कंबल के लिए तीनों लोकों का राज्य भी त्यागने को तैयार हैं, तथा ब्रज की धरती पर बसने और वहाँ के करील के कुंजों को निहारने के लिए करोड़ों स्वर्ण महलों को भी न्योछावर कर सकते हैं।
2. कविता का विस्तृत विश्लेषण (पद-वार व्याख्या)
रसखान के सवैयों की भाषा ब्रज है, जो बहुत ही मधुर और प्रवाहमयी है। आइए, एक-एक पद को विस्तार से समझते हैं:
प्रथम पद: "प्रेम-अयनि श्री राधिका..."
प्रेम-अयनि श्री राधिका, प्रेम-बरन नंद-नंद। मोहन छबि रसखानि लखि अब दृग अपने नाहिं।। अँचे आवत धनुस से छूटे सर से जाहिं।। मो मन मानिक लै गयौ चितै चोर नंद-नंद। अब बेमन मैं का करौं परी फेर कै फंद।। प्रीतम नंदकिशोर, जा दिन ते नैननि लाग्यो। मन पावन चितचोर, पलक ओट नहिं करि सकौं।।
शब्दार्थ:
- अयनि: घर, खजाना, निवास स्थान
- बरन: रंग, वर्ण
- नंद-नंद: नंद का पुत्र, अर्थात् कृष्ण
- मोहन छबि: मन को मोह लेने वाली छवि
- रसखानि: कवि रसखान स्वयं, या रस की खान
- लखि: देखकर
- दृग: आँखें (स्रोत में 'दुर्ग' दिया है, जो कि 'दृग' का ही एक रूप हो सकता है)
- नाहिं: नहीं
- अँचे आवत: खींचकर आते हैं (धनुष की प्रत्यंचा खींचने जैसा)
- सर: बाण
- मो मन मानिक: मेरा मन रूपी माणिक (अनमोल रत्न)
- लै गयौ: ले गया
- चितै चोर: चित्त को चुराने वाला चोर
- बेमन: बिना मन का, उदास
- का करौं: क्या करूँ
- परी फेर कै फंद: प्रेम के बंधन में पड़ गया हूँ
- प्रीतम नंदकिशोर: प्रिय नंदकिशोर (कृष्ण)
- जा दिन ते: जिस दिन से
- नैननि लाग्यो: आँखों में बस गया, आँखें मिलीं
- मन पावन: मन को पवित्र करने वाला
- पलक ओट नहिं करि सकौं: पलकें बंद करके ओझल नहीं कर सकता, अर्थात हर पल उसी को देखता रहता हूँ
व्याख्या:
रसखान कहते हैं कि श्री राधिका प्रेम की मूर्ति (घर/खजाना) हैं, और नंद के पुत्र कृष्ण प्रेम के रंग हैं। अर्थात, राधा प्रेम का मूल स्वरूप हैं और कृष्ण उसी प्रेम को साकार करने वाले रंग हैं। दोनों एक-दूसरे से इस प्रकार जुड़े हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता।
कवि कहते हैं कि कृष्ण की मनमोहक छवि को देखने के बाद अब मेरी आँखें अपनी नहीं रह गई हैं। जैसे धनुष से निकला बाण वापस नहीं आता, उसी प्रकार कृष्ण की छवि देखते ही मेरा मन उनके प्रति पूरी तरह समर्पित हो गया है।
कृष्ण को संबोधित करते हुए रसखान कहते हैं कि वह चित्तचोर नंद-नंदन मेरे मन रूपी माणिक को चुरा ले गया है। अब मैं बेमन होकर क्या करूँ, क्योंकि मैं तो उनके प्रेम के फंदे में फँस गया हूँ। मेरा मन मेरे वश में नहीं रहा, वह तो कृष्ण के साथ चला गया है।
कवि आगे कहते हैं कि जिस दिन से प्रिय नंदकिशोर मेरी आँखों में बसे हैं, मेरा मन पवित्र करने वाले उस चित्तचोर कृष्ण को मैं एक पल के लिए भी अपनी पलकों की ओट नहीं कर पाता। अर्थात्, कृष्ण का मनमोहक रूप हर पल उनकी आँखों के सामने रहता है, और वे एक क्षण के लिए भी उसे भुला नहीं पाते। यह कवि की कृष्ण के प्रति गहरी तल्लीनता और अनन्य प्रेम को दर्शाता है।
द्वितीय पद: "या लकुटी अरु कामरिया..."
या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं। आठहुँ सिद्धि नवोनिधि को सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौं।। रसखानि कबौं इन आँखिन सौ ब्रज के बनबाग तड़ाग निहारौं। कोटिकै कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं।।
शब्दार्थ:
- या लकुटी: इस छोटी लाठी (कृष्ण की लाठी)
- अरु: और
- कामरिया: कंबल (कृष्ण का कंबल)
- राज तिहूँ पुर: तीनों लोकों का राज्य
- तजि डारौं: त्याग दूँ, छोड़ दूँ
- आठहुँ सिद्धि: अणिमा, महिमा, आदि आठ शक्तियाँ [वाह्य स्रोत]
- नवोनिधि: पद्म, महापद्म, आदि नौ निधियाँ [वाह्य स्रोत]
- बिसारौं: भुला दूँ, त्याग दूँ
- बनबाग: वन और बाग
- तड़ाग: तालाब
- निहारौं: देखूँ
- कोटिकै: करोड़ों
- कलधौत के धाम: सोने के महल
- करील के कुंजन: करील की झाड़ियों के समूह
- वारौं: न्योछावर कर दूँ
व्याख्या:
रसखान अपनी अनन्य भक्ति का प्रदर्शन करते हुए कहते हैं कि कृष्ण की उस छोटी सी लाठी (लकुटी) और कंबल (कामरिया) के लिए मैं तीनों लोकों के राज्य को भी त्याग दूँ। उनके लिए सांसारिक वैभव का कोई मोल नहीं है।
कवि आगे कहते हैं कि आठों सिद्धियों और नौ निधियों (धन-संपत्ति और अलौकिक शक्तियों) के सुख को भी मैं नंद बाबा की गायों को चराने (अर्थात् कृष्ण की सेवा या ब्रजभूमि में उनके साथ बिताए समय) के लिए भुला दूँ। यह दर्शाता है कि कवि के लिए कृष्ण से संबंधित हर वस्तु, यहाँ तक कि उनकी साधारण सेवा भी, संसार के सबसे बड़े सुख और ऐश्वर्य से बढ़कर है।
रसखान की प्रबल इच्छा है कि वे अपनी इन आँखों से कब ब्रज के वन, बाग और तालाबों को देख पाएँगे। उन्हें ब्रज की धरती से इतना प्रेम है कि करोड़ों सोने के महलों के सुख को वे करील की कंटीली झाड़ियों वाले कुंजों (जहाँ कृष्ण अपनी लीलाएँ करते थे) पर न्योछावर कर दें। यहाँ कवि यह कहना चाहते हैं कि ब्रज की कंटीली झाड़ियाँ भी उनके लिए सोने के महलों से अधिक मूल्यवान हैं, क्योंकि वे कृष्ण से जुड़ी हैं। यह ब्रजभूमि और कृष्ण के प्रति उनके गहन प्रेम और समर्पण को दर्शाता है।
3. प्रमुख अवधारणाएँ और शब्दावली
यहाँ पाठ में आए कुछ महत्वपूर्ण शब्दों और अवधारणाओं की व्याख्या की गई है, जो आपको कविता को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेगी:
- 1. प्रेम-अयनि श्री राधिका:
- राधा प्रेम का निवास स्थान, प्रेम की साकार मूर्ति हैं। वे प्रेम का मूल स्रोत हैं।
- 2. प्रेम-बरन नंद-नंद:
- नंद का पुत्र कृष्ण प्रेम का रंग हैं। वे प्रेम को अपनी लीलाओं और रूप से प्रकट करते हैं, जैसे रंग किसी चित्र को पूर्ण करता है। राधा और कृष्ण प्रेम के दो अभिन्न रूप हैं।
- 3. माली-मालिन:
- यहाँ राधा और कृष्ण को 'माली-मालिन' कहा गया है। जिस प्रकार माली और मालिन मिलकर उपवन को सींचते और सजाते हैं, उसी प्रकार राधा और कृष्ण मिलकर प्रेम रूपी उपवन को विकसित करते हैं। वे प्रेम के उपवन के संरक्षक हैं।
- 4. रसखानि:
- 'रस की खान' अर्थात रस से भरा हुआ। यह कवि का उपनाम है और उनकी रचनाओं में प्रेम रस की प्रधानता को दर्शाता है।
- 5. चितचोर:
- मन को चुराने वाला। यह विशेषण कृष्ण के लिए प्रयोग किया गया है, क्योंकि वे अपने मनमोहक रूप से भक्तों और गोपियों के मन को हर लेते हैं।
- 6. मन मानिक:
- मन रूपी माणिक (एक बहुमूल्य रत्न)। यहाँ मन की तुलना माणिक से की गई है, जो मन के बहुमूल्य और पवित्र होने का प्रतीक है।
- 7. बेमन:
- बिना मन का। जब कृष्ण मन को चुरा लेते हैं, तो भक्त या प्रेमी बेमन हो जाता है, अर्थात उसका मन अपने वश में नहीं रहता।
- 8. नंदकिशोर:
- नंद का पुत्र (कृष्ण)। यह कृष्ण का एक प्रिय संबोधन है।
- 9. आवनुहैंड़ि:
- यह शब्द पाठ में दिए गए "भाव की बात" में है। इसका अर्थ "आना" या "आगमन" के संदर्भ में हो सकता है, हालाँकि सीधे पद में यह शब्द नहीं मिलता। संदर्भानुसार, इसका अर्थ "आने वाला" या "जो आता है" हो सकता है, विशेषकर कृष्ण के आगमन के संदर्भ में।
- 10. बनबाग:
- वन और बाग। यह ब्रजभूमि की प्राकृतिक सुंदरता का प्रतीक है।
- 11. तिहुँपुर:
- तीनों लोक - पृथ्वी, आकाश और पाताल। यह संसार के समस्त वैभव और राज्य का प्रतीक है।
- 12. लकुटी अरु कामरिया:
- कृष्ण की छोटी लाठी और कंबल। ये कृष्ण की सादगी और उनके गोपाल रूप के प्रतीक हैं। कवि इन साधारण वस्तुओं के लिए तीनों लोकों का राज्य न्योछावर करने को तैयार हैं, जो उनकी अनन्य भक्ति दर्शाता है।
- 13. करील के कुंजन:
- करील की कंटीली झाड़ियों के समूह। ब्रज में ये कुंज कृष्ण की लीलाओं के साक्षी रहे हैं। कवि के लिए ये कुंज करोड़ों सोने के महलों से अधिक मूल्यवान हैं, क्योंकि ये कृष्ण से जुड़े हैं।
- 14. कलधौत:
- सोने। हालाँकि शब्द निधि में 'इंद्र' भी दिया है, कविता के संदर्भ में 'सोना' ही उपयुक्त है (करोड़ों सोने के महल)।
4. अभ्यास प्रश्नों के विस्तृत उत्तर
कविता के साथ
- भाव-सौंदर्य: कवि की असीम भक्ति और समर्पण का भाव स्पष्ट है। वे कृष्ण से जुड़ी साधारण से साधारण वस्तु (लकुटी, कामरिया) और स्थान (ब्रज के बनबाग, करील कुंज) के लिए संसार के सबसे बड़े सुखों (तीनों लोकों का राज्य, आठों सिद्धि, नवोनिधि, करोड़ों सोने के महल) को भी त्यागने को तैयार हैं। यह त्याग और वैराग्य कवि के प्रेम की गहराई को दर्शाता है।
- कला-सौंदर्य:
- भाषा: ब्रजभाषा का मधुर और प्रवाहमयी प्रयोग किया गया है, जो कविता को संगीतात्मकता प्रदान करता है।
- छंद: यह एक सवैया छंद है, जिसकी गति और लय अत्यंत मोहक है।
- अलंकार: 'कोटिकै कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं' में त्याग और विरोधाभास का भाव है। 'आठहुँ सिद्धि नवोनिधि को सुख...' में भी त्याग का अद्भुत वर्णन है।
- बिंब-विधान: लाठी, कंबल, ब्रज के वन-बाग, तालाब, करील के कुंज आदि के सजीव बिंब पाठक के मन में एक स्पष्ट चित्र बनाते हैं।
भावार्थ: पहले सवैया में कवि राधा-कृष्ण के प्रेम के अभिन्न स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कृष्ण ने उनके मन को चुरा लिया है और वे उनके बिना बेमन हो गए हैं। यह कवि की कृष्ण के प्रति एकाग्र भक्ति और गहन तल्लीनता को दर्शाता है। दूसरे सवैया में, कवि अपनी भक्ति की पराकाष्ठा दिखाते हैं, जहाँ वे कृष्ण की लाठी और कंबल के लिए तीनों लोकों का राज्य, और आठों सिद्धियों व नौ निधियों का सुख त्यागने को तैयार हैं। यह उनके निस्वार्थ प्रेम और पूर्ण समर्पण को दर्शाता है। इन सवैयों से स्पष्ट होता है कि कवि की भक्ति किसी सांसारिक सुख या लाभ की कामना से परे है। उनकी भक्ति आकाश की तरह विशाल, असीम और अटूट है, जो केवल कृष्ण और उनकी लीलाभूमि से जुड़ने की अभिलाषा रखती है। यह उनके अटूट विश्वास (आस्था) और प्रेम की विशालता का परिचायक है।
संदर्भ: कवि रसखान कृष्ण के मनमोहक रूप से इतने प्रभावित हैं कि वे उन्हें क्षण भर भी अपनी आँखों से दूर नहीं कर पाते।
भावार्थ: इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि कृष्ण उनके मन को पवित्र करने वाले और उनके चित्त (हृदय) को चुराने वाले हैं। कवि कृष्ण की छवि में इतने लीन हो गए हैं कि वे चाहकर भी अपनी पलकों को झुकाकर (ओट करके) उन्हें अपनी दृष्टि से ओझल नहीं कर पाते हैं। इसका अर्थ यह है कि कृष्ण की छवि हर पल उनकी आँखों के सामने बसी रहती है, और वे एक क्षण के लिए भी कृष्ण के ध्यान से विचलित नहीं हो पाते। यह कवि की कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम, समर्पण और अनवरत ध्यान को दर्शाता है।
संदर्भ: कवि रसखान ब्रजभूमि और कृष्ण से संबंधित हर वस्तु के प्रति अपनी प्रबल आसक्ति और देखने की तीव्र इच्छा व्यक्त करते हैं।
भावार्थ: इन पंक्तियों में कवि रसखान अपनी तीव्र अभिलाषा व्यक्त करते हैं कि वे अपनी इन आँखों से कब ब्रज के वनों, बागों और तालाबों को देख पाएंगे। कवि के लिए ब्रजभूमि अत्यंत पावन और प्रिय है, क्योंकि यह कृष्ण की लीलाभूमि रही है। उनकी हार्दिक इच्छा है कि वे इस पवित्र भूमि के कण-कण को अपनी आँखों से निहार सकें। यह पंक्ति कवि के ब्रजभूमि और कृष्ण के प्रति अटूट लगाव और दर्शन की तीव्र लालसा को प्रकट करती है।
भाषा के साथ-साथ
नोट: निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर के लिए आपको हिंदी साहित्य के इतिहास का अतिरिक्त अध्ययन करना होगा।
भाव की बात
- प्रेम-अयनि: राधा प्रेम का निवास स्थान, प्रेम की स्रोत हैं।
- प्रेम-बरन: कृष्ण प्रेम का रंग हैं, जो प्रेम को साकार रूप देते हैं।
- नंद-नंद: नंद बाबा के पुत्र, भगवान श्रीकृष्ण।
- माली-मालिन: राधा और कृष्ण, जो प्रेम रूपी वाटिका को सींचते हैं।
- रसखानि: रस की खान, कवि रसखान का उपनाम।
- चितचोर: मन को चुराने वाला, कृष्ण के लिए प्रयुक्त विशेषण।
- मनमानिक: मन रूपी माणिक, अनमोल मन।
- बेमन: बिना मन का, कृष्ण द्वारा मन चुरा लिए जाने के बाद की स्थिति।
- नंदकिशोर: नंद के लाडले, भगवान श्रीकृष्ण।
- आवनुहैंड़ि: आना, आगमन (संभावित अर्थ, संदर्भ में कृष्ण के आगमन के लिए प्रयुक्त हो सकता है)।
- बनबाग: वन और बाग, ब्रजभूमि की सुंदरता का हिस्सा।
- तिहुँपुर: तीनों लोक (पृथ्वी, आकाश, पाताल), समस्त राज्य का प्रतीक।
- राधिका: राधा, राधारानी, वृषभानुजा
- नंद-नंदन: कृष्ण, गोपाल, मोहन
- नैन: आँख, नेत्र, लोचन
- सर: बाण, तीर, नाराच
- आँख: नयन, चक्षु, दृग
- कुंज: निकुंज, बगीचा, उपवन
- कलधौत: सोना, कंचन, स्वर्ण
कविता से कुछ क्रियारूप और उनके मूल रूप:
- नाहिं (नहीं है): होना
- लखि (देखकर): देखना
- लै गयौ (ले गया): लेना/जाना
- करौं (करूँ): करना
- परी (पड़ गई): पड़ना
- लाग्यो (लगा): लगना
- करि सकौं (कर सकूँ): करना/सकना
- डारौं (डाल दूँ/त्याग दूँ): डालना/त्यागना
- बिसारौं (भुला दूँ): भुलाना
- निहारौं (देखूँ): निहारना
- वारौं (न्योछावर कर दूँ): वारना/न्योछावर करना
5. अध्याय पर आधारित 20 नए अभ्यास प्रश्न (हल सहित)
6. अध्याय का संक्षिप्त सारांश (बोर्ड परीक्षा पुनरावृत्ति हेतु)
पाठ: प्रेम-अयनि श्री राधिका कवि: रसखान
यह अध्याय कवि रसखान द्वारा रचित दो सवैयों को प्रस्तुत करता है, जो उनकी कृष्ण और ब्रजभूमि के प्रति अटूट भक्ति और प्रेम को दर्शाते हैं।
पहला सवैया:
- राधा प्रेम की मूर्ति: कवि कहते हैं कि राधा स्वयं प्रेम का वासस्थान (अयनि) हैं।
- कृष्ण प्रेम का रंग: कृष्ण प्रेम का स्वरूप हैं, जो प्रेम को रंगत प्रदान करते हैं (प्रेम-बरन)।
- चित्तचोर कृष्ण: कृष्ण अपनी मनमोहक छवि से कवि का मन रूपी माणिक चुरा लेते हैं, जिससे कवि बेमन हो जाते हैं।
- अनवरत ध्यान: कवि कृष्ण की छवि को एक पल के लिए भी पलकों से ओझल नहीं कर पाते, जो उनकी गहरी तल्लीनता दर्शाता है।
दूसरा सवैया:
- सर्वस्व त्याग: कवि कृष्ण की छोटी लाठी और कंबल के लिए तीनों लोकों का राज्य त्यागने को तैयार हैं।
- सिद्धियों का त्याग: वे आठों सिद्धियों और नौ निधियों के सुख को नंद की गायों को चराने (कृष्ण सेवा) के लिए भी भुलाने को तैयार हैं।
- ब्रज से प्रेम: कवि अपनी आँखों से ब्रज के वन, बाग और तालाबों को देखने की तीव्र इच्छा रखते हैं।
- करील कुंजों पर न्योछावर: वे करोड़ों सोने के महलों को ब्रज के करील कुंजों पर न्योछावर कर देना चाहते हैं, क्योंकि वे कुंज कृष्ण की लीलाओं से जुड़े हैं और उन्हें सांसारिक वैभव से कहीं अधिक प्रिय हैं।
मुख्य संदेश: इन सवैयों के माध्यम से रसखान ने कृष्ण और राधा के प्रति अपनी अनन्य भक्ति, ब्रजभूमि के प्रति गहरा लगाव और सांसारिक सुखों पर आध्यात्मिक प्रेम की श्रेष्ठता को उजागर किया है। उनकी भाषा ब्रज और शैली सवैया है, जो भावों को मधुरता और प्रवाहमयता से व्यक्त करती है।
आशा है कि यह स्वयं अध्ययन नोट्स आपको 'प्रेम-अयनि श्री राधिका' अध्याय को गहराई से समझने में सहायक होंगे और आपकी बोर्ड परीक्षा की तैयारी को सुदृढ़ करेंगे। शुभकामनाएँ!
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